रविवार, 20 फ़रवरी 2022

साक्षात्कार "साहित्य और साहित्य की विधाएं व्यक्ति का चुनाव कर लेती है "डा जय शंकर शुक्ल"

साक्षात्कार

"साहित्य और साहित्य की विधाएं व्यक्ति का चुनाव कर लेती है "

डा जय शंकर शुक्ल का साक्षात्कार संजय यादव द्वारा


प्रश्न 1_अध्ययन मनन के और भी क्षेत्र थे, लेकिन उस तरफ न जाकर, साहित्य का पथ आपने चुना, ऐसा किसी सुझाव, विशेष कारण या किसी व्यक्तित्व से प्रेरित होकर आपने इस ओर रुख किया?

उत्तर_ संजय जी आपका प्रश्न किसी भी साहित्यकार के लिए उसके अतीत में ले जाने हेतु एक कुशल संवाहक के रूप में सामने आता है आपने कहा अध्ययन और मनन के अन्य रास्ते भी हैं मैं आपको पूरी विनम्रता से बताना चाहता हूं कि वह समस्त रास्ते यदि देखा जाए तो साहित्य की गलियों से होकर ही गुजरते हैं साहित्य की विधियों से गुजरने वाला हर रास्ता किसी न किसी व्यक्ति को पाठक श्रोता रचनाकार अथवा आलोचक बनाता है ऐसा मेरा मत है यह व्यक्ति स्वयं नहीं सुनता बल्कि मेरी अपनी धारणा के अनुसार साहित्य और साहित्य की विधाएं व्यक्ति का चुनाव कर लेती है मेरे लिए मेरे इस क्षेत्र में पदार्पण का पूरा श्रेय मेरे इसी अवधारणा को जाती है मैंने साहित्य को नहीं चुना है बल्कि समाज में यत्र तत्र सर्वत्र घटने वाली घटनाएं संवेदनशीलता एवं संवेदनहीनता के मध्य की बारीक रेखा लोगों का एक दूसरे के प्रति समर्पण और धोखा यह सारी चीजें मिल कर के मेरे हृदय को मत्ती रहती थी जिसके कारण ऐसा लगा कि इनको बाहर निकालना चाहिए शुरुआत में हमने इन बातों को अपने किसी अभिन्न पर चितियां मित्र से कहने का प्रयत्न किया लेकिन वह बड़ा भयंकर साबित हुआ क्योंकि उसमें नमक मिर्च अलग करके दूसरे रूप में अन्य लोगों के सामने परोस दिया गया फिर हार कर के अपने भावों के उद्योग को शब्दों के माध्यम से कागज पर उतार कर के सुधी पाठकों आलोचकों शोधकर्ताओं हेतु एक पूर्व प्रचलित परंपरा का हिस्सा बनना मुझे ज्यादा उचित लगा और इस तरह से मैं साहित्य की धारा में अपने आप को पाता हूं।


प्रश्न 2_साहित्य में अन्य विधाओं की अपेक्षा नवगीत ही आपकी प्रतिनिधि विधा क्यों है ?

उत्तर_जैसा कि आप के पूर्व प्रश्न के उत्तर में मैंने बताया कि विधाएं स्वयं व्यक्ति का चयन करती हैं व्यक्ति कभी विधाओं का चयन नहीं करता यह बात कमोबेश सब पर लागू होती हैं और जब कभी भी आप किसी कंटेंट को या किसी थॉट प्रोसेस को लेकर के सक्रिय होते हैं तो निश्चित तौर पर वह अपने लिए माध्यम की तलाश करती है और वह माध्यम किसी भी रूप में हो सकता है कुछ नवगीत के प्रारंभिक आयामों ने मुझे प्रभावित किया और उस प्रभावशीलता का परिणाम है की अन्य कई विधाओं में लेखन के साथ-साथ क्योंकि मैं मूलतः अपने को नव गीतकार मानता हूं यह लालित्य मेरे अन्य विधाओं में भी देखा जाता है और लोकगीत में कथा तमक और गेम आत्मक स्वरूप साक्षी कृत होता है इस तरह से मैं तो यही कहूंगा कि मेरा प्रतिनिधि 9 गीतकार के रूप में स्थापन मेरे भावों के उद्योग का प्रवाह है जिसमें मुझे इस विधा ने स्वयं मन के भाव को अलग-अलग रूप आकार में व्यक्त करने की सामर्थ्य प्रदान की!


प्रश्न 3_जब गीत स्वयं में एक विधा थी और नवगीतकार भी यह मानते हैं, गीत की जानकारी के बिना नवगीत नहीं लिखा जा सकता, तो नवगीत नामकरण की क्या विवशता थी, इसे गीत रूप में ही रहने दिया जाता? 

उत्तर_आपने एक विमर्श को प्रश्न के रूप में यहां प्रस्तुत किया है हर नवगीत कार मूलतः गीतकार होता है लेकिन हर गीतकार  नवगीतकार हो यह जरूरी नहीं। संजय जी यहां पर हमें देखना होगा की गीत की आत्मा क्या है मेरे समझ से गीत की आत्मा उसकी चांद से अधारणा है जहां पर थोड़े ही सोत्र आत्मक स्वरूप में बहुत सारी बातें कह जाने का बहुत सारे रहस्यों को स्थापित करने का एवं प्रसारित करने का हुनर व्यक्ति के अंदर आ जाता है इसमें टेक्स्ट और क्राफ्ट दो चीजें होते हैं टेस्ट कथन है और क्राफ्ट जो है रूपा कार है रूपा कार में हम देखते हैं कि विभिन्न तरह के मात्रक और वर्णिक शब्दों के रूप में हम जब आगे बढ़ते हैं यहां मुखड़ा और अंतरा के क्रमिक प्रवाह में यह हमारे सामने आता है मैं नवगीत को भी गीत का एक परिष्कृत और उत्कृष्ट रूप मानता हूं इसका मतलब यह नहीं है कि गीत उत्कृष्ट नहीं होते या परिष्कृत नहीं होते बहुत सारे लोग लोकगीत को भी गीत ही मानते हैं जहां पर की नए कथन नए भाव नए विचार नए रूप आकार आकार लेते हैं वस्तुत अतीत में जाते हैं तो हमारे सामने आजादी के आसपास की बात आती है जहां पर कहानी के उन्नत स्वरूप को व्यक्त करने के लिए नई कहानी नए-नए नाटक नई कविता नए निबंध आकार लेते हैं वहीं पर गीत की शाखा में लोकगीत का भी जन्म होता है और निराला के गीतों में लोकगीत के उच्च देखे जा सकते हैं केदारनाथ अग्रवाल के गीतों में नवगीत का आकार आगे बढ़ता हुआ दिखता है वीरेंद्र मिश्र इसको और आगे तक ले जाते हैं ठाकुर प्रसाद सिंह के गीतों में यह चीजें आती हैं तो गीत को गीत ही रहने दिया जाए आपकी बात सत्य है लेकिन हमेशा समय के साथ-साथ यह चीजें परिवर्तनशील है और आज के समय में इनका जो स्वरूप हमारे सामने है वह लगभग चौथे चरण में नौ गीत का स्वरूप हमारे सामने है जिसे हम क्रमिक रूप से जब देखते हैं तो वह अपने शिल्प में और अपने कथ्य में बहुत ही विशिष्ट रूप लेते हुए आगे बढ़ता है यह विधाओं का परिष्करण है जो विधा के रूप में आ रहा है रूप आकार इसका जो है सफल है सक्षम है स्वतंत्र है इसलिए मेरा विचार यह है कि गीत की शासक सत्ता अनिर्वचनीय है स्थापित है लोकगीत उसी गीत की परंपरा को आगे बढ़ाने का एक नवीनतम साधन माना जा सकता है।

