बुधवार, 23 फ़रवरी 2022

सिक्किम की वन संपदा" --डा जयशंकर शुक्ल

           "सिक्किम की वन संपदा"

                    --डा जयशंकर शुक्ल


         भारत के सीमावर्ती पूर्वोत्तर हिमालयी पर्वतीय राज्य सिक्किम को उपग्रह डाटा के आधार पर भारत देश में सबसे ज्यादा हरियाली वन वाला प्रदेश माना गया है. नवीनतम साक्ष्यों के अनुसार राष्ट्रीय 21 प्रतिशत वनीकरण के मुकाबले सिक्किम का 47.3 प्रतिशत क्षेत्र वनों के ढका हुआ है. सिक्किम पूर्वोत्तर भारत का एक खूबसूरत पहाड़ी प्रदेश है, जो अपने पर्वतीय परिदृश्य,बेमिसाल वन संपदा,आकर्षक पर्यावरण, मनहर वातावरण,सुंदर वन्य जीवन,विशिष्ट नदी-झीलों और  ऐतिहासिक  सांस्कृतिक जीवन तथा शांतिप्रिय बौद्ध मठों के लिए पूरी दुनिया भर में चर्चित है। ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक, भू वैज्ञानिक और प्राकृतिक रूप से यह प्रदेश बहुत अधिक महत्वपूर्ण  स्थान रखता है। हर वर्ष सिक्किम में बहुत ज्यादा संख्या में  पर्यटकों का आवागमन होता रहता है। 

            अपनी नैसर्गिक सुंदरता एवम प्राकृतिक विरासत के साथ साथ यह प्रदेश दुनिया की तीसरी सबसे ऊंची पर्वतीय चोटी कंचनजंगा के लिए भी सारे विश्व में जाना जाता है। सिक्किम प्रदेश का कुल क्षेत्रफल 7,096 वर्ग किलोमीटर है जिसमे लगभग सात लाख लोग निवास करते हैं।इस क्षेत्रफल में से प्रदेश में सन 2013 तक 3,359 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल को अर्थात 47% क्षेत्र को वन क्षेत्र के अधीन लाया जा चुका था तथा वर्तमान पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत  अतिरिक्त 1,000 हेक्टेयर क्षेत्र को वन भूमि क्षेत्र के अंतर्गत लाया जाना प्रस्तावित किया गया है, जिससे प्रदेश में कुल क्षेत्रफल के आधे से ज्यादा क्षेत्र वन भूमि क्षेत्र के अंतर्गत आ जाएगा. सामान्य तौर पर प्रदेश  में तीन प्रकार के वन देखें जाते हैं। अत्यंत घने वन ,सामान्य घने वन एवं खुले वन। यह इस राज्य की पहचान है और इन तीन तरह के वनों को मिलाकर के सिक्किम भारत का सर्वाधिक वन क्षेत्र वाला प्रदेश है।

                     यूं तो यह प्रदेश भारत में क्षेत्रफल आधारित प्रदेशों की सूची में सबसे छोटे प्रदेशों में दूसरे स्थान पर है। लेकिन वन क्षेत्र के आधार पर यह  भारत भर में शीर्ष स्थान पर अपने आप को बनाए हुए है । भारत में राष्ट्रीय स्तर पर वन क्षेत्र की स्थिति 21% है जिसकी तुलना में सिक्किम प्रदेश के वन भूमि क्षेत्र की स्थिति  वहां के कुल क्षेत्रफल के आधे क्षेत्रफल के बराबर अर्थात 47% है। यह अपने आप में भारतीय वन क्षेत्र के मामले में एक कीर्तिमान है। प्रदेश में वन क्षेत्र के रूप में सबसे ज्यादा मात्रा सामान्य घने वनों का है जो 2161 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले हुए हैं। इसी तरह दूसरे स्थान पर  खुले वन आते हैं, जो 698 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में विस्तारित हैं तथा तीसरे स्थान पर अत्यंत घने वनों को माना जाता है जिनका कुल क्षेत्र 500 वर्ग किलोमीटर का है। 

                         इसी के साथ साथ सिक्किम प्रदेश में 25 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र ऐसा है जो सामान्य पेड़ पौधों व वनस्पतियों से ढका हुआ है। इस  राज्य में वनों के क्षेत्रफल वर्ष 1993 में 43.95 प्रतिशत था, जो वर्ष 2013 में बढ़कर 47.34 प्रतिशत हो गया. प्रदेश का लगभग 38 प्रतिशत क्षेत्र पार्को, जीव अभयारण्यों, जीव मंडलों के साथ साथ शासन स्तर पर संरक्षित क्षेत्र के अंतर्गत लाया गया है, जो देश के सभी प्रदेशों में सर्वाधिक मात्रा में है. शासन के प्रयत्न से सिक्किम प्रदेश में हरित क्षेत्र को बढ़ाने के लिए 'सिक्किम ग्रीन मिशन', स्मृति वन, 'टेन मिनट टू अर्थ' जैसी अनेक महत्वपूर्ण एवम महत्वाकांक्षी योजनाओ की शुरूआत की गई हैं, जिनके काफी सकारात्मक परिणाम सामने आए हैं. 

                     राज्य में वनों के बढ़ने से जंगली पशुओं, विलुप्त  होने के कगार पर पहुंची प्रजातियों, वनस्पतियों एवं जीव-जंतुओं की संख्या में भी आशानुरूप अत्यधिक वृद्धि देखी गई है.


राज्य के कुल 7,096 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल के मुकाबले 5,841 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल को वनों के अधीन अंकित किया गया है.इस तरह से आज की तारीख में प्रदेश का लगभग 82.31 प्रतिशत क्षेत्रफल वनों के अंतर्गत पाया गया  है. जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह संख्या मात्र 23.41 प्रतिशत क्षेत्रफल को वनों के अंतर्गत  पाया गया है।


                           सिक्किम प्रदेश में पौधरोपण को  जान जन तक पहुंचने एवम जन-आंदोलन बनाने के लिए यहां शासन स्तर पर चलाए गए अभियान के तहत  तत्कालीन मुख्यमंत्री महोदय ने वर्ष 2006 में 'स्टेट ग्रीन मिशन' नामक एक विलक्षण कार्यक्रम शुरू किया. इसके अंतर्गत समस्त बंजर अनुपयोगी एवं खाली (परती पड़ी) भूमि को समाज की सक्रिय भागीदारी एवम रचनात्मक सहयोग से हरा-भरा करके 'ग्रीन सिक्किम' के महत्वपूर्ण लक्ष्य को पूरा करने का संकल्प व्यक्त किया गया था. इस कार्यक्रम के अंतर्गत प्रदेश के विभिन्न भागों में अब तक लगभग 45 लाख पौधे लगाए जा चुके हैं.


                    शासन स्तर पर प्रदेश के नेतृत्व द्वारा जून, 2009 में एक अन्य महात्वाकांक्षी  योजना के अंतर्गत शुरू लिए गए कार्यक्रम 'टेन मिनट टू अर्थ' के अंतर्गतविशेष प्रयत्न शुरू किया, जिसके अंतर्गत  प्रत्येक 10 मिनट के नियमित अंतराल में प्रदेश की सम्पूर्ण जनसंख्या ने अपने घरों से निकलकर 6,10,694 पौधे लगाए. सिक्किम के लोगो द्वारा बनाया गया यह एक नया विश्व कीर्तिमान था. इस पौधरोपण कार्यक्रम से प्रतिवर्ष 1,400 टन कार्बन डाई ऑक्साइड गैस को पर्यावरण से कम करने में हमे मदद मिल रही है. जिसके द्वारा हमापनी धरती को बचाने में काफी हद तक सफल हो पायेंगे। इस पौधरोपण के लिए सिक्किम के वन विभाग द्वारा वहां के नागरिकों को निःशुल्क विभिन्न किस्म के पर्यावरण उपयोगी पौधे उपलब्ध करवाए गए। अब  सिक्किम प्रदेश में प्रत्येक वर्ष 25 जून को यहां के सभी छह लाख नागरिको द्वारा  अपने व्यस्ततम समय में से 10 मिनट  का समय निकाल कर पौधारोपण, वन एवम वन्य जीव संरक्षण तथा  वन्य जीव संवर्धन जैसे कार्यो में लगाया जाता हैं. तथा इस कार्यक्रम के अंतर्गत विभिन्न प्रजातियों के 15 लाख वातावरण हेतु उपयोगी पौधे लगाए जाते हैं.


                 राज्य में   वर्ष   2013 में 15 से 30 जून तक पर्यावरण महोत्सव मनाया गया, जिसके अंतर्गत पौधों की विभिन्न प्रजातियों के 2.66 लाख पौधे लगाए गए. यह प्रक्रिया सतत अनुकरणीय है जिससे हम पौधारोपण के साथ साथ उनके रख रखाव पर बेहतर ध्यान रख सकते हैं। सिक्किम की प्रदेश  सरकार ने वहा लोगों के प्रियजनों की याद संजोए रखने एवम उनके प्रति अपनी श्रद्धांजलि के लिए 'स्मृति वन' योजना की  शुरूआत की गई है, जिसके अंतर्गत प्रदेश के लगभग 352 हेक्टेयर क्षेत्र में  कुल 40 स्मृति वनो को स्थापित किया गया हैं. राज्य में पिछले 20 सालों के दौरान विभिन्न विकास परियोजनाओं के लिए 800 हेक्टेयर वन भूमि का उपयोग किया गया, जिसके बदले  में 2,000 हेक्टेयर अतिरिक्त भूमि पर पौधरोपण किया गया.


                वन्य संपदा के अंतर्गत आने वाले अन्य महत्वपूर्ण वनस्पति एवं प्रजातियों में यहां के फूलों की महत्वपूर्ण भूमिका है। सिक्किम राज्य अपने इन फूलों के लिए पूरे दुनिया में जाना जाता है यहां से इन फूलों का न केवल निर्यात किया जाता है बल्कि इनके माध्यम से यहां के लोगों की आर्थिक स्थिति को बेहतर बनाने का एक महत्वपूर्ण उद्यम भी राज्य सरकार निरंतर कर रही है।सिक्किम प्रदेश में आर्किड की 400 प्रजातियां पाई जाती हैं। आर्किड निश्चित तौर पर हमारे देश की एक पहचान के रूप में स्थापित होती हुई दिख रही है। देश के अंदर यह पूर्वोत्तर क्षेत्र जिसमें सिक्किम प्रमुख है में बहुतायत रूप से पाया जाता है। सिक्किम में आर्किड की विभिन्न प्रजातियां जिसमें अलग-अलग आकार-प्रकार, रूप-रंग के आर्किड आते हैं, पाए जाते हैं। अपनी उपयोगिता महत्व एवं जन स्वीकार्यता  के द्वारा यह महत्वपूर्ण रूप से अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही है। 

                  सिक्किम के वन्य संपदा में यहां की तितलियों का विशेष स्थान है। रंग बिरंगी तितलियां सिक्किम के वातावरण एवं पर्यावरण में अनेक तरह के रंगों को भर देती हैं उन्हें सजा देती हैं। यहां पर 600 प्रजातियों की तितलियां पाई जाती है जो जय विविधता के लिए एक प्रकार के मिसाल के रूप में देखी जा सकती हैं विश्व में तितलियों की इतनी प्रजाति संभवत कहीं और देखा जाना संभव नहीं हो सकता। तितलियों की इतनी अधिक प्रजातियां और उन्हें संरक्षित रखना हमें गर्व करने का एक अवसर प्रदान करता है जिसके लिए हम सिक्किम और सिक्किम के लोगों का हृदय से आभार व्यक्त करना चाहते हैं वास्तव में एक छोटे से राज्य ने अपने प्रयत्नों के द्वारा हमें एक आधार दिया है अनुकरण करने की राह दी है जिसके माध्यम से हम धरती को और अधिक रंगीन बना सकते हैं। यह गलियां केवल देखने में सुंदरता की वृद्धि में ही अपना योगदान नहीं दे रही हैं बल्कि जय हो  विविधता के क्षेत्र में इनका योगदान अविस्मरणीय है।

