शनिवार, 19 फ़रवरी 2022
आलेख "सुखी और सफल वैवाहिक जीवन के सात वचन" -डॉ जयशंकर सूर्यप्रताप शुक्ल
आलेख "सुखी और सफल वैवाहिक जीवन के सात वचन"
-डॉ जयशंकर सूर्यप्रताप शुक्ल
भारतीय जन जीवन के शास्त्रीय एवं लौकिक दोनों पक्षों में विवाह नामक संस्था सबसे महत्वपूर्ण है। जन्म से अथवा जन्म पूर्व से लेकर के मृत्यु पर्यंत अथवा उसके के बाद भी विवाह नमक संस्था की उपयोगिता को बिल्कुल भी मना नहीं किया जा सकता। यह अपने आप में उतना ही जरुरत रखता है जितना कि अन्य संस्थाएं। अन्य संस्थाओं से भी ज्यादा आवश्यक अतिशय उपयोगी इसे इसलिए माना जा सकता है कि यह संस्कार अथवा यह संस्थान सभी संस्थाओं को बल देता है,पोषण देता है। इसके माध्यम से अन्य संस्थाएं अपने अस्तित्व को कायम रख पाती है।
वैवाहिक जीवन में सबसे ज्यादा सुखी किसे माना जाता है? इस बात को लेकर लंबी बहस हो सकती है, परंतु सत्य की तह तक पहुंचना कठिन होता है। सच तो यह है कि गृहस्थ जीवन में वो परिवार ही सबसे ज्यादा सुखी होता है, जहां प्रेम, त्याग, समर्पण, संतुष्टि और संस्कार, जैसी ये पांच बातें हो, इन पांच बातों के बिना दांपत्य अथवा गृहस्थी का अस्तित्व संभव ही नहीं है।
आज के समय में काफी लोग ऐसे हैं, जिनके वैवाहिक जीवन में प्रेम और त्याग तो होता है, लेकिन संतुष्टि का अभाव होता है। संतोष नहीं होता है, इस कारण सुख कम और दुख अधिक मात्रा में होता है।
परिवार एवं विवाह संस्थाएं दोनों एक दूसरे की पूरक होती है। क्योंकि परिवार में ही विवाह संस्कार संपन्न होता है और विवाह संस्कार के उपरांत ही परिवार की वृद्धि होती है अथवा परिवार का पोषण किया जा सकता है।गृहस्थी को श्रेष्ठ बनाने के लिए ऊपर कहीं गई पांचों बातें जीवन में उतारना जरूरी है। अगर इन बातों में से कोई एक बात का अभाव हो या कोई एक भी ना हो तो रिश्ता खतरे में पडृ जाता है। फिर रिश्ता उस रूप में नहीं रह जाता,यह एक समझौता बन के रह जाता है।
गृहस्थी कोई समझौता नहीं हो सकती। इसमें मानवीय भावों, विचारों एवं कल्पनाओं की उपस्थिति अनिवार्य है। सुखी और सफल वैवाहिक जीवन के लिए एक सूत्र जो विवाह के नाम से जाना जाता है,परम आवश्यक है।
विवाह के सात फेरों में दिये जाने वाले सात वचन को भौतिक एवं अध्यात्म की दृष्टि से जानने व समझने की कोशिश करेंगे। सुखी वैवाहिक जीवन के लिए सात फेरों के समय लिए सातों वचन जो भी परिवार निभाता है उसका जीवन कभी कष्टमय हो ही नहीं सकता। वैवाहिक जीवन हमारे वैदिक एवं लौकिक संस्कृति के अनुसार जीवन के महत्वपूर्ण सोलह संस्कारों में से एक महत्त्वपूर्ण संस्कार हैं। विवाह वह संस्कार है जिसके बिना मानव जीवन पूर्ण नहीं हो सकता।
विवाह का शाब्दिक अर्थ है- विशेष रूप से (उत्तरदायित्व का) निर्वाह करना, पाणिग्रहण संस्कार को सामान्य रूप से हिंदू विवाह के नाम से जाना जाता है। ध्यान रखने वाली बात है थी हिंदू वैदिक धर्म में विवाह संस्कार है समझौता नहीं। अन्य धर्मों में विवाह पति और पत्नी के बीच एक प्रकार का करार होता है, जिसे कि विशेष परिस्थितियों में तोड़ा भी जा सकता है। परंतु हिंदू विवाह पति और पत्नी के बीच जन्म-जन्मांतरों का सम्बंध का गवाह होता है, जिसे किसी भी परिस्थिति में नहीं तोड़ा जा सकता।
पवित्र अग्नि के सात फेरे लेकर और सप्तर्षि के साथ ध्रुव तारा को साक्षी मान कर दो परिवार तन, मन तथा आत्मा से एक पवित्र बंधन में बंध जाते हैं। वैवाहिक जीवन सुखी रहे इसके लिये हिंदू विवाह में पति और पत्नी के बीच शारीरिक संम्बंध से अधिक आत्मिक संम्बंध होता है, और इस संम्बंध को अत्यंत पवित्र माना गया है।