प्रश्न 4_क्या आपने जन्म से लेकर आज तक नवगीत में अपने शिल्प और कथ्य के संदर्भ में परिवर्तन आए हैं, यदि परिवर्तन आए हैं तो क्या हैं ? 

उत्तर_परिवर्तन सदैव विकास के क्रम को आगे बढ़ाते हैं यदि परिवर्तन संभव ना होता तो हम आप इस स्वरूप में ना होते यह विचार की अवधारणा ही परिवर्तन का सबसे बड़ा कारण है इस कारक को लेकर के जब हम कुछ नवीनतम करने की ओर बढ़ते हैं तो जो कुछ छूट जाता है वह पुरातन होता है जो कुछ आगे आता है वह नवीनतम होता है इन के मध्य की जो बारीक धारा है उसे आप परिवर्तन कर सकते हैं निश्चित रूप से बंसी और मॉडल k9 गीत को देखें या उस कालखंड में निराला के गीत हो केदारनाथ अग्रवाल के हो वीरेंद्र मिश्र के हो यह एक परंपरा को आगे बढ़ाता हुआ चंद्रदेव सिंह के हो जो हमारे सामने स्वरूप आ रहा है निश्चित तौर से और निरंतर परिवर्तन की ओर आगे बढ़ रहा है यह परिवर्तन केवल शिव में नहीं है यह तथ्य में भी है और तथ्य का परिवर्तन अपने समय की अनुगूंज को ध्वनित करता है अब देखिए कि आज के कालखंड में जो हम यह पाते हैं के निरंतर नए-नए शब्दावली हमारे प्रयोग में आते जा रहे हैं पुरानी शब्दावली छूटती जा रही है हम निश्चित तौर पर छायावाद की शब्दावली से काफी आगे बढ़ चुके हैं और छायावाद की शब्दावली से बल्कि 60 के दशक 70 के दशक 80 के दशक और दर्शकों के भी आगे निकल कर के हमने नई सदी में नए प्रतिमान रखने की कोशिश की है निश्चित तौर पर संजय जी यह परिवर्तन आया है और यह परिवर्तन नहीं है परिवर्तन ना आए तो नए लोगों को अवसर ही नहीं मिलेगा परिवर्तन ना आए तो पुराने लोग ही पुरानी चीजों को लेकर बैठे रहेंगे और जो हम कहते हैं साहित्य समाज का दर्पण होता है तो साहित्य अपने समाज का अपने समय के समाज का दर्पण होता है तो वह चीज धोनी तो नहीं होगी इसलिए यह परिवर्तन आया है और आगे भी इस तरह के परिवर्तन की संभावना बनी रहेगी।

प्रश्न 5_आज लिखे जा रहे नवगीत की चुनौतियाँ क्या हैं, क्या वह अपनी समकालीन चिंताओं को सीधी तरह स्वर दे पा रहा है, जैसे हिंदी के अन्य समकालीन काव्य रूप दे रहे हैं ? 

उत्तर_आपके इस प्रश्न ने एक अलग तरह के परिवेश को चर्चा के लिए सामने ला दिया जब भी कोई व्यक्ति साहित्य में कदम रखता है और कुछ लिखने का प्रयत्न करता है तो वह अपने आदर्श अपनी मान्यताएं अपने मूल्य और अपने विश्वास लेकर आता है हमारे यहां कहा गया है कि 1 लाइन लिखने के लिए 100 लाइन पढ़ना होता है आज के समय में साहित्य रचना में लगे हुए लोग पढ़ नहीं रहे हैं यह बहुत बड़ा दुर्भाग्य है साहित्य का भी साहित्यकारों का भी पाठकों का भी हमें निश्चित नहीं कर पाते कि क्या चीज़ लिखी जा चुकी है क्या चीज लिखने बाकी है किस तरह से हम लिखे कि युगबोध उसमें ध्वनित हो यह बड़ा कठिन दौर है आपका यह प्रश्न मौजूद है बहुत ही समय के साथ जुड़ा हुआ है आज की समस्याएं साहित्य में मुखरित होनी चाहिए न केवल समस्याएं अभी तो उनका समाधान भी मुखरित हो तो यह ज्यादा उचित होगा लेकिन थोड़ा सा यहां मैं यह भी कहना चाहूंगा कि साहित्य रचना समस्याओं और समस्याओं के समाधान का वर्णन ही नहीं है बल्कि यह कहीं न कहीं विवरण विश्लेषण व्याख्या विवेचन तात्पर्य अभिप्राय इन सारे शिक्षकों से होकर भी अपने आप को प्रमाणित करने का प्रयत्न करता है जब हम कभी लेखन में उतरते हैं तो हम यह देखते हैं कि महादेवी ने क्या लिखा है प्रसाद ने क्या लिखा है पंत ने क्या लिखा है निराला ने क्या लिखा है बच्चन ने क्या लिखा है भवानी दादा ने क्या लिखा है केदारनाथ में क्या लिखा है नरेंद्र शर्मा ने क्या लिखा है वीरेंद्र मिश्र ने क्या लिखा है देवेंद्र शर्मा इंद्र ने क्या लिखा है क्या लिखा है कि लिस्ट में जो नाम मैंने गिनाए हैं यह थोड़े से नाम है इसमें बहुत सारे नाम और जोड़े जा सकते हैं अब यहां इन्होंने जो लिखा है वह अपने समय को लिखा है जरूरी नहीं है कि हम भी उन्हीं के समय को लिखें हमें अपना समय लिखना होगा और साथ ही साथ जब हम अपने समय को लिखते हैं तो हमारा शेर भी अपना होता है हमें अपना नया रास्ता बनाना होता है शिल्प के लिए भी और कथ्य के लिए भी जब दोनों चीजें हम बना लेते हैं तब हम स्थापित हो पाते हैं नहीं तो हम पर नकल का आरोप लगता है और आजकल ज्यादातर रचनाकार अपने आपको इससे अलग नहीं रख पा रहे हैं सबसे बड़ा कारण यही है कि आज विमर्श और संवाद का अभाव है हर व्यक्ति ने अपने अपने खेमे और खाना बना लिया है और यह गिरोह बंदी साहित्य का नुकसान कर रही है एक नया व्यक्ति स्वतंत्र रूप से लिखना चाहे तो उसे पहचान के संकट से गुजर ना होता है हां जब वह धीरे-धीरे अपना स्वाध्याय करके अध्ययन करके अपनी नई लीक अपना नया रास्ता बना लेता है तो धीरे-धीरे वह अनंत काल तक कीर्ति को प्राप्त करता है ऐसा मेरा मत है।


प्रश्न 6_युगबोध के विविध आयाम क्या है, क्या युगबोध की संकल्पना को संपूर्णता से लाने में सक्षम है, यह विधा?

