शनिवार, 19 फ़रवरी 2022
बुद्धचर्या और मान्यताएं डॉ॰ जय शंकर शुक्ल
आलेख
बुद्धचर्या और मान्यताएं
डॉ॰ जय शंकर शुक्ल
टी. जी. टी. (हिन्दी),
सदस्य, असेसमेंट यूनिट,
परीक्षा शाखा, शिक्षा निदेशालय
पुराना सचिवालय, सिविल लाइन्स
दिल्ली -110054
jayashankarshukla@gmail.com
शोध-पत्र सारांशिका - बुद्धचर्या मूलत: बौद्ध धर्म का आधार है। बुद्धचर्या के अंतर्गत इस धर्म में दीक्षित लोगों के द्वारा अपनाए जाने वाले विचार ,व्यवहार और कार्य आते हैं ,जो कहीं ना कहीं मानव के मान्यताओं से स्वयं को जोड़ते हैं। जब मानव अपनी मान्यताओं के अनुसार अपने जीवन में आमूलचूल परिवर्तन की ओर अग्रसर होता है तो उसके कार्य, व्यवहार और उसके द्वारा अपनाए जाने वाले रीत रिवाज, तौर-तरीके, रहन-सहन में निश्चित तौर पर कुछ न कुछ परिवर्तन होता है। इन परिवर्तनों को अपनाते हुए संस्कृति की मूल अवधारणाओं के आधार पर बुधचर्या के द्वारा कुछ नियम और कुछ कायदे निर्धारित किए गए, जिनके सहयोग से व्यक्ति अपने जीवन को सतत् आगे को प्रवाह मान रखता है।मानव मात्र अपने जीवन में दुख की निवृत्ति और सुख का संचार चाहता है। सुख के संचार के लिए उसे तरह-तरह के तरीके अपनाने की ओर उसका मन ले जाता है। दुख से परिहार होना और सुख को पाना हर व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य है। बुद्धचर्या इसी की ओर हमें आगे बढ़ने को प्रेरित करती है। मानव केवल मानव के प्रति ही नहीं बल्कि सृष्टि में प्राप्त हर जीवो के प्रति हमारे द्वारा अपनाए जाने वाले व्यवहार इसका निर्धारण करते हैं। यह मानव अपने व्यवहार में निरंतर सकारात्मक होता हुआ सत्य के अनुसंधान की ओर बढ़ता है, तो यह कहा जाता है कि वह कहीं ना कहीं अपने श्रेष्ठ को पाने की ओर आगे बढ़ रहा है। बुद्धचर्या इसमें हर व्यक्ति की सहायता करता है। इस शोध आलेख में कुछ इन्हीं बिंदुओं पर चर्चा की गई है। व्यक्ति के द्वारा अपने श्रेष्ठ को पाने के लिए अपनाए जाने वाले क्रियाविधि और व्यवहार को बुद्धचर्या के द्वारा दिशा दी गई, प्रेरणा दी गई और अंकित किया गया। इस तरह से यह मानव को श्रेष्ठ आचरण की ओर प्रेरित करता है।
प्रमुख शब्द – बौद्ध-परंपरा, उचित-व्यवहार ,समाधान ,जीवन जीने के तरीके, रीति-रिवाज, रहन-सहन ,खान-पान, आचार-विचार, उपलब्धि ,संकल्प-प्रक्रिया, सदाचरण, सद्भाव, संग्रहण, करुणा, उदारता ,प्रेम।
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प्राचीन काल से ही जीवन जीने के लिए मानव ने अपने नए नए विधि-विधान और तौर-तरीके बनाए हैं। जिनमें मर्यादाओं का, विश्वासों का मिश्रण करके उन्होंने जीवन की बेहतरी हेतु नए-नए प्रयत्न किए। इन नए प्रयत्नों में निरंतर सुधार होता रहा है, नए आयाम जुड़ते रहे हैं। अपनी सुविधा और लक्ष्य प्राप्ति के उच्चतम मानदंडों के आधार पर मानव द्वारा एक नए परिवेश के निर्माण हेतु आधार भूमि तैयार किया गया है। यह हमारी परंपराओं, हमारे समाज, हमारी मान्यताओं को पूरी तरह से प्रभावित करते हैं।