          हमारे देश में जब हम वन्य संपदा की बात करते हैं तो हम कुछ वृक्षों और लताओं तक सीमित रह जाते हैं । यह भ्रामक और त्रुटि पूर्ण है। वन्य संपदा की बात करने पर सीधे सीधे हमारे सामने इस धरती के आभूषण के रूप में जितने भी प्राकृतिक उपादान हैं,आते हैं। वह चाहे वन हो, वन्यजीव हो, वनस्पतियां हो, लताएं हो , पक्षी हो, पशु हो, कंदरा हो, गुफा हो, नदियां झरनें या  पहाड़ हों यह सब मेरे अपने मान्यता के अनुसार वन्य संपदा के अंतर्गत ही आते हैं। सिक्किम प्रदेश में 550 प्रजातियों के पक्षी पाए जाते हैं. जो अपनी विशेषता और विविधताओं के लिए पूरे भारत में अपना एक अलग स्थान रखते हैं। यह पक्षी वहां के पर्यावरण संतुलन में भी महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं भोजन चक्र एवं जीवन चक्र को संतुलित रखने में इन पक्षियों का योगदान किसी से भी छिपा हुआ नहीं है वास्तव में यह एक अस्तित्व के सहायक होने का आधार है सह अस्तित्व के स्थान पर एक जो दूसरे जीव के लिए उसके अस्तित्व के लिए सहयोगी होता है ना कोई रुकावट या और अवरोधक। सिक्किम राज्य के पक्षी निश्चित तौर पर अपनी ज्ञात प्रजातियों के माध्यम से राज्य के जैव विविधताओं को अत्यधिक समृद्ध करते हैं और उनका योगदान प्राकृतिक रूप से राज्य को बेहद महत्वपूर्ण बनाता है।

   ‌                 सिक्किम राज्य में पशु पक्षियों की विविधता अन्य राज्यों के लिए इसे मिसाल के तौर पर प्रस्तुत करता है वास्तव में यह राज्य अपनी विशिष्ट भौगोलिक स्थितियों के आधार पर अपनी विशेषता के साथ स्वयं को सदैव प्रस्तुत रखने की कवायद में लगा हुआ है। किसी भी भूभाग में जितने भी जिओ हैं वह एक दूसरे के अस्तित्व और सहयोग के लिए जाने जाते हैं मानव भी उस भूभाग का एक जीव मात्र है जो अन्य जीवो के साथ वहां पर स्वयं को स्वयं के अस्तित्व को बनाए हुए हैं हमारा दायित्व बनता है कि हम सह अस्तित्व के बौद्ध को सबसे ऊपर रखते हुए अन्य जीवो के जीने के अधिकार का सम्मान करें यदि हम ऐसा करते हैं तो वह हमारे जीवन के लिए भी बेहद उपयोगी सिद्ध होगा। सिक्किम राज्य में बहुत सारे पशु पक्षी जिसमें जंगली भी हैं और पालतू भी हैं पाए जाते हैं जो यहां की पहचान है इसके अतिरिक्त राज्य के जंगलों में बर्फीले तेंदुए, रेड पांडा, हिमालयी भालू, कस्तूरी मृग एवं गिलहरियों की अनेकों प्रजातियां पाई जाती हैं.


              भारत के पूर्वोत्तर में यहां की पौधों की प्रजातियों में बांस का उत्पादन प्रमुख है । सिक्किम भी इससे अछूता नहीं है । सिक्किम प्रदेश में बांस की अनेक प्रजातियां विद्यमान हैं। बांस और बांस से बनी हुई वस्तुएं यहां की पहचान है यहां के समस्त मांगलिक कार्यों में बांस को और उसकी उपयोगिता को बड़े आदर के साथ देखा जाता है बांस यहां की मुख्य वानस्पतिक प्रजाति है जिसकी विभिन्न तरह की विविध रूप पाए जाते हैं। सिक्किम राज्य का 1,181 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र बांस की पैदावार के अंतर्गत आता है. सिक्किम प्रदेश में 8 लाख 87 हजार टन बांस की नालें विद्यमान हैं, जिनमें से 7 लाख 72 हजार टन हरी तथा 1 लाख 15 हजार टन सूखी हैं. इस तरह से बात की है ना ले वहां के निवासियों के जीवन में बहुत तरह से उपयोग में आते हैं सच कहा जाए तो बिना बांस के भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र के राज्यों के लोगों के जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती बांस के द्वारा इनके बनाए गए विभिन्न तरह की कलाकृतियां एवं वस्तु सारी दुनिया में बड़े आदर के साथ देखे जा रहे हैं और उपयोग हेतु लिए जा रहे हैं।

             इस प्रकार हम देखते हैं कि भारत के सुदूर पूर्वोत्तर क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण प्रदेश सिक्किम की पहचान यहां की अपार वन संपदायें हैं। जिनके माध्यम से यह केवल भारत में ही नहीं बल्कि संपूर्ण विश्व में जाना एवं पहचाना जाता है। सिक्किम की वन संपदा यहां की प्राकृतिक धरोहर और जैव विविधता है। इसे विशेष स्थान प्रदान करती हैं निश्चित तौर पर इन सब को लेकर के सिक्किम की अपनी अस्मिता विशेष स्थान रखती है।


डा जयशंकर शुक्ल

भवन संख्या-49, पथ संख्या-06,

बैंक कॉलोनी, मंडोली,

दिल्ली-110093


रविवार, 20 फ़रवरी 2022

"समीक्षा""भावों की सकारात्मक अभिव्यक्ति: यादों के इंद्रधनुष"-डॉक्टर जय शंकर शुक्ला

"समीक्षा"

"भावों की सकारात्मक अभिव्यक्ति: यादों के इंद्रधनुष"-डॉक्टर जय शंकर शुक्ला 


यादों के इंद्रधनुष कवि एवं साहित्यकार सुरेश पांडे जी की बहुप्रतीक्षित पुस्तक है । यह पुस्तक अपने लेखक के भावों, विचारों एवं क्रियाकलापों की साक्षी दस्तावेज है,ऐसा मेरा मानना है। वस्तुत: सुरेश पांडे अपने जीवन काल में जिए गए काल खंडों को शब्दों के माध्यम से पुस्तक आकार देने की इस प्रक्रिया में बहुत अरसे से लगे हुए हैं। इसमें इनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि ने इन्हें भरपूर सहयोग किया। संस्कारवान परिवार में जन्म लेने और दादाजी - दादीजी, ताऊजी- ताईजी एवं माताजी-पिताजी के आशिर्वाद तथा पूण्य के फलस्वरूप सुरेश पांडे ने अपने जीवन भर में जिए गए सार्थक पक्षों को लेखन रूप में सामने लाने का जो महत्वपूर्ण कार्य किया है, वह विलक्षण है, अनुकरणीय है एवं अविस्मरणीय है। वास्तव में यह पुस्तक अपने आप में पांडे जी के लगभग पूरे जीवन काल का एक आईना है, जिसको पढ़ने पर उनका जीवन, जीवन के सत्य, जीवन के विविध पक्ष  तथा उनसे जुड़े हुए लोग शब्दों के माध्यम से साकार हो उठते हैं। मेरे अपने मतानुसार इस पुस्तक को एक बार पढ़ना शुरू कर देने पर इसमें पढ़वा लेने का आग्रह है। यह मेरा दावा है कि आप एक बार इसको  पढ़ना शुरू कर के अंत तक पढ़े बिना नहीं रह सकते । एक एक शब्द संबंधित रूप से इतने आकर्षक हैं कि वह पाठकों को बांध लेते हैं। आलोचकों हेतु बहुत ज्यादा मैटर नहीं देते तथा शोधार्थियों के लिए नया रास्ता खोलते हैं।

           व्यक्तिगत तौर पर अगर पूछा जाए तो यादों के इंद्रधनुष में जीवन के, एक संपूर्ण कालखंड की यात्रा को शब्दों के माध्यम से व्यक्त किया गया है, जिसे पाठक जब भी पढ़ता है तो वह स्वयं उस यात्रा में अपने आप को पाता है। भाव, विचार, शब्द, और उन्हें कहने के तरीके इन सब में सुरेश पांडे बहुत ही विशिष्ट तरीके से आगे बढ़ते हुए दिखाई देते हैं। उनकी अपनी सोच, लोगों के प्रति उनका व्यवहार तथा उनके दायित्व इस पुस्तक में परिलक्षित होते हैं। लेखक अपने जीवन काल में जिए हुए पक्षों को जब भी कभी लेखन में लेकर आता है तो निश्चित रूप से समाज को कुछ नया देने की स्थिति तक स्वयं को लेकर जाने का आग्रह ही होता है।       

               उत्तराखंड के पारिवारिक पृष्ठभूमि एवं दिल्ली में जन्म लेने वाले सुरेश पांडे वहां से स्टॉकहोम स्वीडन की यात्रा में जिए गए जीवन के पक्षों का बहुत ही अच्छी तरह विवरण और विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं, जो उनके जीवन के विभिन्न भावों को उद्घाटित करता है। यादों के इंद्रधनुष पुस्तक के लेखक का लेखन अपने आप में बहुविध है विविध वर्णी इस लेखन में लेखक ने जी उनके विभिन्न पक्षियों को अपनी लेखनी से चरितार्थ किया है यहां पर लेखक के दृष्टिकोण को और उसके किसी भी घटना पर तटस्थ टिप्पणी को बड़ी ही सतर्कता से प्रस्तुत किया देखा जा सकता है लेखक सकारात्मक है। अपने विचारों के प्रति और उसको उन्हीं रूप में उसने व्यक्त किया है। यह किताब बहुत सारे मामलों में एक ऐसी बानगी प्रस्तुत करता है,जो आने वाले समय में एक मिसाल कायम करेगी।

               यादों के इंद्रधनुष पुस्तक में अध्याय योजना के अंतर्गत एक निरंतरता को देखा जा सकता है। भारतीय परिवेश में घटी घटनाओं को एक क्रमागत स्थितियों में व्यक्त करते हुए लेखक सुरेश पांडे जीवन में आने वाले मित्रों सहयोगियों के प्रति अपने विचारों को बड़े सजगता से आलेखन किया है। लेखक परिवार नामक संस्था में बहुत ही समग्रता से अपना विश्वास रखता है।और उसके आलेखन में यह बात ध्वनित भी होती है। वह अपने विचारों में भाव में परिवार को पहले नंबर पर रखते हैं।

           यादों के इंद्रधनुष पुस्तक की रचना में प्रयोग किए गए तथ्य पूरी तरह संदर्भित हैं। विचार पूरी तरह संश्लिष्ट हैं। और लेखक की भाषा प्रांजल संस्कृत निष्ठ है। आम बोलचाल की भाषा को लेखक ने कहीं-कहीं पुस्तक में स्थान दिया है लेकिन ज्यादातर पुस्तकों की रचना मानक भाषा से जोड़ करके एक मानदंड का प्रयोग किया है। मैं यादों के इंद्रधनुष पाठ की रचना के लिए इस पाठ के लेखक कवि साहित्यकार सुरेश पांडे जी को हृदय से साधुवाद देता हूं। और अपेक्षा करता हूं कि आने वाले दिनों में वह इस तरह की अन्य पुस्तकों के सृजन में संलग्न रहेंगे उनकी लेखन प्रतिभा और सृजन धर्मिता को मैं नमन करता हूं बहुत-बहुत साधुवाद।

-डॉक्टर जय शंकर शुक्ला 

भवन संख्या-49,पद संख्या-6,

बैंक कॉलोनी,मंडोली, दिल्ली-110093 

drjayashankarshukla@yahoo.in

यथार्थ और आदर्श की प्रतिरूप “किरण”अनिल कुमार पाण्डेय

यथार्थ और आदर्श की प्रतिरूप “किरण”

अनिल कुमार पाण्डेय 

हिंदी-विभाग 

पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ 

मो-8528833317 

         सभ्यता और संस्कारों की बात करना जैसे इन दिनों के कवियों और कविताओं में बेइमानी सी हो गयी है| जन-संवेदी रचनाकार इन दिनों यथार्थ चित्रण में इस तरह मशगूल हो गए हैं कि लगता है जैसे उनके रोने से ही एक बड़ा सामाजिक परिवर्तन हो जाएगा| यह कहना किसी भी रूप में गलत नहीं है कि यथार्थ तभी अपने साकार रूप में अनुकरणीय होगा जब उसे आदर्श के माध्यम से अमलीजामा पहनाने की कोशिश की जायेगी| आदर्शता एक ऐसी स्थिति है जो व्यक्ति के अन्दर समझ विकसित करती है| आदर्श के गलियारे से गुजर कर आने वाला रचनाकार एक हद तक अनुभवशील और परिपक्व होता है| यह परिपक्वता रचनाकार के लिए जितनी संतोषप्रद होती है समाज के लिए उतनी ही सुखद| 

