शनिवार, 19 फ़रवरी 2022

आलेख "कहानी की यात्रा"--डा जयशंकर शुक्ल

आलेख "कहानी की यात्रा"

--डा जयशंकर शुक्ल

वांगमय में कथा साहित्य का अपना विशेष स्थान रहा है। कथाएँ

अपना अस्तित्व मानव मात्र के जीवन के विविध आयामों को पारिभाषित

करते हुए सदैव से बनाए रखती आ रही हैं। वैदिक साहित्य में कुछ

संशोधनों को आत्मसात करने के उपरान्त ऋचाओं के प्रादुर्भाव,विवेचन,

व्याख्या एवं विस्तार में कथाओं की भूमिक से इंकार नहीं किया जा सकता।ब्राह्मण, आरण्यक एवं उपनिषद इनके ज्वलंत व प्रामाणिक प्रतिमान हैं।

               क्षेपक-कथाओं ने कथा साहित्य को वास्तविकता, कल्पना, विचार एवं गल्प से अलग एक नवीन आधार प्रदान दिया है। वैदिक, उत्तर वैदिक एवं उसके बाद के काल में भी कथाएँ अपने अस्तित्व को लेकर संघर्ष रत रही हैं।महाकाव्य काल में रामायण एवं महाभारत का मूल ही कथाओं को आधरमानकर चलता है। यहाँ तक आते-आते कथाओं के लौकिक रूप का परिचयभी हमे प्राप्त होने लगता है। लौकिक कहानियाँ एक सामयिक समाधान भी मानी जा सकती हैं, जो कल्पना का आश्रय लेकर प्रतीकों के माध्यम से विकास करती हैं। पुराण इसके विशिष्ट उदाहरण हैं।

           पालि एंव प्राकृत भाषाओं में बुद्ध के उपदेशों का संग्रह किया गया।

इन उपदेशों के साथ-साथ बहुत सारी कथाएँ भी आकार प्राप्त करती है।

आगे चलकर इन्हें जातक कथाओं के रूप में देखा जा सकता है। कल्पना

और विचार की तदनुरूपता तथा लौकिक व पारलौकिक पात्रों के माध्यम से लोक संग्रह के लिए नायक के महिमामण्डन का यह क्रम लालित्य से भरपूर है। लौकिक कथाओं का विशद व व्यापक स्वरूप हमें पंचतन्त्र की कहानियों में देखने को मिलता हैं। पंचतंत्र की कहानियाँ हमें जीवन जीने की कला सिखाती है। अनुभव शब्दों के पाँव किस प्रकार क्षिप्र गति से अपनी यात्रा आगे बढ़ाता है, सहज दृष्टव्य है। लोक कथाएँ एवं बोध कथाएँ अपने आपको यथार्थ के धरातल पर यहीं चरितार्थ करती हैं।

प्राचीन काल के साहित्यिक परिदृष्य में कथा साहित्य समस्त विधाओं

की सहचरी रही है, कथानाक प्राण एवं संवाद उसकी जिजीविषा के द्योतक माने जाते रहे हैं। 

             नाटक, काव्य, तथा इनकी अन्य सहयोगी विधाओं के मूल

में कथा का होना अत्यावश्यक माना जाता रहा है। कवियों ने अपने काव्य

के नायक को उसके परिवेश एवं कथानक लेकर कथोपकथन के माध्यम से काव्य-सरिता का अवगाहन किया करते रहे। इस प्रकार कहानियों का मूल वांग्यम के मूल से आबद्ध है, जो अपनी यात्रा वांग्मय की यात्रा के साथ करती हैं। इसके विभिन्न पड़ावों ने इसके स्वरूप का समय समय पर सुविधा व आवश्यकतानुरूप निर्धारण किया है। वार्तालाप में पात्रों की भौगोलिक स्थिति के साथ-साथ उनके विद्वता का भी ध्यान रखा जाता रहा है।

                 गद्य एवं पद्य इन दो तुलाओं पर साहित्य की विधाएँ तुलती रही हैं। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के प्रयास व नेतृत्व में सन् 1900 से गद्य विधा का क्रमशः प्रादुर्भाव एवं विकसित होने की प्रक्रिया दिखाई पड़ने लगती है। “रानी केतकी की कहानी" के द्वारा इंशा अल्ला खां ने आधुनिक कहानी के युग को अपनी प्रथम आवाज दी। परन्तु कुछ विद्धान “इन्दुमती' को हिन्दी की पहली मौलिक कहानी मानते हैं, जिसे किशोरी लाल गोस्वामी जी ने