उत्तर_संजय यादव जी आपका यह प्रश्न विविध काल खंडों में परंपराओं और परिवेश के साथ-साथ स्थितियों के विवेचन तक हमें ले जाती हैं युगबोध वास्तव में बड़ा ही जटिल शब्द है इसे इसके शाब्दिक अर्थ से अलग लेकर के कुछ लाक्षणिक और व्यंजन इक अर्थ भी लेने होंगे सामान्यतया युगबोध का अर्थ है कि किसी भी युग का अच्छी तरह हमें बोध होना अथवा किसी भी युग का बोध किसी भी रचना में परिलक्षित होना जब हम देखते हैं भारतेंदु हरिश्चंद्र के समय से लगभग 18 से 57 से जो समय चलता है हिंदी के आधुनिक कालका हिंदी साहित्य के इतिहास में यह योग कई रूपों में विशिष्ट है और वह समय मूलत शुरुआत का है जहां बहुत सारी परंपराएं बहुत सारी परिभाषाएं गढ़ी गई अट्ठारह सौ सत्तावन से लेकर 19 और उनके उनके स्कूल के रचनाकार हिंदी को नया स्वरूप देने में लगे रहे लेकिन वास्तविक हिंदी के नए शब्द और अर्थ करने की प्रक्रिया जो शुरू हुई वह सन उन्नीस सौ से हुई जहां आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने मराठी साहित्य के मानकों को कहीं ना कहीं आधार बनाते हुए हिंदी साहित्य को आगे बढ़ाने का नए-नए आयाम खोजने का प्रयत्न किया और सरस्वती का प्रकाशन इस कड़ी में एक महत्वपूर्ण कार्य है 19 से 1918 तक का द्विवेदी युग हिंदी साहित्य के इतिहास में बहुत सारे नए कार्यों के लिए जाना जाता है यहीं पर आकर के खड़ी बोली हिंदी गद्य का उद्भव होता है जो निरंतर अपने विकास की प्रक्रिया में आज तक संलग्न है 1918 में एक नए युग का सूत्रपात होता है छायावाद का यहां छायावाद के चार स्तंभ प्रसाद निराला और महादेवी हमारे सामने आते हैं और निराला को इसका कुछ ज्यादा ही दिया जाता है और वह बंगाल से साहित्य की चल रही धारा को लेकर के बहुत सारे प्रयोग बहुत सारी परंपराएं हिंदी साहित्य में लेकर आए और यहां पर आत्म प्रकाशन की जो भावना रही वह महत्वपूर्ण रही जिस तरह से द्विवेदी युग में इतिवृत्त आत्मकथा की भावना रही भारतेंदु युग में देश प्रेम की भावना रहे उसी तरह छायावाद में मन के छिपे हुए भावों को प्रकट करना प्रमुख रहा और यह 1918 से लेकर 1936 तक चला 1936 में लखनऊ में प्रेमचंद की अध्यक्षता में प्रगतिशील लेखक संघ जो बैठक हुई उस बैठक में एक चीज निश्चित किया गया कि भारतीय साहित्य को विश्व साहित्य से जोड़ा जाए और वहां कठिनाई छंद की रचना का अनुवाद नहीं किया जा सकता तो शब्द अनुवाद हो सकता है हो सकता है हो सकता है वहां पर फिर हर चीज को नए रूप में गन्ने की परंपरा चली और वहीं से हमारे सामने कुछ नया करने की अर्थात उत्तर छायावाद आया दिनकर बच्चन रामेश्वर शुक्ल अंचल नरेंद्र शर्मा जैसे रचनाकारों के साथ-साथ केदारनाथ अग्रवाल जगदीश प्रसाद माथुर नागार्जुन जैसे रचनाकारों का प्रारंभ कुछ नया करने की ओर आगे बढ़ने की दृढ़ता यहां सामने आती है और जिसे हम इसके मूल स्वरूप में देख पाते हैं युगबोध का तात्पर्य होता है उस कालखंड में घटने वाली राजनीतिक सांस्कृतिक सामाजिक घटनाएं आपकी रचनाओं में आकार ले पा रही है या नहीं आप जो बिंब लेकर आ रहे हैं प्रत्येक लेकर आ रहे हैं वह कहीं पुरानी तो नहीं है आप की शब्दावली पुरानी तो नहीं है आपका शिल्प पुराना तो नहीं पुराना से हमारा आशय जिसमें आपके पूर्ववर्ती रचनाकारों ने लिख रखा है आपको कुछ नया करना है क्योंकि समय हमेशा बदलता रहता है और ऐसे में वही रचनाकार कालजई होते हैं युग जी भी होते हैं जो युगबोध को प्रश्रय देते हैं युगबोध को अपने लेखन में लेकर आते हैं। निश्चित रूप से लोकगीत बिरहा युगबोध को अपने आप में समाहित करने में सक्षम है अगर सक्षम ना होती तो यह विधा अन्य विधाओं की तरह कहीं दम तोड़ चुकी होती आज नई विधाओं का सूत्रपात हो रहा है पुरानी विधाएं कहीं खोती चली जा रही हैं आज आपने अगर यह प्रश्न किया है तो यह भी ध्वनित होता है कि 9 वित्त में वह सामर्थ्य है किसी भी विधा की सामर्थ्य अपने रचनाकारों के सामर्थ्य पर निर्भर करता है मैं समझता हूं यह वाक्य अपने आप में परिपूर्ण है।


प्रश्न 7_आपकी दृष्टि में युगबोध में किस प्रकार की संभावनाएँ निहित हैं ? 

उत्तर_आपने युगबोध में नहीं संभावनाओं की बात की है देखिए हमारे यहां किसी भी चीज को आंकने के लिए दो शब्द है एक संभावना दूसरी है आशंका जब हम संभावना की बात करते हैं तो सकारात्मकता की ओर जाती है जब आशंका की बात करते हैं तो निरर्थक और नकारात्मकता की ओर जाती है आपने चुके संभावना की बात कही है तो युगबोध में ही अपार संभावनाएं हैं ऐसा मेरा प्रबल मत है जब हम यह देखते हैं कि कोई भी रचनाकार अपने पूर्व रचनाकारों के श्रेणी को आगे की ओर ले जाने के लिए संकल्प है तो निश्चित तौर पर वह संभावनाओं के नए द्वार खोलता है और अपनी स्वयं की उपादेयता को भी लंबे समय तक बनाए रखने में सक्षम होता है जब वह ऐसा नहीं कर पाता तो काल की विकराल नीतियों में कहीं खो कर रह जाता है इसलिए विधा की यह समग्रता यह संपूर्णता संभावना गत होकर अपने रचनाकार को नया जीवन देने के साथ-साथ दीर्घ जीवन देने की हिमायती और पक्ष में अपार संभावनाओं को देखता हूं जहां पर युगबोध अपने सभी आयामों के साथ सभी परंपराओं के साथ स्थापित और ध्वनित हो सकता है ऐसा मेरा मत है।

प्रश्न 8_वर्तमान में 21वीं सदी के नवगीतों को आप 20वी सदी के नवगीतों से किन आयामों पर भिन्न पाते हैं? 