हमारे सनातन धर्म के अनुसार सात फेरों के बाद ही विवाह की प्रक्रिया पूरी होती है। यह सात फेरे ही पति-पत्नी के संबंध को सात जन्मों तक निरंतर बांधते हैं। हिंदू विवाह संस्कार के अंतर्गत वर-वधू अग्नि एवं विप्र को साक्षी मानकर इसके चारों ओर परिक्रमा करके पति-पत्नी के रूप में एक साथ सुख से जीवन बिताने के लिए संकल्प लेते हैं। इसी प्रक्रिया में दोनों सात भांवर लेते हैं, हर भांवर का एक वचन होता है, जिसे पति-पत्नी आजीवन साथ साथ निभाने का संकल्प करते हैं। विवाह के बाद कन्या वर के वाम अंग में बैठने से पहले उससे सात वचन लेती है। कन्या द्वारा वर से लिए जाने वाले सात वचन इस प्रकार है।
तीर्थव्रतोद्यापन यज्ञकर्म मया सहैव प्रियवयं कुर्या:।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति वाक्यं प्रथमं कुमारी।।
प्रथम वचन-
पहले वचन में यहाँ कन्या वर से कहती है, कि यदि आप कभी तीर्थयात्रा को जाओ तो मुझे भी अपने संग लेकर जाना, कोई व्रत-उपवास अथवा अन्य धर्म कार्य आप करें तो, आज की भांति ही मुझे अपने वाम भाग में अवश्य स्थान दें, यदि आप इसे स्वीकार करते हैं तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।
किसी भी प्रकार के धार्मिक कृ्त्यों की पूर्णता हेतु पति के साथ पत्नि का होना अनिवार्य माना गया है। जिस धर्मानुष्ठान को पति-पत्नि मिल कर करते हैं, वही सुखद फलदायक होता है, पत्नि द्वारा इस वचन के माध्यम से धार्मिक कार्यों में पत्नि की सहभागिता, उसके महत्व को स्पष्ट किया गया है।
द्वितीय वचन-
पुज्यौ यथा स्वौ पितरौ ममापि तथेशभक्तो निजकर्म कुर्या:।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं द्वितीयम।।
दुसरे वचन में कन्या वर से दूसरा मांगती है, कि जिस प्रकार आप अपने माता-पिता का सम्मान करते हैं, उसी प्रकार मेरे माता-पिता का भी सम्मान करें, तथा कुटुम्ब की मर्यादा के अनुसार धर्मानुष्ठान करते हुए ईश्वर भक्त बने रहें, तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ, यहाँ इस वचन के द्वारा कन्या की दूरदृष्टि का आभास होता है।
आज समय और लोगों की सोच कुछ इस प्रकार की हो चुकी है कि अमूमन देखने को मिलता है- गृहस्थ में किसी भी प्रकार के आपसी वाद-विवाद की स्थिति उत्पन होने पर पति अपनी पत्नि के परिवार से या तो सम्बंध कम कर देता है अथवा समाप्त कर देता है, उपरोक्त वचन को ध्यान में रखते हुए वर को अपने ससुराल पक्ष के साथ सदव्यवहार के लिए अवश्य विचार करना चाहिए।
तृतीय वचन-
जीवनम अवस्थात्रये मम पालनां कुर्यात।
वामांगंयामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं तृ्तीयं।।
तीसरे वचन में कन्या कहती है कि आप मुझे ये वचन दें कि आप जीवन की तीनों अवस्थाओं (युवावस्था, प्रौढावस्था, वृद्धावस्था) में मेरा पालन करते रहेंगे, तो ही मैं आपके वामांग में आने को तैयार हूँ। अपने आपमें बहुत ही मार्मिक व्यवस्था है क्योंकि जीवन पर्यंत आकर्षण का बंधन नहीं रहता। यहां दायित्व बोध और संकल्प का ही बंधन साथ है, जिसको पूरी तरह लागू करने के लिए हमारे सनातन धर्म में पूरी व्यवस्था कर दी गई है।
चतुर्थ वचन-
कुटुम्बसंपालनसर्वकार्य कर्तु प्रतिज्ञां यदि कातं कुर्या:।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं चतुर्थं।।
कन्या चौथा वचन ये माँगती है कि अब तक आप घर-परिवार की चिन्ता से पूर्णत: मुक्त थे, अब जबकि आप विवाह बंधन में बँधने जा रहे हैं तो भविष्य में परिवार की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति का दायित्व आपके कंधों पर है, यदि आप इस भार को वहन करने की प्रतीज्ञा करें तो ही मैं आपके वामांग में आ सकती हूँ।
