शनिवार, 19 फ़रवरी 2022
काव्य सरिता 1-समकालीन दोहे -डॉ जय शंकर शुक्ल
काव्य सरिता 1-समकालीन दोहे
-डॉ जय शंकर शुक्ल
मन मंदिर में उतर कर,
देह भाव को त्याग।
अपने पन को को ढूंढ ले,
देखें अपने भाग।।1।।
मन के माने तन बने,
शुघर सलोना साज।
आभामंडल बन मिले,
मानवता का राज।।2।।
मन पर रहता है सदा,
संकल्पों का बोध।
प्रतिपल आभासित रहे,
स्नेह भाव का शोध।।3।
जिस इंद्रिय के साथ हो,
मन रचता है रास।
तेज उसी का दीप्त हो
बाकी रहे उदास।।4।।
मन को साधे मोक्ष का,
खुल जाता है द्वार।
मानव अपने श्रेय को,
पाकर करे विचार।।5।।
बंधन कारक भी बने,
मन ही बारंबार।
इसके कारण जीव से,
बांधते हैं आचार।।6।।
मन के संयम से मिले.
तन को ज्योति अपार।
उसके साधे जीव का.
होता बेड़ा पार।।7।।
नौ द्वारों के यान में.
चालक रहता साथ।
सांसों का आवागमन.
रखता इसे सनाथ ।।8।।
पंच तत्व युक्त देह में.
मन सहों का शाह।
अंधियारों के बीच में.
यही दिखाता राह।।9।।
जीवन में रहता सदा.
अपनों का व्यवधान।
गैरों में होती नहीं.
निजता की पहचान।।10।।
अपने अपने ज्ञान हैं.
अपने-अपने बोध।
अपनी अपनी अस्मिता.
दूर करे अवरोध ।।11।।
राम भरोसे कर रहा.
मेहनत रामभरोस।
ठेकेदारों ने लिया.
चीन सब्र संतोष।।12।।
रंग बदलते दीन का.
पाया कैसा साथ।
बेरंगे इस जगत में.
लगते सभी अनाथ।।13।।
ईएमआई भवन की.
बढी रहे हर काल।
जैसे परजीवी बढे.
खा कर सब का माल।।14।।
अंत समय की कामना.
राम राम की टेर।
जीवन भर चलता रहे.
एक कम सौ का फेर।।15।।
न्याय पिपासा में हुआ.
है कागा हैरान।
रीते घट में शेष अब.
कंकड़ की पहचान।।16।।
न्याय सक्रियता बन रही.
सत्ता को अभिशाप।
जीवन में बढ़ने लगी.
मत्स्य न्याय की छाप।।17।।
मोबाइल के ट्यून में.
परिचय सभी छुपाएं।
रिश्ते बौने हो रहे.
अंको को अपनाए।।18।।
मोबाइल में बस रहे.
अंको के परिवार।
जिन अंको में हम पहले.
वह भी खाते मार।।19।।
सच्चाई भूखे मरे.
बेईमान अमीर।
बिना मरे लाखों यहां.
नेता धरें शरीर।।20।।
काम भोग से कामना.
अधिक अधिक हरियाय।
जैसे जैसे पद बड़े.
अहंकार बढ़ जाय।।21।।
चीनी चारा यूरिया
पछता बिना लपेट।
नेताओं की हवस है
ज्यों सुरसा का पेट।।22।।
पाक कला में भी बड़े
नेता जी गुणवान।
नारी को भी दे बना
तंदूरी पकवान।।23।।
खादी की करतूत में
अवगुण सभी समाए.।
जैसे काले रंग में
रंग सभी छुप जाए.।।24।।
खूब ठगी चोरी बिना
सरे न कोई काज।
भ्रष्टाचार समाज में
ज्यों जंगल का राज।।25।।
आपाधापी के चलत
आपा दिया बिसार.।
अब सबके ईमान पर
लटक रही तलवार।।26।।
मत जितना उतनी कुमत
न्याय करेगा कौन.।
अब कुछ दिन की बात है
राज करेंगे डॉन।।27।।
इ ऍम आई भवन की,
बढ़ी रहे हर काल।
जैसे परजीवी बढे,
खाकर सबका माल।।28।।
किस्तों में जीवन बंटा,
साँस साँस है दीन।
मन में भरा मलाल है,
ज्यों अनुबंधित मीन।।29।।
हमने देखा है सदा,
संभावी संसार।
अपने ही किरदार का,
नहीं है पारावार।।30।।
ऋण रोगी रिपु तीन मिल,
रचें विचित्र विधान।
इनसे उबरे बिन कहाँ,
मानव का कल्यान।।31।।
ऋण के चक्कर में फंसा,
मनुज मचाये शोर ।
जैसे पिंजरे में विकल,
सिंह करे अति रोर ।।32।।
अपने अपने घोसले ,
विहग गए नभ फाँद .
सिंदूरी सपने लिए ,
मिला रात से चाँद .||33।।
चंदा की मनुहार पर ,
रजनी हुई निसार .
उधर विरह मे लुट गया,
चकवी का संसार .।।34।।
चंदा ऐसा लग रहा ,
ज्यों मुख ज्योति अपार .
तारों के गहने पहन ,
रात करे अभिसार .||35।।
खुले गगन की राह मे ,
बाज खड़ा मुस्तैद ,
त्रस्त पखेरू माँगता ,
फिर पिंजरे की कैद .||36।।
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