जब हम यह देखते हैं कि मनुष्य अपने जीवन में अपने लिए हासिल किए जाने वाले लक्ष्य की प्राप्ति हेतु पूरी तरह सतर्क होकर कार्य कर रहा है तो उसमें हमें उसके सहयोग के लिए उसके पूर्ववर्ती लोगों द्वारा आयोजित किए गए ज्ञान को उस में जोड़ना और उसके बाद उसे आगे बढ़ाना और आने वाली पीढ़ी को वह ज्ञान प्रदान करना यह एक कड़ी बनती है। और इस कड़ी में धर्म उसका महत्वपूर्ण अंग होता है। धर्म हमेशा जोड़ता है,यह कभी तोड़ता नहीं। ज्ञान हो या व्यवहार हो इन प्रक्रियाओं में धर्म आपस में जोड़ने का काम करता है। मिलाने का काम करता है। जब हम मिलने की ओर आगे बढ़ते हैं तो नए-नए रास्ते बनते हैं। उन रास्तों पर चलकर लक्ष्य प्राप्ति पूरी तरह संभव हो पाता है।
लक्ष्य प्राप्ति के लिए मनुष्य ने शुरू से ही अपने अपने धर्म, पंथ, मजहब, संप्रदाय कुछ भी नाम दे लें, से स्वयं को जोड़ा है। और उसका यह जुड़ाव उसके द्वारा किए जा रहे कार्यों को पूरी तरह से आधार देता है। जब हम यह देखते हैं कि एक निश्चित भू-भाग में जीवन यापन करने वाले लोगों के लिए धर्म का स्वरूप क्या है? उसकी औपचारिकताएं क्या है ?उसका अस्तित्व किस तरह संभव बनता है? और किस तरह से परिवार समाज और समूह में अपने व्यवहार का संचरण करते हैं ? तो यह हमारे सामने एक विशिष्ट परिस्थिति को रखता है। यह विशिष्ट परिस्थिति हमें हमारे पूर्व में प्रचलित परिस्थितियों से अवगत कराती हैं। उनमें सुधार की गुंजाइश है तो उसको पूरा करती हैं।और आगे बढ़ कर के नए रास्ते का सृजन भी करती है। हमारे देश में हमारी परंपराएं समाज में काफी गहरे समाई हुई है। यह समाज को दिशा देती है। समाज में रहने वाले लोगों को नए नए आयाम सोचने को, रचने को, उस पर चलने को प्रस्तुत और प्रेरित करती है। इनमें धर्म का महत्वपूर्ण हिस्सा होता है।
उन आचारों का, व्यवहारों का जो मानव को आगे बढ़ने में सहयोग प्रदान करें भाईचारा, सौहार्द्र, दया, करुणा आदि गुणों का विकास करें और इस तरह से एक श्रेष्ठ नागरिक बनने की ओर हर व्यक्ति को प्रेरित और मार्गदर्शन करें। यह आचार ही किसी भी धर्म, किसी भी समाज , किसी भी पंथ, किसी भी मजहब का प्रमुख एजेंडा होता है। जब हम देखते हैं कि मनुष्य ने अपने लिए नये आचारों का निर्माण किया है, तो इसका अभिप्राय होता है कि पूर्ववर्ती आचारों में सुधार की गुंजाइश थी जिसके लिए कमर कस के लोग खड़े हुए और नए आचारों का निर्माण करके एक नयापन लिए हुए, परंपराओं में सुधार करते हुए, नवीन आभा से मंडित मार्ग जो आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रशिक्षित करें का निरूपण किया है।
बौद्ध परंपरा अपने आप में बहुत सारी विशेषताओं को समाए हुए हैं। जब भी कोई नया पंथ आकार लेता है तो उस पंथ की अपनी मान्यताएं उसे नए आयाम प्रदान करती हैं। मान्यताएं हमेशा अपने साथ परंपराओं को जोड़ कर रखती हैं। जब इन दोनों का समन्वय होता है तो समाज में सकारात्मक प्रवृत्तियों की अभिवृद्धि होती है। जो उस समाज को निरंतर आगे की ओर ले जाने के साथ-साथ उसमें व्यक्त दुर्गुणों को दूर करके सद्गुणों का प्रसार प्रचार करने के साथ वहां के निवासियों को तैयार करती है हम जानते हैं कि मनुष्य मात्र का यह धर्म है कि वह अपने जीवन में सच्चाई का पक्षधर बने, अच्छे गुणों के विकास हेतु अपना योगदान दें, और दुर्गुणों से दूर हटे। जितना हो सके उसका विरोध करें बुद्धचर्या सामान्यतः इसी को प्रमाणित कर हम सबके लिए प्रेरणा देता है।