इस वचन में कन्या वर को भविष्य में उसके उतरदायित्वों के प्रति ध्यान आकृ्ष्ट करती है, विवाह पश्चात कुटुम्ब पौषण हेतु पर्याप्त धन की आवश्यकता होती है, अब यदि पति पूरी तरह से धन के विषय में पिता पर ही आश्रित रहे तो ऐसी स्थिति में गृहस्थी भला कैसे चल पायगी।
इसलिए कन्या चाहती है कि पति पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर होकर आर्थिक रूप से परिवारिक आवश्यकताओं की पूर्ति में सक्षम हो सके, इस वचन द्वारा यह भी स्पष्ट किया गया है कि पुत्र का विवाह तभी करना चाहिए जब वो अपने पैरों पर खडा हो, पर्याप्त मात्रा में धनार्जन करने लगे।
पंचम वचन-
स्वसद्यकार्ये व्यवहारकर्मण्ये व्यये मामापि मन्त्रयेथा।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: पंचमत्र कन्या।।
इस वचन में कन्या जो कहती है वो आज के परिपेक्ष में अत्यंत महत्व रखता है, वो कहती है कि अपने घर के कार्यों में, विवाहादि, लेन-देन अथवा अन्य किसी हेतु खर्च करते समय यदि आप मेरी भी मन्त्रणा लिया करें, तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।
पाँचवे वचन पूरी तरह से पत्नि के अधिकारों को रेखांकित करता है, बहुत से व्यक्ति किसी भी प्रकार के कार्य में पत्नी से सलाह करना आवश्यक नहीं समझते, अब यदि किसी भी कार्य को करने से पूर्व पत्नी से मंत्रणा कर ली जायें तो इससे पत्नी का सम्मान तो बढता ही है, साथ साथ अपने अधिकारों के प्रति संतुष्टि का भी आभास होता है।
षष्ठम वचन-
न मेपमानमं सविधे सखीनां द्यूतं न वा दुर्व्यसनं भंजश्चेत।
वामाम्गमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं च षष्ठम।।
षष्ठम वचन में कन्या कहती है कि यदि मैं अपनी सखियों अथवा अन्य स्त्रियों के बीच बैठी हूँ, तब आप वहाँ सबके सम्मुख किसी भी कारण से मेरा अपमान नहीं करेंगे, यदि आप जुआ अथवा अन्य किसी भी प्रकार के दुर्व्यसन से अपने आप को दूर रखें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।
वर्तमान परिपेक्ष्य में इस वचन में गम्भीर अर्थ समाहित हैं, विवाह पश्चात कुछ पुरुषों का व्यवहार बदलने लगता है, वे जरा जरा सी बात पर सबके सामने पत्नी को डाँट-डपट देते हैं, ऐसे व्यवहार से पत्नी का मन कितना आहत होता होगा, यहाँ पत्नी चाहती है कि बेशक एकांत में पति उसे जैसा चाहे डांटे किन्तु सबके सामने उसके सम्मान की रक्षा की जाए, साथ ही वो किन्हीं दुर्व्यसनों में फँसकर अपने गृ्हस्थ जीवन को नष्ट न कर ले।
सप्तम वचन-
परस्त्रियं मातृसमां समीक्ष्य स्नेहं सदा चेन्मयि कान्त कुर्या।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: सप्तममत्र कन्या।।
अन्तिम सातवां वचन के रूप में कन्या ये वर मांगती है कि आप पराई स्त्रियों को माता व बहन के समान समझेंगें, और पति-पत्नि के आपसी प्रेम के मध्य अन्य किसी को भागीदार न बनाएंगें, यदि आप यह वचन मुझे दें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।विवाह पश्चात यदि व्यक्ति किसी बाह्य स्त्री के आकर्षण में बँध पगभ्रष्ट हो जाए तो उसकी परिणिति क्या होती है, उसकी हालत क्या होती है,आप सभी जानते है इसलिये इस वचन के माध्यम से कन्या अपने भविष्य को सुरक्षित रखने का प्रयास करती है, सफल वैवाहिक जीवन के इस विवाह के सात फेरों के सात वचनों की जानकारी आप सभी को मंगलमय हो।
वास्तव में परिवार विवाह नाम क्या जो स्वस्थ आएं हैं यह मानव जीवन को उसके चारों ओर सार्थक को प्राप्त करने में बहुत सहायक है कि साथ चारों आश्रम ओम की जोश था को भी दुआ संस्कार पूरी तरह से अपने पूर्णाहुति तक ले जाती है।
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