          डॉ० जयशंकर शुक्ल एक ऐसे ही रचनाकार हैं जिनकी रचना-दृष्टि आदर्श के मुहाने से होते हुए यथार्थ का संस्पर्श करती है| इनकी अनुभवशीलता संस्कारों की जो किरणें बिखेरती है सम्पूर्ण परिवेश उससे प्रभावित और आच्छादित होता दिखाई देता है| परिवेश का आदर्षता से आच्छादित होना अपने सम्पूर्ण अर्थों में संस्कारशीलता से अनुप्राणित होना है| जीवन में मानवीय व्यावहारिकता संस्कारशीलता के ही प्रभाव से प्रवेश पाती है अन्यथा तो व्यक्ति पाशुविकता के आस-पास मंडराता फिरता है| कवि यह कहना-मानव-पशु में अंतर कितना रह जाता है,/कार्य हमारा, जाने क्या-क्या कह कह जाता है|/ मानव की श्रेणी में रहने वालों की,/ पहचान कराती, ऐसी मधुमय मानवता है ये||/ जीवन यात्रा में यदि चाहो आगे बढ़ना,/ निर्दय बनकर जग में यारों कभी न रहना/ दया-धरम की धरती माँ ये घोषित करती,/  भर लो अंचल, ऐसी सुन्दर मादकता है ये”, आदर्शता की संभावनाओं के साथ जुड़कर रहने की स्थिति को स्पष्ट करना है| 

             सृष्टि के प्रारंभ से लेकर आज तक के विकास यात्रा में यदि देखने का प्रयत्न किया जाए तो ‘मानव-पशु में अंतर’ बहुत ज्यादा नहीं पाया जाता है| मानव जहाँ मानवता के लिए अपने अतीत से प्रेरणा ग्रहण करते हुए वर्तमान को जीने और भविष्य को सुखकर बनाने की परिकल्पना करता है वहीं पशु न तो अतीत की तरफ देखने का कष्ट उठता है और न ही तो भविष्य के लिए चिंतित दिखाई देता है| जैसे भी होता है वह वर्तमान से खुश और संतुष्ट दिखाई देता है| मनुष्य यहीं नहीं रुकना चाहता| वह अतीत से अनुभव जुटाता है तो वर्तमान को खुशहाल बनाने के लिए उसे अपने जीवन में प्रयोग भी करता है| यह प्रयोग अपने गहरे यथार्थ में मात्र वर्तमान के लिए हो ऐसा बिलकुल भी नहीं है| ऐसा इसलिए क्योंकि स्वयं के लिए जीना ही उसका उद्देश्य कभी नहीं रहा| प्रसिद्ध छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद के इन शब्दों के माध्यम से कहने का प्रयास किया जाए तो “औरों को हंसते देखो मनु, हंसो और सुख पावो, अपने सुख को विस्तृत कर लो, सबको सुखी बनाओ” उसके जीवन का मुख्य निहितार्थ होता है| उसके इसी निहितार्थ का परिणाम है कि वह यथार्थ संभावनाओं की खोज और भविष्य के निर्माण में अनवरत सक्रिय रहना चाहता है| इस सक्रियता में वह अपना गौरव और स्वाभिमान समझता है| समझ में जब स्वयं के साथ-साथ सम्पूर्ण मानव-हित की चिंता हो तो मानवीयता स्पष्टतः अपने यथार्थ रूप में दिखाई देती है| गौरव और स्वाभिमान की इसी प्रक्रिया को ‘गौरव’ कविता के माध्यम से जयशंकर शुक्ल मानव की इसी स्थिति और वास्तविकता को कुछ इस तरह स्पष्ट करते हैं-

गौरव को बेताब मनुज यह 

प्रति पल उद्यम करता जाए |

अपनी या अपनों के खातिर 

जग में कितने कष्ट उठाए ||

खुद की इच्छा गौण समझकर 

ममता से परवश हो जाए |

स्वजनों की चाहत के कारण 

धरा सींचने गंगा लाए ||

शौर्य त्याग मर्यादा से जुड़ 

कभी न पीछे मुड़ने पाए ||   

          कभी न पीछे मुड़ने की स्थिति को मनुष्य के सिवाय शायद ही किसी दूसरे प्राणी ने अपनाया हो| यह मनुष्य ही है जो “आपस में निमग्न स्नेह रस के महासागर में/ धरा के प्राणियों हित प्रेम-सुधा बरसाता रहा|” जीवन-गत तमाम प्रकार की व्याधियों को स्वेच्छा से झेलते हुए वह भविष्य का मार्ग प्रशस्त तो करता ही है, दूसरों को भी इस तरह बनाता और तराशता है जिससे समय-समाज में उसकी भी उपयोगिता जीवन-जगत के लिए अनवरत बनी रहे| यह भी सही है कि ऐसे समय में, जब मनुष्य महत्त्वपूर्ण माना गया है समाज में अन्य की अपेक्षा तो यह सम्पूर्णता में बनी रहे न कि अवगुण और अनाचार के मार्ग पर चलते उसे मृतप्राय करने के लिए उद्यत हो| कवि सम्पूर्ण मनुष्य जाति को संबोधित करते हुए कहता है “सबल बनो पर तुमको इतना याद रहे/ निर्बल की भी आहें होती हैं, भान रहे|/ हृदय गुफा में बैठा प्रभु साकार रूप में/ आता इसके साथ अग्नि की दहकता है ये|” ईश्वरीय कोप और सामाजिक अपयस से सर्वथा बचाव के लिए जो सच्चे मनुष्य हैं उन्हें अपने इस उपयोगिता का अभिमान होता भी नहीं है| ऐसा करते रहने के पीछे प्रत्येक मनुष्य का स्पष्ट मानना होता है की “मानवता की उपासना ही हमारा धर्म है/ शास्त्र और आचार का एक यही मर्म है|” 

      जीवन-पथ पर आगे बढ़ने के लिए उसकी पहचान बहुत आवश्यक मानी जाती है| हम कहाँ जा रहे हैं और क्यों जा रहे हैं इसके विषय में कुछ तो जानकारी होनी ही चाहिए| इस जानकारी के लिए ही मनुष्य ने ‘शास्त्र’ का चयन किया है| शास्त्रों के द्वारा संस्कारशीलता का उपनयन किया है| आज के इस संक्रमण के दौर में ‘शास्त्र’ को ही सभी विसंगतियों के लिए उत्तरदायी ठहराया जा रहां है| तमाम प्रकार की विडम्बनाओं के लिए उसे शक के दायरे में रखकर खारिज करने का साहस किया जा रहा है| विडम्बना का विषय यह भी है कि ऐसा उनके द्वारा किया जा रहा है जिन्हें न तो शास्त्र की समझ है और न ही तो शास्त्रगत-आचार की| यही वजह है कि जो आचरण की परिभाषा ‘किरण’ के कैनवास से कवि बताता है “आचरित बन स्वयं किसी अप्रतिम अलबेले से/ सामाजिक स्नेह भाव के आधार को संवारते|/ कर दे पिक, काक को अपने सहज कौतुक से/ हॉवे महिमामंडित जो उसे आचरण पुकारते” आज बहुत कम ही लोगों में देखने और जानने को मिल रही है|

         यह भी सही है कि ऐसे लोग सिद्धांतों मात्र में अडिग तो रहना चाहते हैं लेकिन जब बात व्यावहारिकता की आती है तो कहीं दूर हट जाना चाहते हैं| शास्त्र के प्रतिरोध में अनेक कोकशास्त्र भी इन दिनों के परिवेश में लोगों द्वारा रचे गए हैं और निरंतर रचे भी जा रहे हैं लेकिन वे नितांत बनावटी, दिखावटी और मतिभ्रम करने वाले ही साबित हुए हैं| कवि का यह कहना “हाय रे हतभाग्य/ तुमने/ अपने चारों तरफ/ बनावटी दुनिया के ताने बाने/ कृत्रिमता के बहाने तथा/ उपलब्धि की इच्छा में/ स्वयं को उसकी छाया से/ दूर कर लिया है/ बहुत दूर कर लिया है” उसकी अपनी यथार्थ स्थिति को दिखाने का ही प्रयास है|

         इस प्रयास में शास्त्र के बहाने जहाँ जीवन-पथ को सुन्दर बनाने की परिकल्पना की गयी है वहीं अपने समय के साथ-साथ इस वर्तमान की संवेदनशील समस्याओं पर भी गहरी दृष्टि दौडाई गयी है| सबसे पहले तो बात कर लेना उचित होगा देशभक्ति की| आज सम्पूर्ण चिंतन-प्रक्रिया दो धाराओं में बंटी हुई है| देशभक्ति और देशद्रोह| देशभक्ति और देशद्रोह की परिभाषाओं से आज का बच्चा-बच्चा वाकिफ है| जो ठीक से दौड़ना भी नहीं सीखा होगा भक्ति की स्थिति से कहीं ज्यादा परिचित होगा| सवाल ये है कि जो दौड़ रहे हैं लगातार ऐसी भक्ति को ढोंग और ढकोशला बता रहे हैं और मन-माफिक देशभक्ति के दायरे से बाहर होते हुए जन-भक्ति का जुमला उछाल कर सम्पूर्ण परिवेश को दूषित और प्रदूषित कर रहे हैं| जो भावी युवा हैं देश के ऐसे जुमलों से संक्रमित जरूर हुए हैं और समाज-देश-विरोधी संस्कृति की तरफ बड़ी तेजी से उन्मुख हो रहे हैं| देश के बच्चों में ‘भारत की तकदीर’ को देखते हुए जयशंकर शुक्ल यह कहना देश और समाज के लिए तत्पर होना तो सिखलाता ही है संस्कृति से जुड़कर कार्य करने के लिए प्रेरित भी करती है-यथा 

बच्चों तुम भारत माँ की तकदीर हो 

देश को चमकाओगे ऐसे वीर हो

तुमसे बढ़ता मान देश का 

गौरव स्वाभमान देश का 

ज्ञात विश्व में जान सके ना 

ऐसा मधुमय आन देश का 

जन-उत्थान कराने वाले 

विविधा के रणधीर हो|

           काव्य की ऐसी पंक्तियाँ निश्चित ही देश समाज और संस्कृति से जुड़ने के लिए प्रेरित करती हैं| यह स्थिति आज के कवियों में बहुत कम देखने को मिल रही है| गीतों और नवगीतों में तो ऐसी परंपरा वर्तमान है लेकिन तथाकथित समकालीन कविता जिसे मुक्त-छंद के नाम से ही समझने का प्रयत्न किया जा सकता है, में इसका बहुत बड़ा अभाव दिखाई देता है| वहां भारत को भारत मानने के लिए ही लोग तैयार नहीं हो रहे हैं “माँ” शब्द से विभूषित करना तो बहुत दूर की बात है| इसीलिए देश में इन दिनों “भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशाअल्लाह इंशाअल्लाह!” जैसे नारे जन्म ले रहे हैं| देशभक्ति के पाठ पढ़ने वाले बच्चों को उकसाए जा रहे हैं| उन्हें परम्परावादी और रूढ़िवादी सिद्ध किये जा रहे हैं| यहाँ कवि संस्कारशील बच्चों को पुरातनपंथी न कहकर उन्हें ‘आने वाले युग का नायक’ कहता है 

“आने वाले युग के तुम नायक हो

प्रातः रुपी धनुहा के सायक हो 

नये क्षितिज को विस्तृत करके 

बनो दीप तुम लायक हो 

जो बलि जाए राष्ट्र धर्म पर 

तुम वो शूर वीर हो ||बच्चों||

         यहाँ कवि जाति-धर्म या समाज-धर्म की बात न कहकर राष्ट्र-धर्म की संवेदना को महत्त्व देता है| यह भी वर्तमान की एक विसंगति है कि जाति-धर्म के आगे किसी का कलम और किसी की सोच कम ही चलती हुई दिखाई दे रही है| हमारे आज के इस समय की यह भी एक बड़ी सच्चाई है कि जिनसे उन्हें सीख मिलनी चाहिए वे पाठ्य परिवर्तित कर के उनके स्थान पर ऐसे रचनाओं को जगह दिया जा रहा है जिनमें प्रेरणा नाम की चीज न होकर विखंडन की विसंगतियां भरी पड़ी हैं| जिस देश का साहित्य जैसा होगा उस समाज-संस्कृति  की स्थिति की पारिकल्पन कुछ वैसी ही की जायेगी| सदियों से चले आ रहे भारतीय समाज में असमानता की जो जगह थी शिक्षा जगत में उस असमानता को और भी विकसित किया गया है| महापुरुषों को गलियां दी जा रही हैं तो महात्माओं पर व्यभिचार के दोष मढ़े जा रहे हैं जबकि कपटी, धूर्त और अहंकारी तथा समाज-विभाजक के सूत्रधार राजनीतिक षड़यंत्र का फायदा उठाते हुए पुरस्कृत हो रहे हैं| अर्थात विखंडन की जो भी नीतियाँ कारगर हैं उन्हें अपनाया जा रहा है जबकि इस देश की संकल्पना में विखंडन न होकर “साम्यरस की छटा” हिलोरे ले रही थी, कवि विभाजन कारियों को यही सन्देश देना चाहता है कि-