बुद्धचर्या को भी इन संदर्भों में इसी प्रकार से देखा जा सकता है, जब इसे इसकी मान्यताओं ने अपने पूर्ववर्ती प्रचलित पंथों से एक अलग मार्ग प्रदान किया। "बुद्धचर्या जीवन जीने की एक प्रक्रिया है, जिसके द्वारा हम अपने जीवन में आ रहे गतिरोध को समाधान की ओर ले जाने का प्रयत्न करते हैं।”1 इस तरह से हम देखते हैं कि जीवन जीने के लिए जो चीजें हमें महत्वपूर्ण प्रतीत होती हैं वह हमें नियंत्रित, निर्देशित एवं हमारे पथ को प्रदर्शित करती हैं और इसके लिए हम कुछ विशेष निर्देशों की आवश्यकता को महसूस करते हैं, जिसकी पूर्ति हमारे लिए किसी महापुरुष के वचनों द्वारा, शास्त्र के लेखन द्वारा एवं जन सामान्य में प्रचलित नियमों मान्यताओं के द्वारा हमारे उद्देश्यों की पूर्ति करती है। यह आवश्यक है कि यह चीजें हमारे लिए सकारात्मक हो हमें आगे बढ़ने में हमारी सहायता करें और निरंतर हमारे जीवन में नए-नए आयामों को सृजित कर हमारे यश, हमारे आचार को समृद्ध करें।
हर व्यक्ति अपने साथ-साथ एक परंपरा को लेकर चलता है। उस परंपरा में उसके द्वारा आने वाली बहुत सारी स्थितियां सफलताओं, असफलताओं के लिए जिम्मेदार कारकों की पहचान कराती है। "जब हम मानवोचित व्यवहार और कार्य योजना को लेकर के सजग होता हैं तो हमारे द्वारा पूछे गए प्रश्न और कार्य रूप में परिणित किए गए विचारों के माध्यम से हम एक आकार निर्मित करते हैं।और उस आकार में आने वाले समय के उपादान हमारे अपने मान्यताओं के साथ जुड़े हुए दिखाई पड़ते हैं। यह मान्यताएं हमें अपने आचरणों से जोड़ती है।"2 जड़ों से जोड़ने के साथ-साथ उसके आने वाले परिस्थितियों में मिलने वाले सकारात्मक, नकारात्मक उद्देश्य की ओर भी हमें जागरूक करती है यह जागरूकता हमारी मान्यताओं से जुड़ी होती है।
जहां अपनी मान्यताओं के माध्यम से कुछ नया करने कुछ नया पाने और समाज से हासिल करने की ओर प्रवृत्त होते हैं। ऐसी स्थिति में यह देखा जाता है हमारे जीवन जीने के तरीके, हमारे उठने बैठने के तरीके और हमारे व्यवहार के तरीके किस तरह के हैं? क्या वह सकारात्मक हैं? उनके द्वारा हम अपने समाज में अपने आप को स्थापित करने में आगे बढ़ने को केंद्रित हैं।मानव मात्र को अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ने के लिए अनेक तरह की चुनौतियां होती हैं। उन चुनौतियों से जूझ कर व्यक्ति अपने लिए रास्ता बनाता है।
मानव द्वारा बनाया गया रास्ता और उसके द्वारा अपनाई गई प्रक्रिया अन्य लोगों के लिए एक मिशाल की तरह सामने आती है, जिसके माध्यम से लोग सदाचरण और सद्वृत्ति की तरफ बढ़ते हैं। कहीं ना कहीं चीजें विकसित होती रहती है और मानव मात्र के विकास के लिए पूरी तरह से जिम्मेदार भी होती है। जब हम यह देखते हैं कि मनुष्य स्वविकास और समाज में रचनात्मक प्रगति की ओर उन्मुख है ,तो निश्चित तौर पर अपना कुछ नया करने और अपने साथ-साथ अपने कुल परंपरा एवं परिवार की विकसित होनी होती हुई आकृतियों की ओर ध्यान देता है। यहां बुद्धचर्या उसके लिए एक सफल माध्यम प्रस्तुत करती है।