उत्तर-मैंने अपने पहले उत्तरों में इस बात को रखने का प्रयत्न किया है की नवगीत के विविध चरण रहे हैं अट्ठारह सौ सत्तावन से हिंदी साहित्य में जो नए पन का सूत्रपात हुआ है परवर्ती काल में आते-आते 1957 के आसपास जहां से नवगीत को हम आकार लेता हुआ देखते हैं नामकरण देखते हैं गीतांजलि का उद्भव देखते हैं कविता 64 की बात देखते हैं 5 + बांसुरी का प्रकाशन देखते हैं यहां से प्रथम चरण शुरू होता है नवगीत का इसे थोड़ा और पीछे ले जाए तो निराला के केदार के जानकी वल्लभ शास्त्री के गीतों में भी हमें नवगीत के उच्च दिखाई पड़ते हैं यह प्रारंभ है नवदीप के रचना काल का जिसे हम स्थापना का नाम दे सकते हैं आज लोकगीत 70 साल की यात्रा कर चुकी है सृजन की 70 साल की यात्रा में अगर विविध चरणों को ले तो आपके प्रश्न के अनुसार बीसवीं सदी और 21वीं सदी निश्चित तौर पर बीसवीं सदी के परिवेश कुछ और थे जन सरोकार और थे 21वीं सदी में काफी कुछ बदला हुआ नजर आया बहुत सारे नए उपकरण याद किए गए बहुत सारी प्रक्रिया नए पंखों लिए हुए आई और यहां पर मानवीय संवेदना का स्वरूप भी बदला हमारे मूल्य बदले हमारी मान्यताएं बदली हमारे आदर्श बदले और विश्वास में भी बदलाव हुआ नई पीढ़ी बदलाव की हिमायती है पुरानी पीढ़ी है के बीच में एक संघर्ष का रूप देखा गया यह रूप गीत की रचना में भी दृष्टिगोचर होता है सामान्य देखते हैं कि अपने प्रथम चरण में सरसो में जिस तरह अपने शिल्प और कथ्य को लेकर के कुछ झगड़ा हुआ था 21वीं सदी आते-आते दूर हुआ अब हमने समाधान देने की समस्या उठाने की संवाद करने की परंपराओं में नए-नए आयाम खोज लिए हैं और वह आया हमारी रचना धर्मिता को नए ढंग से परिभाषित करते हैं यह नवगीत का एक ऐसा प्रवेश है जहां पर रचनाकार विज्ञान की शब्दावली ओं को अंग्रेजी की शब्दावली यों को भी अपनी रचनाओं में स्थान देने से नहीं चूकता वह कहीं पर भी बाध्य नहीं है दबा हुआ नहीं है बंधा हुआ नहीं है। वह मुखर है अपने विचार को लेकर अपने भावों को लेकर,संजीदा भी है।

प्रश्न 9_हिंदी कविता की मुख्यधारा में नवगीत की उपस्थिति के मायने क्या हैं ? 

उत्तर_यादव जी सबसे पहले तो मुझे यह बताइए कि आप मुख्यधारा मानते कि से हैं क्या आजकल के मंचों पर जो तथाकथित लोग चुटकुलों के माध्यम से लकीरों के माध्यम से प्रस्तुत कर रहे हैं उसे आप मुख्यधारा मानते हैं या जो बड़े-बड़े अधिकारी जो कि उपकृत करने में समर्थ हैं उनके द्वारा विविध पत्र-पत्रिकाओं के लिए बनाए गए गिरोह इसमें एक दूसरे को सम्मानित और उपकृत करने की होड़ लगी होती है उसे मुख्यधारा मांगते हैं मित्र मुख्यधारा को स्पष्ट करना अत्यंत कठिन है ना तो मंच मुख्यधारा है और नहीं इस तरह की एकेडमिक मुख्यधारा कही जाती है हर एक बात मैं और कहूंगा कि उच्च शिक्षा में विविध आचार्य उपाचार्य द्वारा अपने विद्यार्थियों के माध्यम से आजकल कॉपी पेस्ट की जो विगत अवधारणा चल रही है उसे भी मुख्यधारा नहीं मानी जा सकती समय पर निर्भर होता है की मुख्य धारा क्या है आप कितना मौलिक कर पा रहे हैं वह आपको आपके दीर्घ जीवन में सहायक और प्रेरक साबित होगा लोकगीत मुख्यधारा का काव्य है मुख्यधारा हमारे लेखन हमारे प्रस्तुतीकरण को नया आधार देता है। जब हम मुख्यधारा में लोकगीत के उपस्थिति की बात करते हैं तो यह एक नया चुनौती है पुराने और नए लेखकों के लिए रचनाकारों के लिए कवियों के लिए पुराने रचनाकारों के लिए इस रूप में है कि मैथिलीशरण गुप्त की तरह किया वह अपने को इतना समर्थ समय-समय पर कर पाएंगे का हर युग में उनकी स्वीकार्यता बनी रहे क्योंकि गुप्त जी ऐसे रचनाकार हैं जो द्विवेदी युग से लेकर छायावाद से लेकर उत्तर छायावाद से लेकर प्रगतिशील युग को लेकर प्रयोगवादी युग तक और उसके बाद नई कविता कविता साठोत्तरी कविता समकालीन कविता के दौर में भी हो रहे ऐसा विलक्षण रचनाकार हमारे सामने एक मील का पत्थर है अगर हमें अपनी उपादेयता बनाए रखनी है साहित्य में अपनी उपस्थिति को बरकरार रखनी है तो निश्चित तौर पर समय के अनुसार हमें स्वयं को बदलना आवश्यक होगा यदि हम ऐसा नहीं कर पाते हैं पीछे छूटते चले जाएंगे आत्मा की पराकाष्ठा को लेकर कुछ मानते रहे तो वह मानने वाले हम और हमारे चेले छुपाते हो सकते हैं जो कहीं से भी मुख्यधारा का स्रोत नहीं हो सकते नवगीत की मुख्यधारा में मायने को जब हम देखते हैं तो यहां पर नई नई चुनौतियां हमें स्वयं को प्रमाणित और व्यवस्थित सिद्ध करने की जद्दोजहद है मेरे अपने मन में यही।

प्रश्न 10_नवगीत का लोकधर्मी अथवा जनसंवादी रूप हमारे सामने क्यूं नहीं आ पा रहा है और वर्तमान नवगीत जनता से सीधा संवाद क्यों नहीं कर पा रहे हैं? 