मान क्यूं दे रहे हो कृपन के लिए/ मान देना है दे दो सुमन के लिए 

आप के सामने ऐसा हो जाएगा/ आग भी रो उठेगी तपन के लिए 

एक दीपक जला करके देखो जरा/ बाती घी में डूबा करके देखो जरा 

अन्धकार अपने आप में घुट जाएगा/ रोशनी की छवि भरके देखो जरा|

दूरियां हर दिलों की सिमट जाएँगी/ अन्तराएं अँधेरे की मिट जाएँगी 

राह की दोस्ती के चलो कुछ कदम/ मुश्किलें रास्तों की भी हट जाएँगी|

आदमी-आदमी जैसा दिखने लगे/ आदमीयत की आभा निखरने लगे 

अपनी जैसी समझ लो पराई व्यथा/ साम्यरस की छटा फिर सँवरने लगे|”

             ‘साम्यरस की छटा’ से चाटुकारों को हर समय भय रहा है| मुफ्त की खाने वालों को हर समय दिक्कत रही है| भला वे कब चाहेंगे कि “आदमी आदमी जैसा दिखने लगे/ आदमीयत की आभा निखरने लगे”? यदि ऐसा हुआ तो फिर लूटने-खाने के लिए कहाँ से मिलेगा उन्हें? कवि इन स्थितियों की यथार्थता को लेकर पूरे संग्रह में चिंतित दिखाई देता है| उसके इस चिंता में ‘जनसँख्या का विस्फोट’ भी है और लेबर चौराहों पर लग रही मजदूरों की बोली भी है, महापुरुषों की जरूरत भी आज के इस समय में उसे आभासित हो रही है और भाषा-संस्कृति की दुर्दशा पर भी बेहद संवेदनशील है| कुल मिलकर ‘किरण’ में वह चाहता है कि सभी व्यक्ति अपने अपने हिस्से की रोशनी को देखें ताकि समाज व्याप्त अंधियारा समाप्त हो सके| सम्प्रेषणीयता में तुकबंदी कहीं कहीं बाधक जरूर है लेकिन भावात्मक सघनता होने की वजह से बोधगम्य भी है| सहज शब्दों के माध्यम से सब कुछ कह देने की इनकी अपनी विशेषता है जिसे विशिष्टता भी समझा जा सकता है और इनकी कमजोरी भी|











आलेख “देवोत्थानी-एकादशी” -डॉ जयशंकर शुक्ल

आलेख “देवोत्थानी-एकादशी” -डॉ जयशंकर शुक्ल कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवउठनी ग्यारस अथवा प्रबोधिनी एकादशी (देवोत्थानी एकादशी) का पावन पर्व मनाया जाता है। देवउठनी ग्यारस इस बार रविवार, 14 नवंबर को मनाई जाएगी. पौराणिक मान्‍यताओं के अनुसार, आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को भगवान विष्णु चार माह के लिए सो जाते हैं और कार्तिक शुक्ल एकादशी को जागते हैं. चार माह की इस अवधि को चतुर्मास कहते हैं. देवउठनी ग्यारस के दिन ही चतुर्मास का अंत हो जाता है और शुभ काम प्रारंभ किए जाते हैं. स्कंदपुराण के कार्तिक माहात्मय में भगवान शालिग्राम (भगवान विष्‍णु) के बारे में विस्‍तार से वर्णन किया गया है. हर साल कार्तिक मास की एकादशी को भक्त और व्रती प्रतीकात्‍मक रूप से तुलसी और भगवान शालिग्राम का विवाह करवाती हैं. इस बार 14 नवंबर को भगवान शालिग्राम और माता तुलसी का विवाह होगा. उसके बाद ही हिंदू धर्म के अनुयायी विवाह आदि शुभ कार्य प्रारंभ कर सकते हैं. भगवान शालिग्राम ओर माता तुलसी के विवाह के पीछे की एक प्रचलित कहानी है. दरअसल, शंखचूड़ नामक दैत्य की पत्नी वृंदा अत्यंत सती थी. शंखचूड़ को परास्त करने के लिए वृंदा के सतीत्‍व को भंग करना जरूरी था. माना जाता है कि भगवान विष्‍णु ने छल से रूप बदलकर वृंदा का सतीत्व भंग कर दिया और उसके बाद भगवान शिव ने शंखचूड़ का वध कर दिया. इस छल के लिए वृंदा ने भगवान विष्‍णु को शिला रूप में परिवर्तित होने का शाप दे दिया. उसके बाद भगवान विष्‍णु शिला रूप में तब्‍दील हो गए और उन्‍हें शालिग्राम कहा जाने लगा.अगले जन्‍म में वृंदा ने तुलसी के रूप में जन्म लिया था. भगवान विष्‍णु ने वृंदा को आशीर्वाद दिया कि बिना तुलसी दल के उनकी पूजा कभी संपूर्ण नहीं होगी. भगवान शिव के विग्रह के रूप में शिवलिंग की पूजा होती है, उसी तरह भगवान विष्णु के विग्रह के रूप में शालिग्राम की पूजा की जाती है. नेपाल के गण्डकी नदी के तल में पाया जाने वाला गोल काले रंग के पत्‍थर को शालिग्राम कहते हैं. शालिग्राम में एक छिद्र होता है और उस पर शंख, चक्र, गदा या पद्म खुदे होते हैं. श्रीमद देवी भागवत के अनुसार, कार्तिक महीने में भगवान विष्णु को तुलसी पत्र अर्पण करने से 10,000 गायों के दान का फल प्राप्त होता है. वहीं शालिग्राम का नित्य पूजन करने से भाग्य बदल जाता है।तुलसीदल, शंख और शिवलिंग के साथ जिस घर में शालिग्राम होता है, वहां पर माता लक्ष्मी का निवास होता है यानी वह घर सुखी-संपन्‍न होता है.कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन देवउठनी एकादशी या देव प्रबोधिनी एकादशी का व्रत किया जाता है। इस बार यह शुभ तिथि 14 नवंबर दिन रविवार को मनाया जाएगा। एकादशी के व्रत को व्रतराज की उपाधी दी गई है क्योंकि यह सभी व्रतों में सर्वश्रेष्ठ है और इससे सौभाग्य की प्राप्ति होती है। सनातन धर्म में देवउठनी एकादशी का विशेष महत्व है क्योंकि इस दिन भगवान विष्णु चतुर्मास की निद्रा से जागते हैं और अपने भक्तों पर कृपा बरसाते हैं। ‌ भगवान के जागने से सृष्टि के तमान सकारात्मक शक्तियों का संचार होने लगता है। इस दिन भगवान विष्णु के जागने से देवतागण भी व्रत रखकर पूजन करने से कन्या दान के बराबर मिलता है फल। देवउठनी एकादशी को देव प्रबोधिनी और देवोत्थान एकादशी के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन तुलसी विवाह के साथ मांगलिक कार्य शुरू हो जाते हैं। मान्यता है कि जो व्यक्ति कन्या सुख से वंचित रहता है, उसको इस दिन तुलसी विवाह जरूर करना चाहिए क्योंकि इससे कन्या दान के बराबर फल मिलता है। इस वर्ष देव उठनी एकादशी पर कई बेहद शुभ संयोग बन रहे हैं। इस वर्ष देव उठनी एकदाशी 14 नवंबर को रहेगी। एकादशी का आरंभ 14 नवंबर की मध्यरात्रि 05 बजकर 448 मिनट से हो रहा है और समापन 15 नवंबर सुबह 06 बजकर 39 मिनट पर हो रहा है। इसके बाद द्वादशी तिथि का आरंभ हो जाएगा, जो 16 नवंबर की सुबह 07 बजकर 47 मिनट तक रहेगी। ऐसे में एकादशी का पूरे दिन 14 नवंबर को रहेगी।एक व्रत से कई लाभ इस एकादशी का पारण 15 नवंबर की सुबह 10 बजे तक किया जा सकता है। एकदाशी का व्रत करने वाले द्वादशी तिथि को भी व्रत के कुछ नियमों का पालन करना होता है, जिनमें एक नियम यह भी है कि व्रती को द्वादशी के दिन सोना नहीं चाहिए। अगर आपको नींद आ रही है तो सिरहाने के पास एक तुलसी दल रख लें। मोक्ष के साथ धन लक्ष्मी की कामना करने वाले देव प्रबोधिनी एकादशी के दिन दिवाली की तरह घर की साफ-सफाई करनी चाहिए और इन शुभ योगों के बीच पूरी रात लक्ष्मी नारायण की पूजा करनी चाहिए और अखंड दीपक जलाना चाहिए। दिवाली की तरह इस दिन भी घर के आसपास दीपक जलाना चाहिए। देवउठनी ग्यारस के दिन व्रती प्रातःकाल स्नानादि से निवृत्त होकर व्रत और पूजा का संकल्प लें. उसके बाद पूजा स्थल पर बैठकर भगवान विष्णु के चरणों में धूप, दीप, नैवेद्य, फल, फूल आदि अर्पित करें. देवउठनी ग्यारस पर जरुर करें ये काम 1. देवउठनी ग्यारस के दिन अपने घर में दीपक जरुर जलाएं। क्योंकि देवउठनी ग्यारस के दिन भगवान विष्णु जागते हैं, इसलिये सभी देवता भगवान विष्णु का दीपक जलाकर स्वागत करते हैं। 2. देवउठनी ग्यारस के दिन तुलसी का विवाह शालिग्राम जी से जरुर करवाना चाहिए। कहा जाता है कि इससे भगवान विष्णु प्रसन्न होते हैं और आशीर्वाद देते हैं। 3. देवउठनी ग्यारस के दिन सूर्योदय से पहले उठें और विष्णु जी की पूजा करें। वहीं इस दिन रात के समय जागरण कर श्री हरि का कीर्तन करें। 4. इस दिन भगवान विष्णु की पूजा करते समय उन्हें तुलसी दल जरुर अर्पित करें। क्योंकि भगवान विष्णु को तुलसी दल बहुत प्रिय है। 5. देवउठनी ग्यारस के दिन तुलसी नामाष्टक का पाठ करना अच्छा माना जाता है। खासकर उनसे लिये जिनकिी संतान नहीं है। 6. देवउठनी ग्यारस के दिन व्यक्ति को निर्जल व्रत करना चाहिए। अगर निर्जला व्रत रखना संभव नहीं है तो एक समय भोजन कर व्रत रखें। 7. ग्यारस के व्रत में नमक का सेवन ना करें, अगर संभव हो सके तो एकादशी के दिन फलाहार के बाद व्रत का पारण करें। 8. देवउठनी ग्यारस के दिन पूजा करते समय भगवान विष्णु के मंत्रों का ज्यादा जप करें। भगवान विष्णु अपने भक्तों को विशेष आर्शीवाद प्रदान करते हैं। 9. देवउठनी ग्यारस के दिन भगवान विष्णु को जगाने के लिए घंटा बजाया जाता है। इसलिए एकादशी के दिन व्रत करने वाले व्यक्ति को पूजा के बाद घंटा बाकर विष्णु जी को जगाना चाहिए। 10. देवउठनी एकादशी पर गाय को हरा चारा का भोजन कराएं। इसके साथ ही ब्राह्मण को दान-दक्षिणा जरुर दें।

साक्षात्कार "प्रकृति से मेरा जुड़ाव बहुत गहरा रहा है"-लोकप्रिय एवं नवोदित साहित्यकार अरविंद भट्ट से डॉक्टर जय शंकर शुक्ल की बातचीत

साक्षात्कार

 "प्रकृति से मेरा जुड़ाव बहुत गहरा रहा है"-लोकप्रिय एवं नवोदित साहित्यकार अरविंद भट्ट से डॉक्टर जय शंकर शुक्ल की बातचीत

डॉ.जयशंकर शुक्ल-1: अरविन्द जी, साहित्य में आपका आगमन कविता से हुआ और अब आप यात्रा संस्मरण लिख रहे हैं. इसका क्या कारण है?