यदि मान्यताएं है हमारे साथ है तो हम उद्देश्यों को पाने में समर्थ है। "हमारे द्वारा अपनाए जाने वाले कार्य और विचार यदि सकारात्मक हैं तो उनकी प्रक्रिया और उपलब्धि और बड़ी दिखाई देती है। उपलब्धियां कहीं ना कहीं हमें हमारे जड़ों से और हमारे मूल से हमें जोड़ कर के आने वाले परिवर्तन के द्वारा जीवन में बदलाव को आकार प्रदान करती है। इस आकार के द्वारा सहज ही समाज में हमारी पहचान निर्मित होती है, जिस पहचान से हम यह कह सकते हैं कि हमारे द्वारा अपनाए जाने वाले सत्य असत्य भाव-भावुक, श्वेत-श्याम विचार परिपाटी हमें कहां किस रूप में स्थापित रखती है।"3
यही हमारी मान्यताओं का मूल उद्देश्य है। हमारी मान्यता ही हमें हमारे अपनों के साथ जोड़ती भी है। और चूंकि यह समय सापेक्ष है इसलिए गैरों से अलग भी करती है। इस अपनों और गैरों के भेद को जो मिटा सके वह बुद्धचर्या है। वहां अपने संकल्प के द्वारा हम अपने और गैरों के बीच भेदभाव को मिटाकर नई परिस्थितियों में एक भूभाग में रहने वाले लोगों के मध्य सदाचार और सदाशयता का निर्माण करके सहज जीवन यापन कर सकें तो यह हमारी ताकत होती है,जिसके द्वारा हम अपने आप को निरंतर आगे बढ़ाने की ओर अग्रसर रह सकते हैं। "सत्य का अनुसंधान हर कालखंड में मानव का एक विशेष व्यवहार प्रक्रम रहा है और जिसकी प्राप्ति हर मनुष्य के जीवन का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य माना जा सकता है। बौद्धचर्या के अनुसार जीवन को संचालित करके अपनी मान्यताओं से आवद्ध करके हम उस परम सत्य की ऊर्जा प्राप्ति की ओर सादर सहज अग्रसर हो सकते हैं।"4 यहां शर्त यह है कि हम अपने मन की भाव में व्याप्त संस्कारों और वासनाओं को दूर करके सदाचरण और अच्छे विचार को अपनाते हुए जब आगे को पढ़ते हैं तो हमें हमारे सत्य की प्राप्ति से कोई भी ताकत नहीं रोक पाती बुद्धचर्या इसी का समर्थन करती है।
बौद्ध धर्म के आचारों को जब हम किसी एक शीर्षक के अंतर्गत आबद्ध करके रखना चाहे तो उसे बुद्धचर्या का नाम दिया जा सकता है। "बुद्धचर्या के द्वारा हम जीवन की घटनाओं के घटने के क्रम, व्यवहार के तौर-तरीके, आपसी सद्भाव और सदाचरण में व्याप्त हमारे भाव भंगिमाओं को संग्रहित कर सकते हैं।जब हम मानव और मानव के बीच में ही नहीं वरन मानव और अन्य जीवों के बीच में दया, करुणा, उदारता, प्रेम, सद्भाव, सदाचरण लेकर चलते हैं तो ऐसी स्थिति में हम देखते हैं कि वह उसके अंतर्गत आने वाली सारी की सारी स्थितियां, सारी बातें सारे व्यवहार के तौर-तरीके बुद्धचर्या के अंतर्गत आते हैं।"5 बुद्धचर्या में बुद्ध के समकालीन नियम कायदे ही सम्मिलित हुए ऐसा नहीं है बदलते समय में समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप अनेक तरह के नियमों, आचारों का निर्माण कर जनसामान्य के लिए उसे सुनिश्चित करते हुए उसे रखा गया।