लिखा था। 

               सन् 1900 में इन्दुमती के लेखन से 2 वर्ष बाद हिन्दी गद्य संसार

को उसकी दूसरी मौलिक कहानी “ग्यारह वर्ष का समय” मिलती है, जिस के लेखक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल थे। इसी वर्ष पण्डित और पण्डिततानी नामक कहानी प्राप्त होती है, जो गिरिजा दत्त वाजपेयी जी द्वारा लिखी गयी।

                   इस तरह से हिन्दी गद्य साहित्य में आधुनिक मौलिक कहानियों के क्रम निर्धारण में ये तीन कहानियाँ तीन महत्व पूर्ण कड़ियों के रूप में मानी जा सकती हैं। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के कुशल संपादन में प्रकाशित होने वाली पत्रिका “सरस्वती" उस समय के समाज में अपना विशेष स्थान

रखती थी। उनके आह्वाहन पर मैथिलीशरण गुप्त ने 1910 में “निन्यानवें का फेर” नामक कहानी लिखी तो अगले दो वर्ष बाद 1912 में हमारे सामने प्रसाद अपनी चार कहानियों के माध्यम से आते हैं। इनकी ये चारों कहानियाँ उनकी प्रथम कहानी संग्रह “छाया” में बाद में प्रकाशित हुई जिनमें ग्रामा का विशेष चर्चित रूप देखने में आता है।

             इस प्रकार हम देखते हैं कि आधुनिक हिन्दी कहानी का प्रादुर्भाव काल बीसवीं शताब्दी का प्रथम दशक रहा है तथा अधिकतर विद्वान 1903 में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा लिखित कहानी “ग्यारह वर्ष का समय” को कहानी-युग को शुरूवात देने वाली कहानी मानते हैं। यह क्रम बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में ओर पुष्ट होता दिखाई देता है जब जयशंकर प्रसाद एवं प्रेमचन्द अपनी अपनी कहानियों के माध्यम से हमारे सामने आते हैं। ठीक उसी काल खण्ड में हमारे सामने चन्द्र धर शर्मा “गुलेरी", वृन्दावन लाल वर्मा, राधिका रमण सिंह, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, विश्वम्भरनाथ "जिज्जा" पदुमलाल पुन्ना लाल बख्शी, बाल कृष्ण शर्मा नवीन तथा सुदर्शन जैसे कहानीकार अपनी शुरूवाती कहानियों के साथ सामने आते हैं।उस विशेष कालखण्ड में कहानी के परिदृश्य में दो ध्रुव हमारे सामने आते हैं, जिसमें तत्कालीन समस्त कहानीकारों को सम्मिलित करके उनका आकलन किया जाता रहा है। ये दो ध्रुव जयशंकर प्रसाद एवं प्रेमचन्द के नाम से जाने जाते है। इन दो ध्रुवों से अलग भाव भूमि, कथ्य एवं बुनावट के साथ आने वाले कहानीकारों में पांडेय बेचन शर्मा, उग्र, यशपाल एवं जैनेन्द्र का नाम आता है। ये कहानीकार हिन्दी कहानी में एक नवीन आन्दोलन का सूत्रपात करते हैं। इन कथाकारों ने अपनी कहानियों में एक नयी चेतना का सूत्रपात किया। जहाँ यशपाल ने प्रगतिवादी कहानियाँ

लिखी, वहीं पांडेय बेचन शर्मा उग्र की कहानियों में प्रकृतिवाद मुखर हो

उठता है। 

             जैनेन्द्र ने अपनी कहानियों में मनोवैज्ञानिक यथार्थ का चित्रण

किया। आगे चलकर जैनेन्द्र की बीजारोपित परम्परा को अज्ञेय, इलाचन्द जोशी तथा भगवती प्रसाद वाजपेयी ने आगे बढ़ाया। प्रकृतिवाद में उग्र अकेले रह गए, आचार्य चतुर सेन शास्त्री ज्यादा दूर तक उनका साथ नहीं दे पाए।

इसी प्रकार प्रगतिवादी कहानी धारा में विचार का निकष मार्क्सवाद रहा

जहाँ पर यशपाल के साथ महापण्डित राहुल सांकृत्यायन वन रहे। आज के जन कहानी आन्दोलन का सूत्र यही प्रगतिवाद ही माना जा सकता है।