उत्तर_संजय जी लोकगीत बिरहा लोकगीत कारों का यह दुर्भाग्य रहा है कि नवगीत विधा जनसंवाद ई एवं लोक रंजन की परिभाषा को अपने कथ्य द्वारा पूरी तरह से साबित नहीं कर पाई जनसंवाद में सामान्य जन चेतना की बातें जीवन के अलग-अलग पहलू के साथ-साथ जन सरोकारों का जो आधार लोकगीत को पकड़ना चाहिए या नो गीत कारों को अपने रचना धर्मिता में लेकर आना चाहिए कहीं उससे यह दूर रहा वास्तव में लोकगीत विधा के रचनाकारों में आपसी मनभेद और मतभेद के साथ-साथ रचना प्रक्रिया एवं रचना धर्मिता में असहमति जिसे बाद में वयक्तिक असहमति मान लिया गया का बहुत बड़ी भूमिका रही जिसने इसे जन संवाद के रूप में जैन धर्मी के रूप में स्थापित होने में अवरोध उत्पन्न ने किया सामान्यतया गीत जो कि 9 गीत का मूल है और नो गीत जोगी गीत का उत्साह है यह दोनों आपस में पहलू होने चाहिए थे लेकिन यह आपस में विरोधाभासी हो गए और नवगीत कारों ने अपने आपको स्वयं को श्रेष्ठ मान लिया यहां तक तो ठीक था आप स्वयं को श्रेष्ठ मानले लेकिन इसके दूसरी तरफ उन्होंने गीत कारों को ही यह भी मांगने का कुत्सित प्रयास किया जो हमारे साहित्य में गिरोह बंदी की ओर इशारा करता है यही कारण रहा कि नवगीत में जैन धर्म राया लोकरंजन की जगह पंडित के प्रदर्शन प्रमुख हो गया ऊंचा सिल्क में हो या कथ्य में हो विद्वानों ने अपनी समस्त विद्युत आ को शब्दों के माध्यम से टकसाली शिल्प में शब्दकोश की अवधारणा को लेते हुए लोकगीत की रचना की जिसने नवगीत विधा के साथ-साथ साहित्य का बहुत बड़ा नुकसान किया।

प्रश्न 11 क्या नवगीत एक सीमित, बौद्धिक समाज तक ही सिमट कर रह गया है?

उत्तर_आपका यह प्रश्न मेरे पूर्व के उत्तर में अपना समाधान प्राप्त करता है लेकिन फिर भी मैं कुछ कहना चाहूंगा इस संदर्भ को लेकर कि लोकगीत विधा में लोकगीत का लेखन और लोकगीत का पठन दोनों ही कुछ निश्चित लोगों के हाथों में चला गया यहां पर अलग-अलग समूह एवं उप समूह बन गए और उस समूह में एक मुखिया और उसके तमाम चले चौपाटी बन गए जो एक दूसरे को महिमामंडित करते हुए श्रेष्ठ साबित करने की प्रक्रिया में शामिल हो गए जब लेखन कुछ सीमित लोग अपने पंडित प्रदर्शन के आधार पर करने लगे तो पठन भी चुकी जनसामान्य तक नहीं पहुंचा और कविता प्रकाशन और बिक्री की स्थिति को देखते हुए प्रकाश को ने भी इस से मुंह मोड़ लिया तो ऐसी स्थिति में आम लोगों तक इसकी पहुंच दुर्लभ हो गई मुझे एक बड़े सुनाम धन्य दशकों के नौ गीतकार जिनका नाम मैं नहीं लूंगा कि एक टिप्पणी याद आती है कि आज भी मैं अपनी पुस्तक छपवाने के लिए प्रकाशक को पैसे देता हूं और पाठक मुझसे फ्री में लेना चाहते हैं यह हिंदी साहित्य का बहुत बड़ा दुर्भाग्य है जहां पर हम मुफ्तखोरी की एक प्रथा में शामिल सभी लोग एक दूसरे से किताबें मुफ्त में पा लेना चाहते हैं और एक व्यक्ति जो किताबें छपवा आता है उनको बांट कर इतिश्री कर लेता है पानी वाला उसे पड़ता नहीं सिर्फ अपने घर के शोभा बना कर रख देता है यह बड़ा कारण है नवनीत के जैन धर्म इता में ना हो पाने का।

प्रश्न 12    हिंदी कविता की मुख्य धारा की आलोचना नवगीत का मूल्यांकन करने से क्यों बचती रही?

उत्तर_हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं में से नवगीत विधा पर यह आरोप लगता है इस विधा ने अपने लिए आलोचक नहीं तैयार की यह बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि प्रायोजित आलोचना ने किसी भी विधा का बहुत अधिक नुकसान किया है चाहे वह कोई भी साहित्यिक विधा हो हिंदी कविता में जिसे आप मुख्यधारा का नाम दे सकते हैं या दे रहे हैं वहां पर आलोचकों ने खूब कलम चलाई क्योंकि जो कभी थे वह स्वयं ही आलोचक भी थे और कविता पर स्वतंत्र चर्चा को बढ़ावा देते हुए आलोचना के नए नए आयाम तय किए गए नामवर सिंह ने जब कविता में से काव्य शास्त्रीय पक्ष से उसका निकाल करके उसमें समाजशास्त्रीय पक्ष को स्थापित किया तो वहीं से उन्होंने आलोचना के नए टूल्स तैयार करने पर बल दिया जिसके द्वारा कविता की आलोचना के लिए नए-नए मिथक गधे गए यह मिथक नवगीत में नहीं मिलता कारण बहुत सारे हो सकते हैं लेकिन मेरे समझ से जो एक महत्वपूर्ण कारण है कोई भी नौ गीतकार स्वयं में इतना आत्ममुग्ध है कि वह अपने नवगीत पर किसी भी तरह की टिप्पणियां चर्चा करना तो दूर उसके मूल्यांकन के लिए स्वयं को तैयार नहीं कर पाता है आत्महत्या की पराकाष्ठा यह है कि कुछ खेमे और खाते हैं जहां से उन्हें लिखने और लिखवाने की प्रायोजना एक सुरक्षित व्यू में रखती है जिसके कारण नवगीत विधा विपन होती चली गई लोकगीत तो लिखे जाते रहे लेकिन इस पर चर्चा नहीं हो पाई संवाद नहीं हो पाया और लोकार्पण और अनावरण में भी रश्मि एक कार्य बनकर रह गया किसी भी विधा को आगे बढ़ाने के लिए उसमें आलोचना का होना बहुत जरूरी है यदि आलोचक नहीं है तो वह विधा धीरे-धीरे मृतप्राय हो जाती है यहां लोकगीत विद्या के साथ यह बात जुड़ती है कि इसने अपने लिए अपने बीच से आलोचक नहीं तैयार किया।

प्रश्न 13 समकालीन कविता और नवगीत के बीच इतनी विभेदक रेखाएं क्यों खींची गयी हैं? क्यों उसे आलोचना जगत ने बहिष्कृत किया?