बुद्धचर्या वास्तव में सदा आचरणों का एक संकलित स्वरूप है, जिसके अंतर्गत बौद्ध साहित्य के साथ-साथ बौद्ध भिक्षुओं द्वारा दिए गए वक्तव्य, प्रवचन और उनके द्वारा निभाए गए कार्य भी आते हैं। आचरण मानव के लिए बेहद जरूरी है, जो उसे अपने विकास के साथ-साथ समाज विकास में भी उसकी भूमिका को रेखांकित करता है। हम जानते हैं कि बुद्धचर्या बौद्ध धर्म का वह मूल अंग है जो अन्य धर्मों से इस धर्म के लोगों को पृथक करता है। कोई भी धर्म अपने प्रारंभ से ही अपने लिए कई तरह के विचारों और व्यवहारों का निर्माण करना प्रमुख कर्तव्य मानता है। इस प्रकार इस धर्म को अपनाने वाले लोगों की पहचान समाज में एक अलग तरह से बनती है। धर्म के संस्कृति केंद्र और उसके पालकों द्वारा अपने अपने कार्यों हेतु पालन करने वाले नियम एवं कायदे उन्हें समाज में एक विशेष भूमिका हेतु तैयार करता है।
हम देखते हैं कि एक व्यक्ति अपने जीवन में जिन कार्यों का निर्वाह कर के सफल जीवन जीने की ओर अग्रसर हो रहा है, वह जीवन के शक्तियों को पाते हुए जीवन से दुखों का लोप करने में सफल हो पा रहा है, हम मानते हैं कि वह सत्य हमें हमारे जीवन में आगे बढ़ने के लिए सहयोगी सिद्ध होगा। यह सहयोग जब हम अपना पाते हैं, तो कहा जाता है कि हमने बुद्धचर्या को अपने जीवन में उतार लिया है। जब हम अपने प्रत्येक कार्यों में उसकी पावनता का ध्यान रखते हैं तो निश्चित तौर पर वह हमें आगे बढ़ने में हमारी मदद करता है छठी शताब्दी ईसा पूर्व बौद्ध धर्म के उद्भव के समय ही इस बात के लिए समझ लिया गया था कि धर्म के आचारों का निर्माण किए बगैर इसको जनसामान्य में प्रस्तुत कर के लोकप्रिय बनाना अत्यंत कठिन है जिसकी पूर्ति के लिए उन्होंने इसके नियम कायदे और तौर-तरीकों का विकास किया।
जब हम इस को अपनाने में असफल होते हैं तो हमें यह ध्यान रखना होता है कि असफलता किस तरह से हमारे प्रगति को अवरुद्ध कर रही है। प्रगति के अवरोधन को दूर करते हुए जब हम उसको अपने जीवन में अपना आते हैं तो निश्चित तौर पर हमारे जीवन का सर्वोत्तम विकास होता है। "बौद्ध धर्म के उद्भव के पूर्व की स्थितियों में मानव के कार्य करने के तरीके और मानव के व्यवहार करने के तरीके इसके लिए पूरी तरह जिम्मेदार है। जब मनुष्य अपने दैनिक व्यवहार में जो कमियां पाता है वह कमियां कभी न कभी उसके मान्यताओं से उसको जोड़ करके या उससे अलग करके देखी जाती हैं। और उन मान्यताओं का सृजन , उन मान्यताओं का पुनर्निर्माण, उन मान्यताओं का पुनर्चक्रण जिस रूप में होता है, उसे हम बुद्धचर्या में साफ-साफ देख सकते हैं, वह बुद्धचर्या के अंतर्गत आती है। इन चीजों को जब हम अपने जीवन में उतार कर अपने जानने वालों को उसकी तरफ मोड़ते हैं, तो यह कहा जाता है कि हम सदाचरण की ओर आगे बढ़ रहे हैं। और इस तरह मान्यताओं से जुड़ी हुई यह बुद्धचर्या वास्तव में जन सामान्य से जोड़ने में सफल सिद्ध होती है।
"बुद्धचर्या अपने सतत् प्रवाह में, इस सृष्टि में, सृष्टि के महत्वपूर्ण अंगों, उपांगों को समृद्ध करने उनका संरक्षण करने और उन्हें अगली पीढ़ी को सौंपने की ओर कार्य करती है।"7 जब हम देखते हैं कि मानव अपने कार्य और व्यवहार में कुछ निर्धारित तौर-तरीकों और मान्यताओं को अपनाता है। और उसके अनुसार वह अपने जीवन में सफलता के मूल बिंदुओं को छूने का प्रयत्न करता है , तो वह उसकी मान्यताओं का साकार प्रतिफल होता है। और यह प्रतिफल जिस तरह से आचरण बद्ध किया जाता है वह हमें बुद्धचर्या में देखने को मिलता है।