[अरविन्द] – आपके प्रश्न का उत्तर देने से पहले मैं स्वयं आपसे एक प्रश्न करता हूँ की किसी के लिए आखिर हिंदी लेखन के लिए महत्वपूर्ण क्या है? उसके विचार, या विचारों को व्यक्त करने का माध्यम या विधा? निःसंदेह विचार सर्वोपरि है. लेखक अपने जिए हुए को, अपने अनुभवों को अपने विचारों में सींचता है, पोषित करता है, उसके साथ तादात्म्य स्थापित करते हुए स्वयं को संतुष्टि का भाव देता है. और तब वह इच्छा करता है कि इन विचारों को भावों को वह वाह्य दुनिया के सम्मुख ले आए. अब प्रश्न यह आता है कि वह इन विचारों को सम्मुख लाए कैसे? और यहीं पे यह चुनाव महत्वपूर्ण हो जाता है कि आखिर कौन सी विधा व्यक्ति विशेष के विचारों को अधिक प्रामाणिक और प्रभावी रूप से बाकी लोगों के सम्मुख सरलता से रख सकेगी.

सारांश यह रहा कि आपको अपनी बात, विचार दुनिया के सामे रखने हैं चाहे विधा कुछ भी हो. अब आपके प्रश्न पर आते हैं. साहित्य में मैंने अपने आगमन की कोई रूपरेखा नहीं बनाई और न ही कोई सुनियोजित कार्यक्रम. प्रारंभ से ही मनोभावों ने ह्रदय में, विचारों में जो उथल-पुथल मचा राखी थी, जो वर्षों से मेरे मन को मथ रहा था वह कविता के रूप में व्यक्त करना अधिक श्रेयस्कर लगा. क्यूंकि यही एक माध्यम था जिसमें मैं अलग-अलग मनोभावों को संक्षिप्त और प्रवाहपूर्ण ढंग से सामने ला सकता था. चूंकि अंदर बहुत कुछ भरा हुआ था और वह बाहर आने को व्यग्र था  इसीलिए सच कहूँ तो उन सभी मनोभावों को बहार लाने की कहीं न कहीं जल्दबाजी भी थी.कुछ समय पश्चात जब अंदर का बहुत कुछ कविताओं के रूप में बाहर आया तो विचारों नें अपनी संभावनाएं विस्तृत करने का प्रयास प्रारंभ कर दिया. मेरे अंदर का लेखक सजग था और इस बार उसने अपने संस्मरणों को लिपिबद्ध करने का सोचा और यहीं से मेरे यात्रा संस्मरण की रूपरेखा बनी. प्रकृति से मेरा जुड़ाव बहुत गहरा रहा है और यात्रा उस प्रकृति तक पहुँचने का मार्ग है. बस जिन यात्राओं नें मेरा भावनात्मक पोषण किया उन संस्मरणों को सामने लाने से स्वयं को रोक नहीं पाया. 

डॉ.जयशंकर शुक्ल 2: जब आप निबंध या संस्मरण लिखते हैं तो भावुकता और तार्किकता आती है. आप दोनों में सम्बन्ध कैसे बना पाते हैं?

[अरविन्द] – सत्य कहा आपने. निबंध या विशेषकर संस्मरण लिखते समय इन दोनों में सामंजस्य बनाये रखना बहुत महत्वपूर्ण होता है और कठिन भी.भावुकता आपको विषय से और घटनाओं से जोड़े रखती है. आपके अवलोकन को नई दृष्टि देती है जिससे लेखन और पाठक में एक अदृश्य सम्बन्ध स्थापित हो सके, पाठक आपके लिखे हुए में  स्वयं को समाहित कर सके, उससे जोड़ सके, आपकी दृष्टि से देखते हुए स्वान्तः सुखाय का आनंद ले सके. और यह सब बिना भावुकता से गुज़रे नहीं हो सकता है. वहीं दूसरी ओर तार्किकता आपको यथास्थिति से भटकने नहीं देती है. घटनाओं के प्रत्यक्षीकरण में भावनाओं के अतिरेक में होने वाले भटकाव को नियंत्रित करती है. भावुकता के अत्यधिक समावेश से घटनाओं के नाटकीय और काल्पनिक होने की संभावना बलवती हो जाती है तो वहीं अत्यधिक तार्किकता घटनाओं से पाठक के जुड़ाव को कम कर सकती है, जिससे उसकी रोचकता प्रभावित होती है और कहीं न कहीं उसके विषयांतर होने का भी भय रहता है कि आप संस्मरण लिखते-लिखते किसी डाक्युमेंट्री फिल्म की पटकथा न लिखने लगें. मेरे इस यात्रा संस्मरण में कई ऐसे पड़ाव आए जब स्वयं को दोनों में तारतम्य बैठाने में बहुत मानसिक संघर्ष करना पड़ा. एक ओर भावनाएं हिलोरें मार रहीं थी अपने हर अनुभव किए हुए क्षण को पूरे वेग से बाहर निकालने के लिए तो वहीं दूसरी ओर यह भी दबाव था कि कहीं मेरा सब लिखा कल्पनाशीलता की भेंट न चढ़ जाये. भावुकता और तार्किकता दोनों विरोधाभाषी हैं और दोनों को साधते हुए अपना लेखन करना वाकई चुनौतीपूर्ण होता है.

[डॉ.जयशंकर शुक्ल] 21: आपने लेखन को क्यूँ चुना?

[अरविन्द] – जी मैंने लेखन को नहीं चुना अपितु यह तो मेरे अंदर ही बसा था बस अपने सही समय आने पर यह दृष्टिगोचर हुआ. आस-पास इतना कुछ घटित होता रहता था कि उन सबको अपने अंतर्मन में समेट कर रखना मुश्किल होने लगा था. अंदर ही अंदर चलने वाला विचारों के झंझावातों को थामना कठिन होने लगा था. विचारों और भावों को किसी भी रूप में बाहर आना ही था और मैं स्वयं भी इन्हें बहार लाने को व्यग्र था. मुझे नहीं लगता कि अधिकतर घटनाएं जो मैंने देखि, मेरे साथ घटित हुई वह मेरी व्यक्तिगत थी. कही न कहीं वह ऐसी परिस्थितियां थीं जो सभी के जीवन में आती हैं, किसी की पहले तो किसी की बाद में बस उनके परिमाण का प्रभाव अलग-अलग होता है और उनको अनुभव करने का समझने का अपना-अपना फेर. तो सोचा क्यूँ न अपने अनुभवों को किसी न किसी रूप में लिख कर बाहर निकालूँ ताकि देख सकूँ कि अन्य लोग भी इससे अपने अप को जोड़ पाते है अथवा नहीं. 

डॉ.जयशंकर शुक्ल] 3: वो कौन से कारण हैं जिन्होंने आपको लेखन की ओर प्रेरित किया?

[अरविन्द] – कारण? सच कहूँ तो मुझे स्वयं नहीं पता  कि कोइ ऐसा विशेष कारण रहा है जिसने मुझे लेखन के लिए प्रेरित किया . मेरा लेखन अनायास नहीं रहा अपितु यह मेरी दिनचर्या का एक भाग रहा है, जीवन जीने का एक तरीका रहा है. हाँ, पारिवारिक, सामाजिक परिस्थोतियों नें, जीवन की कठिनाईयों नें अंदर बैठे लेखक को हमेशा एक नया आयाम दिया, दिशा दी. बीतता समय और प्राप्त होने वाला अनुभव मेरे लेखन को परिष्कृत करता रहा. मैं बचपन में बहुत अन्तर्मुखी व्यक्तित्व का था. अपने आस-पास के वातावरण  को देखना , सुनना  और उनका विश्लेषण करना मेरी आदतों में शुमार था. और इसी क्रम मन मैं स्वयं से वार्तालाप करता रहता था  और यही वार्तालाप कालान्तर में आत्ममंथन में, आत्मचिंतन में बदलता गया जो आज भी निर्बाध जारी है. मेरी इन्हीं आदतों में उत्प्रेरक का कार्य मेरे माता-पिता ने किया. इन दोनों को ही पुस्तकें, पत्र-पत्रिकाएं पढने का शौक था और मैं भी इस प्रभाव से बच नहीं सका. फलतः मेरे लिए भी पत्रिकाएं घर में नियमित रूप से आने लगीं. यहीं से मेरी जुगलबंदी शुरू हो गई पढने की, मंथन की, चिंतन की. अन्तर्मुखी स्वाभाव का होने के कारण अपनी बातों को सबसे करने की बजाए मैं उन्हें अपने ज़ेहन में ही मथता रहता था, विश्लेषण करता रहता था. एक दिन ऐसी ही कुछ बातों को मैंने अपनी डायरी में लिख दिया, तब शायद सातवीं कक्षा में था. संभवतः मेरा वह लेखन की दुनिया में पहला कदम था. फिर तो बस यह श्रृंखला नदी की धारा के समान अनवरत चलती रही, बहती रही और अनेक उतार-चढ़ावों से मार्गों से गुज़रती आज भी अग्रसर है.

इससे इतर एक बड़ी बात की कई बार आप अपने विचारों को, बातों को प्रकट करना चाहते हैं, उसे किसी के साथ बाँटना चाहते हैं पर हर बार आपको आपकी बातें बाँटने वाला, समझने वाला मिल जाये संभव नहीं. मिल भी गया तो वह उन मनोभावों से एकाकार या सहमत हो जायेगा कुछ कह नहीं सकते. बहुत सी कठिनाइयां होती हैं. तो ऐसे में लेखन ही एक माध्यम निकलकर सामने आता है जहाँ आप सब कुछ कह सकते हैं, व्यक्त कर सकते हैं, स्वयं से बातें कर सकते हैं. इसके साथ ही जैसे-जैसे समय बीतता गया सामाजिक, पारिवारिक और व्यक्तिगत जीवन में इतने संघर्षों से गुज़रा कि वह आंतरिक उद्धेलन का रूप लेता रहा  और जब यही उद्धेलन, विचार्रों का संघर्ष ह्रदय और मस्तिष्क को झंझोड़ने लगता है और जब भावनाओं का ज्वार रक्त को उष्ण करने लगता है तो अंदर बैठा रचनाकार कुछ रचने को सजग हो ही जाता है.  

[डॉ.जयशंकर शुक्ल] 25: वह कौन सी परिस्थितियां हैं जो आपको लिखने के लिए विवश करती हैं?

[अरविन्द] – जो भी स्थितियां सामान्य साँसों को दीर्घ उच्छ्वास में बदल दें, उनकी उष्णता और शीतलता को नियंत्रित करने लगें, जिनसे शिराओं में बहने वाला रक्त कभी उबल जाए या शनैः शनैः ठण्डा पड़ता जाए, जो कभी आँखों में शून्य भर दे तो कभी पानी, जो धडकनों के स्पंदन को महसूस करने लगे. ये सभी स्थितियां ही आंतरिक उद्धेलन और छटपटाहट को बढाती हैं, सोचने को विवश कर देती हैं, विचारों का बहाव तीव्र गति से होने लगता है जो अंततः कुछ लिखने की मनोदशा में स्वयं को पहुँचा ही देता है. यह तो रही वह स्थितियां जब लिखने का भाव बहुत तेज़ी से आरोपित होता है पर इससे अलग  विचारों में , मन के कोने में दबी पड़ी टीस, उत्तेजना या अपार सुख के क्षण, अपने संघर्ष मुझे लिखने पर विवश कर देते हैं.

डॉ.जयशंकर शुक्ल] 26: अरविन्द जी, लिखकर आपको कैसा महसूस होता है?