उत्तर_समकालीन कविता का अपना अलग परिदृश्य और परिवेश है जहां पर बड़े-बड़े अधिकारी बड़े-बड़े प्रोफेसर बड़े-बड़े नेता बड़े-बड़े उद्योगपति अपने आप को स्थापित करने के लिए साहित्य की विभिन्न धाराओं में ना जा करके अपने स्वयं की योग्यता के विकास से ज्यादा काव्य की धारा को अपने अनुरूप बनाने और मोड़ने का प्रयत्न किया यहां यह बात ध्यान देने की है कि उन्होंने गीत या नो गीत का अहित नहीं किया बल्कि गीत और लोकगीत ने उन्हें अपने से अलग करके अपने लिए एक अलग विभेदक रेखा खींच कर रखी जो इसके लिए दुर्भाग्यपूर्ण रहा सारे पत्र पत्रिकाएं सारे विश्वविद्यालय की एकेडमिक स्थितियां इनके हाथ में थी एक निश्चित योजना के तहत इन्होंने काम किया जिससे कि गीत लोकगीत हाशिए पर आते चले गए उन्होंने कहा कि गीत और गीत की चांद से अवधारणा के कारण उसमें अपनी बात पूरी तरह से नहीं कहा जा सकता यह बात अलग है कि विधायक के प्रति इनकी यह गैर जिम्मेदाराना वक्तव्य इनके अयोग्यता या उसके शिल्प की जानकारी ना होना ना मान करके कई दूसरे कारणों को सामने लाया गया जो अपेक्षित नहीं थे यह विवेक रेखा दोनों तरफ से खींची गई लोकगीत में भी कुछ मठाधीश जो आशीर्वाद की स्थिति में हमेशा बने रहते थे वह जिनको कह दे वह नव गीतकार हैं उनका नवगीत है वह जीने ना कहें वह अपनी पहचान के लिए संघर्ष करता पाया जाता था और कमोबेश यही स्थिति समकालीन कविता के साथ रही वहां भी अपने खेमे का चोर गिरोह बंदी रही जिसने की हिंदी साहित्य में एक नई निवेदक रेखा को बल दिया

प्रश्न 14    हिंदी साहित्य के विकास एवं प्रचार-प्रसार में पत्र-पत्रिकाओं का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है, परन्तु नवगीत पर केन्द्रित पत्रिकाओं का अभाव क्यों है ? 

उत्तर_पत्रिका प्रकाशन के लिए सबसे पहला कार्य होता है वित्त की व्यवस्था करना ज्यादातर पत्र पत्रिकाएं अकादमी द्वारा संचालित हैं जिन्हें और सरकारी कर सकते हैं और सरकारी अकादमी यों के शीर्ष पर बैठे हुए लोग जो नौकरशाहों उद्योगपति हो प्रोफेसरों वह कुछ और नहीं तो कभी जरूर बन गए और उन्होंने कुछ उल्टी-सीधी तुकबंदी आकर के गद्य लेखन करके अपने आप को कभी घोषित भी कर लिया और अपने तरह के लोगों को जोड़ करके आगे बढ़ते रहें और बढ़ाते रहें रही सही कसर गीत लोकगीत के रचनाकारों द्वारा स्वयं को एकांगी और कूप मंडूक ताके स्थिति तक ले जाने का बिरहा यही कारण है कि नई कविता के पैरों का रोने पत्रिकाओं को अपनी निजी विरासत बना ली और जितने भी बड़े घराने रहे वह पत्र-पत्रिकाओं में कौन प्रकाशित होगा क्या प्रकाशित होगा इसका ध्यान रखने लगे गीत और नवगीत की चांद सी योजना के अनुसार प्रकाशित होने वाली पत्र पत्रिकाओं के लिए सबसे बड़ी चीज तो फंड की व्यवस्था दूसरे इसका पाठक वर्ग और तीसरी वहां तक की पहुंच इन तीनों के कारण यह नवगीत केंद्रित गीत केंद्रित पत्र-पत्रिकाओं का अभाव तो नहीं कर सकते लेकिन मात्रा में यह अपेक्षित रूप से बहुत कम है और जो है अभी वह कितने दिन चल पाएंगे यह कहना बहुत मुश्किल है

प्रश्न 15    नवगीत की आलोचना को समृद्ध करने के लिए और क्या किया जाना चाहिए?

उत्तर_नवगीत की आलोचना के लिए सबसे पहले हमें नवगीत परक आलोचना के टूल्स बनाने आवश्यक है संवाद धर्मिता जैन धर्म ताकि ओर उन्मुख हो करके हमें अपने खिड़कियां और दरवाजे खोलने होंगे हमें अपनी आलोचना को सुनने का अपने अंदर साहस पैदा करना होगा और कार्य शालाओं के माध्यम से आलेखों के माध्यम से हम इन चीजों को सामने लेकर आ सकते हैं आलोचना केवल पुस्तक चर्चा नहीं है केवल समीक्षा नहीं है केवल खोज नहीं है खबर नहीं है परख नहीं है बल्कि यह व्यक्ति केंद्रित अथवा विधा केंद्रित दो तरह से चलती है जब हम व्यक्ति केंद्रित करते हैं तो उसकी सारी लिखावट में मूल चीजों को हम लेकर आते हैं जो बिरहा केंद्रित करते हैं तो उसने क्या-क्या लिखा है उन पर बात करते हैं और जब किसी पुस्तक केंद्र तो होता है तो वह हम उस पुस्तक में आई रचनाओं पर अपनी बात कहते हैं इसके लिए हमें कुछ उपकरण तलाशने होंगे उन उपकरणों पर ध्यान देते हुए एक मानक बनाकर के आलोचना को आगे बढ़ाया जा सकता है आलोचकों को पैदा किया जा सकता है सबसे बड़ी बात यह है कि हमें अपने उस आत्मा के आवरण को भेद कर बाहर निकलकर जनसंवाद की स्थितियों तक स्वयं को लाना होगा तभी हम ऐसा कर पाएंगे

प्रश्न 16 नवगीत परम्परा को प्रतिष्ठा दिलाने का श्रेय आप किसे देते हैं?