बौद्ध धर्म के उद्भव और विकास में जिन मूल प्रवृत्तियों और गुणों के साथ तथा व्यक्तियों के साथ साथ जीना जैसी चीजों का का प्रयोग किया गया और जिन्हें अपनाने की ओर जोर दिया गया सामान्यता वही बुद्धचर्या के अंतर्गत आते हैं। जब हम इसे आम अर्थों में देखते हैं तो बुद्धचर्या का मतलब बुद्ध के द्वारा अपनाए गए आचरण होते हैं। उन्हीं चीजों को बौद्ध भिक्षु और भिक्षुणियों हेतु आवश्यक करने के साथ-साथ और अन्य व्यक्तियों के लिए उन्हें निश्चित किया।आमजन को जो बौद्ध धर्म के प्रति अपनी निष्ठा को रखते हैं, उन्हें कहा गया कि वह अपनी मान्यताओं से जोड़ करके उनके अनुसार सदाचरण करें यह सदाचरण बुद्धचर्या की ओर इंगित करता है।
बौद्ध धर्म अपने भिक्षुओं के साथ-साथ अपने अनुयायियों की बेहतरी के लिए ने नए आचार विनिर्मित किए जो आने वाले समय में बेहतर भविष्य की आधारशिला रखते हैं। मानव मात्र अपने लिए एक आधारभूत संरचना को तैयार करते हुए यह कोशिश करता है कि उसका भविष्य एक बेहतरीन कल्पना को साकार कर सकें। जिसके लिए वह अपने वर्तमान में अच्छे एवं मानकीकृत आचार विचार का पालन करना अपना परम धर्म समझता है। यह उसे उसके जीवन जीने के तरीके, व्यवहार के तरीके, कार्य करने के तरीके एवं अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति के तरीके को निश्चय करने, लागू करने और पालन करने के नए-नए आधार भूमि का निर्माण करते हैं।
बौद्ध धर्म अपने उद्भव के साथ ही इस बात पर बेहद सजग रहा कि जिन कुरीतियों, रूढ़ियों, अंधविश्वास और कुविश्वासों को लेकर आक्रामक रहा और जिनको लक्ष्य करके नवीन पंथ का निर्धारण करते हुए तत्कालीन मानवों के लिए स्वयं का निरूपण किया वह कहीं से भी अपने मूल में अपनी स्वीकृति के लिए गलत धारणाओं और प्रवृत्तियों का आश्रय न लेने पाए। हर व्यक्ति के जीवन का एक लक्ष्य होता है। वह लक्ष्य जीवन भर उसके क्रियाशील बने रहने का कारण बनता है। अपने उस लक्ष्य को पाने के लिए छोटे-छोटे उद्देश्यों को बना करके व्यक्ति क्रमिक रूप से अपने व्यक्तित्व का विकास करता हुआ वहां तक पहुंचने का प्रयत्न करता है। धर्म इस कार्य में उसकी मदद करता है। मूलतः धर्म का आचार तथा उसके नियम व्यक्ति को व्यक्तित्व की सुखद आस में उसकी सहायता करते हुए उसे निरंतर आगे बढ़ते रहने को एक मार्ग प्रदान करते हैं।
सन्दर्भ सूची
1. बौद्ध संस्कृति का इतिहास, भाग चंद्र जैन, पृष्ठ 205।
2. बुद्ध कालीन समाज एवं धर्म, डॉक्टर मदन मोहन सिंह, पटना, 1974, पृष्ठ 2/ 98।
3. बुद्धचर्या, राहुल सांकृत्यायन, पृष्ठ 3 /15।
4. बौद्ध संस्कृति, राहुल सांकृत्यायन, कोलकाता, 1952, पृष्ठ- 7/ 10।
5. बुद्धचर्या, राहुल सांकृत्यायन, पृष्ठ 3 /26।
6. भारतीय संस्कृति व उसका इतिहास, सत्यकेतु विद्यालंकार, पृष्ठ 6/15।
7. बुद्धचर्या, राहुल सांकृत्यायन, पृष्ठ 3 /35।
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