[अरविन्द] – आप ने तो मुझे संशय में डाल दिया. मैं सोचने की कोशिश कर रहा हूँ कि किस तरह से आपके प्रश्न का उत्तर दूँ. सीधे सरल शब्दों में कहूँ तो बहुत संतुष्टि मिलती है. यह संतुष्टि डॉ चक्रों में होती है. एक तो तब जब मई लिख चुका होता हूँ तब बहुत हल्का महसूस करने लगता हूँ. पन्नों पर लिखे शब्द भावनाओं का दर्पण होते हैं और उनमें ही स्वयं को निहारा करता हूँ.दूसरा संतुष्टि का चरण तब जब गाहे-बगाहे अपनी ही रचनाओं को एक पाठक की हैसियत से पढता हूँ और महसूस करने का प्रयास करता हूँ कि क्या इनमें लिखे शब्द उन भावों को मेरे अंदर जगा पा रहे हैं या नहीं जिनके वशीभूत होकर मैंने उस रचना को लिखा था. यकीन मनोए उन रचनाओं को पढ़कर जब मैं पुनः उसी मनोदशा में स्वयं को पाता हूँ तो वह मेरी आत्मसंतुष्टि का अव्यक्त भाव होता है.मैं अपने लिखे हुए में स्वयं या व्यक्तिगत भाव से अधिक जन सामान्य के भावों को देखना चाहता हूँ और महसूस भी करना चाहता हूँ और कहीं न कहीं इस तृष्णा से ग्रसित भी कि अगर पाठक इन रचनाओं में स्वयं को नहीं देख पाया तो क्या? कितनी ही बार ऐसे पल आए हैं जब लोगों ने प्रत्यक्ष, फ़ोन पर या चिट्टी के माध्यम से अपने विचार, भाव व्यक्त किए. वो व्यथित थे, भावुक थे, उत्तेजित भी कि ये रचनाएं उनको उस जगह लेकर चली गई जिसे वह विस्मृत कर चुके थे. कुछ ऐसे भी थे कि रचनाओं को पढने के बाद कुछ नहीं कहा सिर्फ़ मौन रहे. उनकी आँखों ने सत्य की व्याख्या स्वतः कर दी थी. ऐसा नहीं कि मेरी रचनाएँ अत्यंत उच्च कूटी की हैं या मेरा लेखा इतना उत्कृष्ट है कि वह लोगों को अपने पाश में बाँध लेता है. यह तो व्यक्ति विशेष के अपने अपने भाव और स्थितियां हैं कि वह रचनाओं में व्यक्त मर्म को कितना आत्मसात कर पाता है और वह लिखा हुआ उसके कितना समीप है. पर हाँ जब मुझे मेरी रचनाओं के बारे में ऐसी प्रतिक्रिया मिलती है और जब कुछ ऐसे क्षण आते हैं तो वह आत्मसंतुष्टि का चरम होता है, लगता है कि लेखन का अभीष्ट पूर्ण हुआ. पर अपने आपको प्रासंगिक बनाए रखने की एक बड़ी जिम्मेदारी का एहसास भी और यह भी कि अपने लेखन को अगले पायदान तक कैसे ले जाया जाए.


डॉ.जयशंकर शुक्ल 27: आपने क्या-क्या पढ़ा है? किनसे प्रभावित हैं? और क्यों प्रभावित हैं?

[अरविन्द] – पढना मेरे लिए एक सतत प्रक्रिया है. लेखन और अपने ऑफिस के कार्यों के बीच से समय निकाल कर पड़ता ही रहता हूँ.पढने के लिए मैं विधा विशेष, लेखक विशेष, धारा विशेष का अनुयायी नहीं हूँ. वैसे मैं पुस्तक पढने के मामले में बहुत ही सेलेक्टिव हूँ. किसी भी रचना या रचनाकार को ऐसे नहीं पढ़ लेता जब तक कि मुझे उस रचना में कोई तत्व दृष्टव्य नहीं होता. बस इतना समज लीजिए कि जब भी ऐसा कुछ भी नज़रों के सामने आता है तो अपना ध्यान वह स्वयं ही आकृष्ट कर लेता है. पढने की बात कर्रों तो जैसा कि मैंने कहा कि मेरी कोई नितोजित धारा नहीं है. मैं भगवत गीता और उसके कई अलग-अलग संस्करणों को पढ़ चुका हूँ. वैदिक शोल्क, आत्म संस्मरण, यात्रा वृत्तान्त, आलोचनात्मक लेख पढना मुझे विशेष रूप से प्रिय है. कहानियों और उपन्यासों में मैं प्रेमचंद को आदर्श मानता हूँ.  प्रेमचंद की बारें में तो मई पुस्तक मेलों और ऑनलाइन स्टोर्स पर तो कुछ न कुछ खोजता ही रहता हूँ. प्रेमचंद को पढना, प्रेमचंद के बारे में पढना और उनके विचारों को जानना मेरी प्राथमिकता में है. कवियों में दिनकर और हरिबंश राय बच्चन मुझे प्रिय हैं.इसके अतिरिक्त पौराणिक गाथाएँ (गल्प नहीं) मुझे आकर्षित करती हैं. प्रेमचंद की कहानियां, उनके विचार आम जन से जुड़े हैं जो वो जीते हैं, अनुभव करते है वह सब प्रेमचंद के लेखन के एक-एक शब्द में परिलक्षित होता है. इतना सादगी पसंद, अभावग्रस्त व्यक्ति, इतना महान रचनाकार, अद्भुत है उनको जानना पढ़ना. इसी क्रम में मैं शैलेश मटियानी को भी विशेष क्रम में रखता हूँ. दिनकर और हरिबंश राय बच्चन के गीतों में जीवन की आशा दिखाई देती है. विश्वनाथ जी के संस्मरण जिस सादगी से आपको अपने लोक में लेकर चले जाते हैं वह अलग ही अनुभव है. राहुल संकृत्यायन, मोहन राकेश के यात्रा वृत्त के बारे में कुछ भी कहना सूर्य को दीपक दिखाना है. अमृता प्रीतम, मन्नू भंडारी और शिवानी की रचनाएं भी मुझे पसंद है.

तो बात यह रही कि अगर मैं प्रेमचंद को अपवाद माँ लूँ तो मैं व्यक्ति केन्द्रित नहीं हूँ वरन रचना केन्द्रित हूँ. हो सकता है कि अत्यंत प्रतिष्ठित रचनाकारों की सभी रचनाएं मुझे उतना आकर्षित नहीं कर पाती जितना की उनकी कुछ रचनाएँ. इसलिए सभी के बारे में स्पष्ट कह पाना संभव नहीं है मेरे लिए.


डॉ.जयशंकर शुक्ल 28: आप किस पुस्तक को अधिक पसंद करते हैं और क्यों?

[अरविन्द] – जी किस पुस्तक का नाम लूँ समझ नहीं में आता. कोई एक-दो हों तो बताऊँ भी. यहाँ तो बहुत से ऐसे नाम हैं जिनसे मेरा जुड़ाव बहुत गहरे तक है. पर हाँ कुछ पुस्तकों का नाम जरूर लेना चाहूँगा जिन्होंने मेरे जीवन की दिशा और दशा भी बदली और साथ-साथ मेरे अंदर आशा और उत्साह का भी संचार किया. क्रमशः कुछ पुस्तकों के बारे में अपने विचार अवश्य रखूँगा.

भगवद गीता जो अपने आप में ही समस्त ज्ञान का मूल है. इसको पढ़ना मुझे सर्वप्रिय है. जितना भी पढता हूँ जीवन को उतना ही समझता जाता हूँ.

Who moved my cheese by Dr. Spenser Johnson एक अत्यंत प्रेरणाप्रद पुस्तक जिसनें मुझे ऐसे समय सम्हाला जब मैं भटक सकता था, टूट सकता था. इस पुस्तक ने जीवन को एक नए नज़रिए से देखने का रास्ता सुझाया.

हरिबंश राय बच्चन द्वारा संकलित मेरी श्रेष्ठ कविताएँ. इस पुस्तक में कई गीत ऐसे हैं जो मेरे लिए प्रेरणा श्रोत हैं.

विश्वनाथ त्रिपाठी द्वारा रचित नंगातलाई का गाँव. जिसमें संस्मरण, जीवन वृत्त के माध्यम से गावों और वहाँ की दशा और रहन-सहन का स्वाभाविक और अद्भुत चित्रण.

दिनकर कृत रश्मिरथी. कर्ण, परशुराम और कृष्ण के संवाद जिस शैली में लिखे गए हैं वह जोश और उत्तेजना का संचार तो करते ही हैं साथ हे जीवन मूल्यों और संघर्षों से जूझने का पाठ भी.

दिनकर जोशी द्वारा रचित पौराणिक उपन्यास श्याम फिर एक बार तुम मिल जाते.  यह मात्र कपोल कल्पना पर आधारित उपन्यास नहीं हैं अपितु धर्म ग्रंथों पर आधारित  कृष्ण के जीवन संघर्षों और उनके घनिष्ठ सम्बन्धियों का उनके अवसान पश्चात की पीड़ा का प्रायश्चित पूर्ण विलाप है. इन सभी बातों को उपन्यास में जिस प्रामाणिकता के साथ व्यक्त किया गया है वह श्लाघनीय है. यह उपन्यास मूलतः बंगला में लिखा गया था.

The waiting of Mahatma by K.R. Narayanan महात्मा गांधी के स्वतंत्रता आन्दोलन को केंद्र में रखकर रचा गया प्रेम पर आधारित उपन्यास जिसमें स्वंतत्रता आन्दोलन और उससे जुड़ी घटनाओं के बीच नायक और नायिका के मध्य प्रेम किस तरह अंकुरित होता है और धीरे -धीरे आगे बढ़ता है यह पढना आश्चर्य है. आज के परिप्रेक्ष्य में प्रेम को इतनी पराकाष्ठा पर ले जाकर जिस तरह से व्यक्त किया गया है वह रचनाकार के अद्भुत दृष्टिकोण को दिखता है.

दुर्गा प्रसाद शुक्ल द्वारा लिखित तेनजिंग नोरगे. प्रथम एवरेस्ट विजेता शेरपा तेनजिंग नोरगे की आत्मकथा दुर्गाप्रसाद जी की जबानी. अत्यंत अभावों में पीला व्यक्ति की एवरेस्ट को फतह करने के संघर्षों की जीवत गाथा.

राहुल संकृत्यायन कृत वोल्गा से गंगा, अज्ञेय द्वारा रचित एक बूँद सहसा उछली और मोहन राकेश कृत आख़िरी चट्टान तक ऐसे यात्रा वृत्त और संस्मरण हैं जो जिन्हें बार-बार पढने का मन करता है.

डॉ.जयशंकर शुक्ल 4: आप पेशे से इंजीनियर हैं. एक इंजीनियर यंत्रों के साथ खेलता है.लेखन में इसे कैसे व्यवस्थित कर पाते हैं ?

[अरविन्द] – यह एक बहुत ही स्वाभाविक प्रश्न है जो अक्सर मुझसे पुछा जाता है. कई बार तो आश्चर्य मिश्रित हर्ष के साथ कि कैसे एक इंजीनियर साहित्य की तरफ मुड़ गया? क्यों भी ऐसा क्यूँ नहीं हो सकता? क्या एक इंजीनियर मनुष्य होने के गुणों से वंचित होता है? क्या वह अन्य व्यक्तियों की तरह भावनाओं से युक्त नहीं होता? वैसे भी मैं एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर हूँ. यंत्रों के साथ-साथ प्रोग्रामिंग लैंग्वेज और सॉफ्टवेयर का आर्किटेक्चर डिजाईन करना मेरा कार्य है या आपके शब्दों में कहूँ तो मेरा खेल है. सोचना मुझे वहाँ भी पड़ता है (अपने कार्य में) और यहाँ भी (साहित्य में). तो इस प्रकार दोनों ही मेरे लिए खेल ही हुए बस तरीका और वातावरण अलग है, ध्येय अलग है. वो अलग बात है कि लेखन के लिए व्यक्ति में जिन आधारभूत गुणों को होना चाहिए उसका अंश कहीं न कहीं बचपन से ही मुझमें अंकुरित होता रहा है. इस नाते टेक्नीकल पृष्ठभूमि का होने के कारण भी मेरा लेखन प्रभावित नहीं हुआ, इसके उलट यह और भी परिष्कृत  हुआ है, मेरे लेखन को फैलाव मिला है, नज़रिए को नया धरातल मिला है. लेकिन हाँ इतना है कि दोनों परस्पर विरोधाभासी क्षेत्र हैं. एक तथ्य पर चलता है तो दूसरा भावनाओं और विचारों पर. एक मेरी आजीविका का साधन है तो दूसरा मेरे विचारों और भावों का वाहक.बस यही सीमाएं ही मुझे अपने दोनों सरोकारों को एक साथ लेकर चलने की अनुमति देती हैं. 

[डॉ. शुक्ल] 5: क्या आपको कभी महसूस होता है कि आप शब्दों से खेलते हैं? या शब्द आपके साथ खेलते हैं?