उत्तर_लोकगीत की परंपरा आपके प्रश्न का यह हिस्सा अपने आप में बहुत ही विवादित है क्योंकि जो हम परंपरा की बात करते हैं तो वहां व्यक्ति प्रमुख नहीं होता विधा प्रमुख होती है और आपने व्यक्ति का नाम लिया है अब मैं यहां पर निराला को कहूं तो केदार रह जाते हैं केदार को कहूं तो राजेंद्र प्रसाद सिंह रह जाते हैं राजेंद्र प्रसाद सिंह को कहूं तो शंभूनाथ सिंह रह जाते हैं शंभूनाथ सिंह को कहो तो देवेंद्र शर्मा अंदर रह जाते हैं वीरेंद्र मिश्र रह जाते हैं उमाकांत मालवीय रह जाते हैं राजेंद्र गौतम रह जाते हैं वास्तव में परंपरा युग की परंपरा होती है एक कालखंड में सक्रिय बहुत सारे रचनाकारों के द्वारा रची गई रचनाओं के माध्यम से उस समय की परंपरा बनती है और इस परंपरा में योगदान देने वाले बहुत सारे लोग अपने कार्यों के द्वारा अपने लेखों के द्वारा अपनी रचनाओं के द्वारा उसे समृद्ध करते हैं तो इस तरह से मैं इसमें किसी एक व्यक्ति को श्रेय नहीं देना चाहूंगा मैंने कुछ नाम लिए हैं मैं तो यह कहता हूं कि आज नव प्रवेश e9 गीतकार जो पहला नो गीत लिखता है वह भी उतना ही महत्वपूर्ण उतना ही मजबूत है जितना इसके स्थापना को लेकर के सक्रिय रहने वाले रचनाकार क्योंकि यह जिंदा तभी रह पाएगी जब नए अंकुर फूटते रहेंगे

प्रश्न 17    अपनी छः दशकों की यात्रा में नवगीत को महिला साहित्यकारों का साथ क्यों नहीं मिल पाया?

उत्तर_लोकगीत लेखकों को महिला और पुरुष में बांटना मेरे समस्या उचित नहीं है कई महिलाएं रही भी हैं शांति सुमन से लेकर के यशोधरा राठौर तक की परंपरा जो है लेकिन हां अपेक्षाकृत कम महिलाएं इस क्षेत्र में आई हैं शायद विधायक लिस्ट था या दूर होता या जल्दी नाम कमाने की स्थितियों को ना देखते हुए इधर आना उन्होंने स्वीकार नहीं किया होगा क्योंकि कठिनाई जब हमारे सामने आती है तो समाधान लेकर आती है रचनाओं को रचने के क्रम में महिला साहित्यकारों ने नवगीत की तरफ ध्यान नहीं दिया या लोकगीत ने अपने दरवाजे उस तरह से नहीं खोलें जिससे कि यहां पर कोई भी रचना कार्य को समर्पित महिला या पुरुष उस रूप से आ सके आज भी उंगलियों पर गिने जाने वाले लोग लोकगीत लेखन में है दूसरी चीज है कि कोई भी रचनाकार महिला हो या पुरुष उस तरफ जाता है जहां पर पुरस्कार यस सम्मान धन मान प्रतिष्ठा की अपेक्षित मात्रा उसका इंतजार कर रही हो नवगीत के मामले में ऐसा नहीं देखा एक यह भी कारण रहा कि यहां पर पुरुष या महिला रचनाकार कम जुड़ पाए हैं और आगे यह संख्या निरंतर कम होती चली जा रही है

प्रश्न 18    21वी सदी के नवगीतों में युगबोध किस प्रकार व्यक्त हो रहा है?

उत्तर_जब हम 21वीं सदी की बात करते हैं तो यहां पर किसी भी रचनात्मक विधा के साथ-साथ तकनीकी ज्ञान और तकनीकी ज्ञान के प्रयोग की बातें सहज उद्घाटित होती हैं आज का युग विज्ञान का युग है विज्ञान में भी बहुत सारे नए नए आयामों के सृजित होने का युग है निश्चित तौर पर इस कालखंड में रखे जाने वाले साहित्य में यह योग ध्वनित होना चाहिए यदि हमारे रचनाओं में यह चीजें आ रही हैं तो हम कहेंगे कि युगबोध हमारी रचना धर्मिता के साथ-साथ चल रहा है यदि हम अब भी 40 साल 50 साल पूर्व की बातें लेकर आ रहे हैं तो निश्चित तौर पर यह हमारे रचना धर्मिता के साथ अन्याय माना जाएगा जो स्वयं हमारे द्वारा किया जा रहा है 21वीं सदी में परिवार विवाह जैसी संस्थाओं का श्री सकता हुआ कालखंड व्यक्ति के नए-नए पहनावे नए-नए विचार नई-नई भाव भंगिमा है इन सब पर साथ ही साथ जीवन के उतार-चढ़ाव में अलग-अलग अभिव्यक्त हो रहे भावों को स्वर देना इस युग की प्रमुख मांग है अब यह देखने की बात है कि 21वीं सदी में लोकगीत के अंतर्गत हम कितना इनका ध्यान रख पा रहे हैं!

प्रश्न 19 आधुनिक युगबोध में सम्मिलित तत्त्व यथा वैश्वीकरण, उत्तर आधुनिकतावाद, बाजारवाद, माहामारी, राष्ट्रवाद आदि को नवगीत किस प्रकार व्यक्त कर रहे हैं?

उत्तर_आपने जिन स्थितियों और विकारों का वर्णन किया है अपने प्रश्न में निश्चित तौर पर आज के लोकगीत में यह मुखर हैं रचनाकारों द्वारा इन्हें पूरी तरह से सिर्फ बंद कर के सामने लाने की प्रक्रिया को देखा जा रहा है वह भोपाल के मनोज जैन मधुर हो या मुरादाबाद के योगेंद्र वर्मा व्योम अथवा अवनी सिंह चौहान यह संगीतकार है जो आज के नए परिवेश में नए कथ्य को लेकर के सामाजिक ताने-बाने और जन सरोकारों से आवत रचनाओं को प्रस्तुत कर रहे हैं यह अपने आप में बहुत ही प्रसन्नता का विषय है कि युवक को लेकर के नवीनतम शिल्पी योजना के मद्देनजर नवगीत का सृजन चल रहा है जो बहुत ही प्रसन्नता का विषय है इसे निरंतर आगे बढ़ते रहना होगा जिसके लिए हमें कहीं ना कहीं आत्माओं लोकन करते हुए आत्मा से बच कर के आने वाले नई पीढ़ी के लिए एक शब्द सहारा प्रेरणा और रास्ता देना होगा।

प्रश्न 20 दलित, स्त्री, आदिवासी आदि विमर्शों में नवगीत का स्थान क्या है? क्या यह वर्तमान विमर्शों को व्यक्त कर पा रहा है?