स्वतन्त्रता के बाद कथा साहित्य में कई तरह के आन्दोलन का सूत्रपात होता है। यहाँ से नई कहानी अकहानी, समान्तर कहानी, सहज कहानी, साठोत्तर कहानी, सचेतन कहानी, आंचलिक कहानी, ग्राम कथा जैसे

चले आन्दोलनों ने कहानी साहित्य को नई दिशा दी तथा अपने बहाव में

कई कहानीकारों को स्थापित किया।        इसी आन्दोलन ने ही हमें कथा साहित्य की त्रयी कमलेश्वर, मोहन राकेश तथा राजेन्द्र यादव दिए जो कि कथा साहित्य को नवीनतम ऊचाइयों पर ले जाने वाले बने। इसी आन्दोलन ने ही हमें रेणु, मार्कंडेय, शिवप्रसाद सिंह, महीप सिंह, धमेन्द्र गुप्त, जगदीश चतुर्वेदी, गंगा प्रसाद विमल, निर्मल वर्मा, वैद आदि नाम दिए, जिन्होंने कथासाहित्य की मन्दकिनी को उसकी अजस्त प्रवाह में सहायक बने रहे। यह काल 1980 तक अनवरत रूप से चलता रहा।

            बीसवीं शताब्दी का नवां व दसवाँ दशक आन्दोलन हीनता का दशक माना जाता है। यही हाल इक्कीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक के लिए भी कहा जा सकता है। समकालीन हिन्दी कहानी में जो विचार प्रमुख था,आधुनिक काल में दम तोड़ देता है और विचार धारा के अन्त की घोषणा वस्तुतः आन्दोलनों के समापन का कारण बना। इस समय तक व्यक्तिगत अनुभवों को व सोच को कहानियों में व्यक्त किया जाने लगा।

             इस पीढ़ी के कहानीकारों में पूर्व की विरासत को समेटे परम्परा के

कहानीकारों से अलग कुछ करने की सोच को प्रमुखता से देखा जा सकता

है। कुछ कहानीकार पूर्व तथा उत्तर की परमपरा के सेतु भी बने, जिनमें

महीप सिंह, सेरा यात्री, दूधनाथ सिंह, गिरिराज किशोर, धमेन्द्र गुप्त, हिमांशु

जोशी, कामता नाथ, जगदीशचतुर्वेदी, मधुकर सिंह तथ गंगा प्रसाद विमल

सम्मिलित हैं। समांतर कहानी आन्दोलन ने आगे जन कहानी को आकार

प्रदान किया। उस विचारधारा के प्रति निष्ठा रखने वाले रचनाकारों ने

पाठकों आलोचकों का ध्यान आकृष्ट किया। रमेश उपाध्याय, जितेन्द्र

भाटिया, दामोदर सरन, सुदीप, हेतु भारद्वाज, उदय प्रकाश तथा असगर

वजाहत के साथ-साथ आन्दोलन के अन्त को पुष्ट करने के क्रम में हृदयेश,

रमेश चन्द्रसाह, गोबिन्द मिश्र, विजय मोहन सिंह तथा राकेश वत्स अपनी

सक्रियता को स्वर देते रहे हैं।

स्थापना प्रक्रिया को अपनी लेखनी से स्वर देने के उपक्रम के फलस्वरूप

नई पीढी के कहानीकारों ने स्वयं को स्थापित किया। जिसमे, संजीव,

बलराम, स्वयं प्रकाश मिथिलेश्वर, अब्दुल विस्मिल्लाह, विवेकानन्द, मंजूर एहतेशाम, प्रियंवद, अखिलेश, संजय, पंकज विष्ट, सुरेन्द्र तिवारी, बटरोही, द्रोणवीर कोहली, वीरेन्द्र सक्सेना जैसे नाम प्रमुख हैं। इन्ही के साथ अपने प्रथम संग्रह लेकर आने वाले रचनाकार भी रहे हैं, जो कि आज किसी विशेष आदोलन या विचारधारा से जुड़े हुए नहीं हैं। ये अपनी कहानी में विचार लेकर आते हैं परन्तु व्यक्ति सापेक्षता या समूह सापेक्षता का सर्वथा अभाव दिखाई पड़ता है। इन नव प्रवेशी प्रथम संग्रह को लाने वाले कहानीकारों का

उद्भव विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के द्वारा भी हो रहा है।

               

                डॉ. जयशंकर शुक्ल

          भवन सं. 49 पथ सं. 06

         बैंक कालोनी,दिल्ली-110093

           मो. 9968235647

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