डॉ.जयशंकर शुक्ल – मेरे विचार से किसी भी लेखक के लिए लेखन एक संघर्ष की प्रक्रिया है. संघर्ष उसके विचारों के आलोड़न की, संघर्ष उन विचारों को, भावों को सार्थक दिशा देने की और संघर्ष उन सभी को शब्दरूप देने की. हमनें सोच तो लिया कि क्या लिखना है? किस विधा में लिखना है पर बात वहाँ आकर अटकती है कि आखिर सोचे हुए को लिखा कैसे जाए? कैसे उन शब्दों का वाक्यों का चुनाव किया जाए जो आपके विचारों का अक्षरशः निरूपण कर सके उनको अर्थ दे सके.और यही वः बिंदु होता है जहाँ से शब्दों का खेल आरम्भ होता है. कई बार विचार स्पष्ट होते हैं और ऐसे में शब्द आपसे क्रीड़ा करते हैं, वो अलग-अलग रूपों में आकर आपको आकर्षित करते हैं, भ्रमित करते हैं. आपको उनमें से अपने अभीष्ट का चुनाव करना होता है. कभी-कभी यह प्रक्रिया वैचारिक उहापोह का रूप ले लेती है. वहीं जब आप विचारों की अस्पष्टता से जूझ रहे होते हैं तो आप शब्दों के पीछे भागते हैं, उनको तोलते हैं, परखते हैं कि शायद वो शब्द आपके अस्पष्ट विचारों को सार्थकता दे दें, दिशा दे दें. यह क्रम चलता रहता है. रचनाकार और शब्दों के बीच का यह खेल सामान्य है जो परिस्थितियों के अनुसार अपना पाला बदलता रहता है. कभी रचनाकार शब्दों से अठखेलियाँ करता है तो कभी शब्द रचनाकार को भरमाते हैं, आकर्षित करते हैं. पर इन सब का लक्ष्य एक ही होता है, विचारों और भावों को शब्दरूप देना. एक सार्थक शब्दरूप जो रचनाकार और पाठक दोनों के विचारों को संतुष्टि दे सके, पोषित कर सके. 

[डॉ.जयशंकर शुक्ल 6: आप रचनाकार हैं और रचनाकार का आभासी दुनिया से बहुत करीब का सम्बन्ध होता है. क्या इसे आप महसूस कर पाते हैं?

[अरविन्द] – वह रचनाकार ही क्या जो कल्पनाशील न हो. कल्पना ही रचनाकार को विस्तृत आकाश देती है जिससे वह अपने मनोभावों के पंखों पर सवार होकर स्वछंद विचरण कर सके, अपनी कल्पनाओं में रंग भर सके. पर मेरी समझ में यह मात्र कोरी कल्पना नहीं होनी चाहिए. रचनाकार को वास्तविकता का दामन कदापि नहीं छोड़ना चाहिए. कम से कम इतना तो हो कि वह कल्पना भी वास्तविकता का विस्तृत रूप हो और कहीं न कहीं उन घटनाओं से सम्बद्ध हो जिसको आप व्यक्त करना चाहते हैं. अब रचनाकार के लिए हर घटना प्रत्यक्ष नहीं हो सकती. हो सकता है कि वह कुछ का प्रत्यक्षदर्शी भी हो, उनको साक्षात् अनुभव भी किया हो पर बाकी कि सम्बंधित घटनाओं या भावों के निरूपण के लिए वह कल्पना के सहारे उस आभासी दुनिया को जीता है , महसूस करता है, उन सब घटनाओं को फिर से अपने कल्पनालोक में दोहराता है ताकि वह अपनी रचना के लिए एक पृष्ठभूमि तैयार कर सके. रचनाकार कल्पना से बच नहीं सकता और बचना भी नहीं चाहिए. सबसे बड़ी बात कि अगर रचनाकार वास्तविकता से परे भी कुछ लिखता है तो भी उसे अपनी आभासी दुनिया निर्मित करनी ही पड़ेगी जहाँ वह अपनी स्वगठित कल्पनाओं को अपनी आभासी दुनिया में घटित होते देख सके और उनको अपनी रचना में पुनर्जीवित कर सके. मेरी समझ में बिना आभासी दुनिया को रचे रचनाकार अपनी रचना के साथ कतई न्याय नहीं कर सकता. अब यह उस पर निर्भर है कि वह आभासी दुनिया से वास्तविक दुनिया को कितना साध पाता है.

डॉ.जयशंकर शुक्ल 7: आपको गद्य लिखने में जादा सुविधाजनक लगता है अथवा पद्य? क्यों?

[अरविन्द] – गद्य और पद्य दोनों कि अपनी सरलताएं और जटिलताएं है. एक तरह से देखा जाये तो गद्य लिखना बहुत सरल लगता है. किसी भी बात को, घटना को बस लिखते जाना है जितना आप सोच सकें और तथ्यों के साथ अपनी बात को कह सकें बिना मात्राओं, वर्णों के नियमन के, बिना किसी अन्य नियम से बंधे. बस लिखते जाना है. पर क्या यह वाकई में इतना सरल है जितना दिखता है? नहीं, कदापि नहीं. इस सरलता में भी जटिलता निहित है. गद्य रस, छंद, अलंकार, लय से परे है और इसकी सम्भावना भी बहुत क्षीण है पर आप सोचकर देखिये कि बिना किसी नियमन और रस, छंद, अलंकार, लय से रहित होते हुए आप किसी गद्य रचना को प्रभावी और रुचिकर कैसे बना सकते हैं? कैसे एक पाठक गद्य में भी कविता जैसा आनंद ले सकता है? निःसंदेह यह चुनौतीपूर्ण है. इसके लिए विषय की सार्थकता, स्पष्टता, तथ्य, भाषा प्रवाह, उसकी कसावट, विश्लेष्णात्मक अध्ययन और अपनी बातों को  सही परिप्रेक्ष्य में रखने की कला चाहिए. यह कतई सरल नहीं है किसी भी रचनाकार के लिए. एक अच्छा गद्य बिना इन गुणों को आत्मसात किए हुए नहीं लिखा जा सकता है.

दूसरी ओर काव्य तो रस, छंद, अलंकार, यति, गति, लय और भाव पर निर्भर है.अपनी रचना में यदि रचनाकार इनमें से कुछ को भी साध ले तोहै कम से कम वह पठनीय अवश्य हो जाता है. पाठक कहीं न कहीं उनमें अपनी संतुष्टि कर ही लेता है. यहाँ तथ्य और उनका विश्लेष्णात्मक अध्ययन उतने मायनें नहीं रखते जितना भाव और लय. पर यह कार्य भी चुनौतीपूर्ण तब हो जाता है जब आप साहित्य को कुछ उत्कृष्ट देना चाहते हैं. काव्य मात्र लय, यति, गति का ही आकांक्षी नहीं है  अपितु यह उन सभी गुणों की माँग करता है जो रचनाओं को काव्य की कसौटी पर कस सकें उनको पूर्णता दे सके. छंदबद्ध काव्य की अपनी दुरुहता है. मात्राओं, वर्णों, छंदों के नियम का पालन करते हुए, लय, यति, गति को साधते हुएअपने भावों को सरल शब्दों में प्रभावी तरीके से व्यक्त करना कोइ सरल कार्य नहीं है.

अगर मैं अपनी बात करूँ तो दोनों ही मेरे लिए सरल नहीं हैं. जितना प्रयत्न मैं गद्य लिखने में करता हूँ उतना ही काव्य के लिए भी. पर भी मेरे विचार में गद्य लिखना पद्य की तुलना में थोड़ा सा सरल है पर उसकी स्वीकार्यता बनाए रखना उतना ही कठिन.

डॉ.जयशंकर शुक्ल 8: आपकी अब तक दो किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. क्रमशः उन पुस्तकों के विषयवस्तु पर प्रकाश डालेंगे? 

[अरविन्द] – जी मेरी दोनों ही पुस्तकें छंदमुक्त (गद्य गीत) कविताओं का संकलन हैं. प्रथम पुस्तक ‘अनकही अनुभूतियों का सच’ 2017 में अंजुमन प्रकाशन, इलाहाबाद से प्रकाशित हुई थी. इस पुस्तक में मेरी 52 कविताओं का संकलन हैं जो विभिन्न विषयों पर केन्द्रित है. इन विषयों में समाज, किसान, व्यक्तिगत सम्बन्ध, प्रकृति, गाँव, मजदूर, बच्चे आदि बहुत कुछ है. मैंने बचपन से जो भी देखा, जिया और भोगा, उन सब का लेखा-जोखा, सारांश हैं ये कविताएँ. एक तरह से कहूँ तो बचपन से, जब से मैंने लिखना प्रारम्भ किया था और इस पुस्तक के प्रकाशित होने तक के अंतराल का मेरा जीवन वृत्त है ये कविताएँ.यह अंतराल करीब 15 वर्षों का रहा और इस दौरान जो भी घटा, देखा कहीं न कहीं इन कविताओं की पंक्तियाँ बन गईं.

दूसरी पुस्तक ‘वो कहते हैं’ अभी हाल में ही (मई 2019) में आस्था प्रकाशन नागपुर से प्रकाशित हुई है. प्रथम पुस्तक की भंन्ति यह भी छंदमुक्त (गद्य गीत) कविताओं का संकलन ही है. इस पुस्तक में करीब 34 कविताएँ संकलित हैं. स्पष्ट रूप से मैंने इसमें उन विषयों को रखा है जिनसे मेरा साक्षात्कार इस अंतराल में हुआ. आपको दोनों पुस्तकों में कुछ विषयों में समानता दिख सकती है पर उनके भाव और उनका निरूपण बदले हुए काल और बदले हुए परिप्रेक्ष्य में है.एक तरह से कहूँ तो यह मेरी नई दृष्टि है इस मध्य बदले हुए हालात में और समय में.पर हाँ केंद्र में समाज, किसान, व्यक्तिगत सम्बन्ध, प्रकृति, गाँव, मजदूर, बच्चे आदि यहाँ भी हैं. दोनों पुस्तकों में संग्रहीत कविताओं के विषय हमारे ही अस पास के वातावरण की बानगी हैं. जो कुछ भी घटित होते देखा, समझा, अनुभव किया  और जिस घटना ने जितना मन को  मथा, व्यथित किया उनको बस लिखता रहा. मेरी सभी अव्यक्त भावनाओं का लिखित दस्तावेज हैं ये दोनों पुस्तकें, बस इतना ही कहूँगा.

डॉ.जयशंकर शुक्ल 9: अरविन्द जी, साहित्य की इस दुनिया में आपने बहुत कुछ पाया है और समाज को दिया भी है. क्या इन दोनों के बीच कुछ खोया भी है? इसे कैसे व्यस्थित कर पाते हैं?

[अरविन्द] – एक बड़ा प्रश्न पूछा है आपने. मैं इसका उत्तर संक्षेप में देने का प्रयास करूँगा. यह सच है कि साहित्य से मुझे बहुत कुछ मिला है और जो भी मिला है अलग-अलग रूपों में, अलग-अलग माध्यमों से. सबसे बड़ी चीज़ जो मुझे साहित्य से मिली वह है ‘आत्मबल’. अब आप कहेंगे कि कैसा ‘आत्मबल’? ये ‘आत्मबल’ मिला है मुझे कविताओं से, लेखों से, जिनसे मैं गुज़रा, जिनको मैंने पढ़ा और जिनसे मुझे संबल मिला, जीवन जीने की दिशा मिली, अपनी सोच को विस्तृत रूप देने का मज़बूत आधार मिला. जो कहीं न कहीं मेरे अंदर सही मायनों में मनुष्यता का संवाहक भी रहा है और उनका पोषक भी. इससे इतर मुझे और जो कुछ विशेष मिला है वह है ‘आप जैसे लोग’. सच मानिए इस साहित्य में मुझे कुछ ऐसे विभूतियों का साथ मिला जो मेरे साथ किसी भी तरह का सम्बन्ध न होते हुए भी  चाहे वह व्यक्तिगत हो या साहित्यिक और न ही मैं कोई इतना बड़ा विद्वान या व्यक्तित्व कि लोग मुझे समय देते, इसके बावजूद आप और उन सब लोगों ने मुझ नवागुंतक को जो स्नेह, सम्मान और ज्ञान का आशीर्वाद दिया वह तथाकथित अपने कहे जाने वालों से उम्मीद करना भी दिवास्वप्न ही होगा. साहित्य ने मुझे जो भी दिया ही उन सब में यही मेरी धरोहर भी है और पूँजी भी. सत्य कहूँ तो इससे अधिक की आकांक्षा भी नहीं है.

रही बात समाज को देने कि तो मैं यह कहने की स्थिति में कतई नहीं हूँ कि मैंने क्या दिया है? मुझे नहीं लगता कि मात्र पुस्तकें लिख भर देने से किसी का कोइ योगदान हो जाता है जब तक वह कुछ सार्थक न हो और यह सार्थक है अथवा नहीं यह पाठक वर्ग ही तय कर सकता है. अतः मैं इस निर्णय का दायित्व आप जैसे साहित्य मनीषियों और पाठक वर्ग पर ही छोड़ता हूँ.