उत्तर_वास्तव में नवगीत ने अपने लिए कुछ निश्चित सूत्र और श्रेणियां बना रखी है जो इसके रचनाकारों द्वारा अपने सुविधाजनक जोन में रहने को लेकर के कहीं जा सकती हैं आज के समय में आदिवासी हो या स्त्री विमर्श हो अथवा अन्य तरह के दलित विमर्श हो इनको रचनात्मकता में पूरा आख्यान ओं के माध्यम से आज के युग धर्म को शब्दों और शिल्प के द्वारा प्रस्तुत किया जाना अति आवश्यक है और बहुत सारा नवगीत इस तरह से लिखा भी जा रहा है रमेश रंजन की रचनाएं हो या माहेश्वर तिवारी की देवेंद्र शर्मा इंद्र की रचनाएं हो या योगेंद्र दत्त शर्मा की मयंक श्रीवास्तव भोपाल से लिख रहे हो या कानपुर से वीरेंद्र आस्तिक नचिकेता तो इन सब में सबसे मुखर और सशक्त गीतकार संगीतकार कहे जा सकते हैं हम यह कह सकते हैं कुल मिलाकर के भी हमारी पूर्व और नवीनतम पीढ़ी इन विषयों को लेकर के लोकगीत रच रही है और उनका स्वागत भी हो रहा है!

प्रश्न 21     वर्तमान नवगीतकारों के नवगीतों को दृष्टिगत रखते हुए, आपको नवगीत विधा का भविष्य कैसा प्रतीत होता है?

उत्तर_लोकगीत विधा के भविष्य की बात यदि आप करते हैं तो निश्चित तौर पर इसमें बहुत कुछ सोचने और बहुत कुछ करने की आवश्यकता है सबसे पहले तो हमें नवगीत के शिल्प और नवगीत के कथ्य को लेकर के बहुत सारे मानक और उपकरण निर्मित करने होंगे और यहीं से आलोचना के रास्ते निकलते हैं मैंने पहले भी आपके प्रश्न के उत्तर में कहा है कि आलोचना 3 या 4 तरह से की जा सकती है व्यक्तित्व का लोचना रचना परक आलोचना व्यक्ति फरक आलोचना में व्यक्ति का समग्र चिंतन समग्र सर्जन आ सकता है या व्यक्ति के नव गीतकार के रूप में उसका मूल्यांकन आ सकता है रचना का द्वारा उसके किसी एक पुस्तक को केंद्र में रखकर के उस पर की गई टिप्पणी या समीक्षा भी आलोचना के रूप में रखी जा सकती है जब हम श्री जैन धर्म की आलोचना की बात करते हैं तू रचनाकार के समस्त सृजन को भी लेकर चल सकते हैं अथवा उसके द्वारा सृजित किसी एक विधा की किसी एक पुस्तक को लेकर चलते हैं मूलत हम देखें तो किसी व्यक्ति के एक गीत को लेकर के भी संवाद और पर चर्चा की जा सकती है आज परिचर्चा का वह दौर वह संवाद की स्थितियां हमारे मध्य से लुप्त प्राय है उसको पुनर्जीवित करना होगा कार्य शालाओं के माध्यम से परिचर्चा ओं के माध्यम से हम इस विधा को निरंतर समृद्ध कर सकते हैं और ऐसा किया जाना चाहिए!

प्रश्न 22    अनेक महाविद्यालयों/विश्वविद्यालयों में नवगीतों पर हुए शोध/हो रहे शोध कार्य, को आप नवगीत के विकास में कितना अहम मानते है? 

उत्तर_संजय जी आपका प्रश्न बड़ा उचित है परंतु यह प्रश्न जितना सहज और सरल दिखाई पड़ रहा है इसका उत्तर उतना ही दुरूह एवं कठिन है मित्र वास्तव में आज के समय में उच्च शिक्षा के अंतर्गत शोध निर्देशकों द्वारा शोधार्थियों से कराया जा रहा अधिकतम काम कॉपी पेस्ट के रूप में सामने आ रहा है दूसरी बात इसमें चयन में एक निश्चित आ देखी जा रही है लोक परिचय के माध्यम से एक दूसरे को प्रायोजित करके अपना कार्य कर रहे हैं यहां पर मौलिकता और प्रामाणिकता का भाव दिख रहा है जो बहुत ही कठिन है और अब प्रामाणिक है हमें यहां पर किसी भी तरह की कोटि का निर्धारण न करके अपने मन से चीजों का संग्रहण करना बहुत ही अलार्म कर प्रतीत हो रहा है उच्च शिक्षा के अंतर्गत ऐसे शोध केवल शोध उपाधि प्राप्त करने तक सीमित होते हैं मैं नहीं देख पा रहा हूं कि इनमें से कितने प्रकाशित हो रहे हैं कितनों पर चर्चा हो रही है कितनों का मूल्यांकन किया जा रहा है कुछ इन्हीं बातों को लेकर के विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने शोधगंगा नाम से इन शोध प्रारूप शोध ग्रंथों को रखने का एक व्यवस्था किया और जो मैंने कॉपी पेस्ट कहा है उसकी जांच के लिए तमाम तरह के उपकरण विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा बनाए गए हैं जिससे चेक किया जाता है कि कितनी चीजें रिपीट है या कहीं और से कॉपी की हुई है यह हमारे बात को प्रमाणित करने का भारत के उच्च शिक्षा के सर्वोच्च विधाई संस्थान द्वारा अपनाए जा रहे मां को और क्रियाकलापों के द्वारा भी सुनिश्चित देखा जा सकता है इससे बचने की जरूरत है जब तक हम इससे नहीं बचेंगे कठोर मानदंड नहीं आएंगे प्रामाणिक मानदंड नहीं आएंगे तब तक उच्च शिक्षा में हो रहे शोध ऐसे ही अपनी स्थिति को आते रहेंगे!

प्रश्न 23    नवगीतों पर कार्य कर रहे शोधार्थियों को आप क्या संदेश देना चाहेंगे ?

उत्तर_संजय यादव जी सबसे पहले मैं आपका धन्यवाद करना चाहता हूं कि आपने मुझे एक अवसर दिया जिसमें मैं अपने अतीत के साथ-साथ रचना धर्मिता और युगबोध पर स्वयं के विचार व्यक्त कर सका शिल्प और कथ्य को लेकर के लोकगीत कारों की परंपरा परिपाटी को लेकर के मूल्यांकन को लेकर के आपके द्वारा दिए गए प्रश्नों पर अपनी सामर्थ्य और अपने अनुभव के अनुसार मैंने उत्तर देने का प्रयत्न किया है और इसके लिए आपको धन्यवाद भी देता हूं आपने शोधार्थियों के लिए कुछ करने की बात कही है तो मैं इस प्रश्न के पूर्व प्रश्न में कुछ समस्याएं कुछ औरतों का मने जिक्र किया है शोधार्थियों को इनसे बचने की जरूरत है अपने अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए अपने कार्य को पूरी तरह मौलिक रखना होगा और शोध के उपरांत भी उन्हें इस तरह के कार्यों से जुड़े रहने का संकल्प व्यक्त करना होगा जिससे कि भारतीय वांग्मय में हिंदी साहित्य इस की विधाएं गद्य और पद्य और इन दोनों विधाओं के अनेकानेक रूपा कारों में स्वतंत्र रचना धर्मिता को जन सरोकारों को प्रतिबद्धता पूर्वक आगे बढ़ने में सहायता मिल सके एक बार पुनः आपका धन्यवाद!

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