‘क्या खोया है मैंने’? यह प्रश्न गौड़ है उन उपलब्धियों के सम्मुख जो मैंने अभी आपसे कहे.पर इतना तो है कि जिस तरह का कार्य क्षेत्र है मेरा उसमें से साहित्य के लिए समय निकालना बहुत ही चुनौतीपूर्ण है. एक सीनियर सॉफ्टवेयर आर्किटेक्ट होने के नाते मुझे नई-नई तकनीकों के बारे में पढना पड़ता है, सीखना पड़ता है और सबसे बड़ी बात कि उनको कब, कैसे, कहाँ प्रयोग में लाया जाए यह सब निर्णय करना पड़ता है. इन सब के लिए आपको अनवरत पढना ही पड़ेगा. ऐसे में आप ही सोचिए कि साहित्य के लिए मनोदशा और समय कहाँ से लाऊँ और इसी में आपके प्रश्न का उत्तर निहित है कि क्या खोया है मैंने? या क्या खोता हूँ? कई बार रातों को जागता हूँ कि कुछ सोच सकूँ, लिख सकूँ. ऑफिस से आना-जाना हो या कहीं किसी यात्रा के दौरान अपने समय का सदुपयोग लिखने में करता हूँ या लिखने की भूमिका की मनोदशा बनाने में.कई बार घर या ऑफिस में जब सब बाकी चीज़ों या पार्टियों का आनंद ले रहे होते हैं तो मैं कहीं कुछ सोच रहा होता हूँ. सबके साथ रहकर भी सबसे अलग रहता हूँ और इन सब के मध्य पत्नी, बच्चों और घर के दायित्व का भी निर्वहन करना होता है. कई बार लगता है कि जैसे मैं इन सब के मध्य अपनी कुछ पारिवारिक जिम्मेदारियां उतनी तन्मयता से नहीं निभा पा रहा जितनी तन्मयता से निभानी चाहिए. ऐसे ही और भी कई ऐसी बातें हैं जहाँ कुछ न कुछ खोने, छोड़ने और छूटने का एहसास तो होता ही है. लेकिन इन सब के बावजूद जब आपका ही परिवार आपके लिखे हुए को देखकर प्रशन्न होता है तो आप सब कुछ पा लेते हैं, जब कोइ आपकी कविता या लेख पढ़कर प्रसन्न भाव से आपसे बात करता है तो खोया हुआ सब लौट आता है. कितनी बार ऐसा हुआ है कि लोगों ने मेरी कविताएँ पढीं और जिस तरह से उनकी प्रतिक्रिया उनकी भीगी पलकों में दिखी, उनकी शांत और गहरी साँसों में परिलक्षित हुई वह संतोष अवर्णनीय है. ऐसे में  कुछ खोने की बात ही कहाँ रह गई. जो भी है बस पाया ही है. इतना ही कहूँगा कि बिना पारिवारिक संबल के कार्य और साहित्य को एक साथ लेकर चलनामेरे लिए हमेशा ही कठिन रहा है पर इन कठिनाईयों के साथ आगे बढना उतना ही प्रिय भी.

डॉ.जयशंकर शुक्ल 10: आपके प्रकाशित साहित्य के अतिरिक्त अप्रकाशित साहित्य के रूप में कितना कुछ प्रतीक्षा में है? वो आकार ले पाया या आपके विचारों, मस्तिष्क में है?

[अरविन्द] – सृजनधर्मिता रचनाकार का स्वाभाविक गुण है और मैं भी इससे अछूता नहीं. यहाँ पर मेरे साथ विशेष बात यह है कि जितना मैं स्वयं अपने लेखन और अपने भावी कार्यक्रमों के बारे में नहीं सोचता उससे अधिक मेरे शुभचिंतक मेरे लिए सजग रहते हैं. मेरे प्रेरक व्ही सब हैं.आज तक मुझे नहीं जान पड़ता कि मैंने अपने लिए कोई रूपरेखा बनाई हो. मेरे अग्रज, शुभचिंतक  उन रूपरेखाओं से मुझे पहले ही अवगत करा देते हैं, मेरे मस्तिष्क में आरोपित कर देते हैं.यहाँ तक कि मेरी प्रथम पुस्तक का प्रकाशन भी स्वयं मेरी सोच नहीं थी और न ही दूसरी पुस्तक की भी. अप्रकाशित साहित्य की बात करूँ तो ज़ेहन में बहुत कुछ है. कुछ पर तो मैंने कार्य भी प्रारम्भ कर दिया है, कुछ पर मंथन चल रहा है और बाकी को भविष्य के लिए छोड़ रखा है.गद्यगीत संग्रह तो आपके सम्मुख है. यात्रा संस्मरण भी पूर्ण ही है. भावी कार्यकर्म की बात करूँ तो डॉ एनी यात्रा संस्मरणों की पृष्ठभूमि तैयार है, गीतों पर भी एक संग्रह निकालने की योजना है. मेरी प्रथम पुस्तक ‘अनकही अनुभुतियों का सच’ पर एक समीक्षात्मक संग्रह भी निकलना है. साक्षात्कार संकलन पर भी मंथन चल रहा है. कहानी लघुकथा का भी प्लाट तैयार है और भी अन्य बहुत से विचार हैं जो भविष्य में समय और काल की परिस्थिति पर निर्भर करेंगे और इस बात पर भी की मैं कितना सीख पाता हूँ और कितना न्याय कर पाता हूँ विधा विशेष से. पर हाँ इतना कह सकता हूँ कि जितना सोचा था और जितना सोच रहा हूँ वह कहीं न कहीं आकर ले चूका है या आकार ले रहा है. बाकी एनी गतिविधियाँ इन सब के समानांतर चलती ही रहती हैं जो निश्चित ही इन परिकल्पनाओं को वास्तविकता प्रदान करेंगी.

डॉ.जयशंकर शुक्ल 11: आपका गद्य लेखन यात्रा संस्मरण से शुरू हुआ है और प्रकाशन से पहले आपकी कविता की दो किताबें आ चुकी हैं. वरीयता क्रम में आप अपने को लेखक मानते है या कवि?

[अरविन्द] – जी देखिए, यह मैं आपसे अभी कुछ देर पहले ही कह चूका हूँ कि रचनाकार को अपने सृजन से जाना, जाना चाहिए न की विधा विशेष के आधार पर. यही बात मैं स्वयं के लिए भी लागू करता हूँ. मैं अपने विचार और भावनाओं को व्यक्त करना अधिक महत्वपूर्ण समझता हूँ, न कि इस बात में की वह किस विधा विशेष में व्यक्त की गई है. विधा विशेष तो विषय, भावनाओं और विचार पर निर्भर करती है कि वह किस सांचे में सरलता और प्रवाहपूर्ण तरीके से ढाली जा सकती है जहाँ उसका इम्पैक्ट अधिक होगा. मैं समीक्षा, गीत, दोहा, आलेख, संस्मरण और अन्य विधाओं में भी लिखता हूँ पर इसका मतलब यह नहीं कि इससे सम्बंधित सारे उपनाम मेरे साथ जुड़ गए मसलन गीतकार, कहानीकार, समीक्षक इत्यादि. मैं मात्र लिखने में विश्वास करता हूँ. अपने विषय को जिस विधा में भी उपयुक्त लगता है उसमें ढालने का प्रयास करता हूँ. अगर मुझमें उस विधा विशेष में व्यक्त करने की क्षमता नहीं है तो या मैं उस विधा का प्रयोग नहीं करता या मई उसको पढ़ने, सीखने का प्रयत्न करता हूँ जब तक, तब तक कि उसके साथ न्याय न कर सकूँ. रही बात वरीयता क्रम की तो जैसा की मैंने कहा कि मैं मात्र रचनाकार हूँ जो अपने विषय के अनुरूप किसी भी विधा का चुनाव करने के लिए स्वतंत्र है न कि कोइ कवि, लेखक या अन्य. कविता संग्रह पहले आना मात्र एक संयोग है मेरे लिए या यूँ कह लीजिए कि दैवयोग से मेरे पास कविता संग्रह के लिए पर्याप्त सामग्री उपलब्ध थी जिससे इसे कविता संकलन का रूप देने में विलम्ब नहीं हुआ.

डॉ.जयशंकर शुक्ल 12: अरविन्द जी, जैसा मैंने पाया है कि आपके गद्य में कविता जैसा लालित्य है.

[अरविन्द] – जी धन्यवाद् (सकुचाते हुए), अगर ऐसा है तो. बाकी इसका निर्णय तो आप या अन्य पाठकगण ही कर सकते हैं. जैसा कि आपने कहा कि मेरे गद्य में कविता जैसा लालित्य है.

डॉ.जयशंकर शुक्ल 13: इस लालित्य को बरकरार रखते हुए आप गद्य की कसौटी को कैसे साध पाते हैं?

[अरविन्द] – जैसा कि आपने कहा कि मेरे गद्य में कविता जैसा लालित्य है, यकीन मानिए मैं ऐसा कुछ भी विशेष नहीं करता. और न ही मैंने कभी इस बात पट गौर किया कि मेरे लिखे हुए में ऐसा कुछ है.मैं अपनी सभी रचनाओं पर बड़े मनोयोग से कार्य करता हूँ, अलग-अलग कोणों से स्वमूल्यांकन भी और इसी कारण मुझे भली भी लगती हैं. मैं उन्हें स्वयं भी पाठक की हैसियत से पढता हूँ. मैंने कई बार आपसे इस बात को दोहराया है कि मेरे लिए रचना में भावों और प्रवाह का होना बहुत महत्वपूर्ण है. रचना कोई भी हो, किसी भी विधा की हो, जब तक पाठक उसे बिना रुके पढता न जाए या वह पूरी रचना को पढ़ लेने को तत्पर न हो तो रचनाकार की रचना अपना प्रयोजन सिद्ध नहीं करती है. मैंने जो भी गद्य अथवा पद्य (किसी भी रूप में) लिखा है उसमें प्रयास यही रहा है कि प्रवाह टूटना नहीं चाहिए. घटनाएँ, तथ्य एक दूसरे से सम्बंधित होने चाहिए, उसमें भटकाव नहीं होना चाहिए. किसी भी व्यक्ति के भाव ही स्वयं में एक कविता है. आप भावनाओं में बहते जाइए, उनको अनुभव करते जाइए कविता की पृष्ठभूमि स्वयं ही निर्मित होती जाएगी. जब यही भावनाएं किसी रचनाकार के ह्रदय और मस्तिष्क जन्म लेती हैं तो आप सोच सकते हैं कि वह अपने मनोभावों को शब्द रूप देने के लिए क्या जतन नहीं करेगा. मेरे साथ भी ऐसा ही है मैं किसी भी अनुभव से गुजरूँ, भावनाओं के किसी भी सरोवर में गोते लगाऊँ,मैं उनको बहुत शिद्दत से महसूस करता हूँ और कोशिश करता हूँ कि उस अवधि में अनुभवों की, भावनाओं की हे छुवन को अपने ज़ेहन में उतार सकूं. कुछ विशेष नहीं करता बस इन्हीं सब को उकेरता जाता हूँ शब्दों से खेलते-खेलते. एक काव्यात्मक, साहित्यिक अपेक्षाओं और नियंत्रण के साथ भावनाओं को जब अपनी रचना के माध्यम से शब्द रूप देते हैं तो निश्चय ही उसमें काव्यात्मक पुट तो रहेगा ही.शायद यही कारण हो कि मेरी गद्य रचनाएं भी इस प्रभाव से अछूती न रह पाती हों. पर इसका आशय यह  नहीं कि गद्य की कसौटी से कोइ समझौता किया जाना चाहिए, कतई नहीं. भावों का निरूपण तो रचना को लोच देता है, पाठक और रचनाकार को करीब लाता है लेकिन तथ्य और विश्लेषण रचना को उसकी सार्थकता प्रदान करते हैं उससे किनारा करना उस रूपसी के सामान है जिसके पास श्रृंगार, सज्जा सब तो है पर आचार-विचार की उत्कृष्टता नहीं. 

डॉ.जयशंकर शुक्ल 14:  यात्रा संस्मरण लिखने से पहले आपने क्या कोई यात्रा संस्मरण की पुस्तक पढ़ी है?

[अरविन्द] – पढ़ना मेरा शौक है और जब भी समय मिलता है अलग-अलग विधाओं में विभिन्न रचनाकारों को पढ़ता रहता हूँ. मेरा स्वयं का छोटा सा पुस्तकालय है जिसमें अलग-अलग विषयों, विधाओं में उत्कृष्ट रचनाएं संग्रहीत हैं. बस मेरे साथ कठिनाई यह है कि मैं ऐसे ही किसी भी पुस्तक को नहीं पढ़ लेता जब तक की उस पुस्तक की विषयवस्तु, भाषा और रचनाकार के बारे में पर्याप्त जानकारी न हो अथवा किसी अन्य व्यक्ति ने उसकी अनुशंसा न की हो. कई बार ऐसा हुआ है कि मैंने जल्दबाजी या अतिरेक में नाम, शीर्षक से प्रभावित होकर कुछ पुस्तकें खरी ली और बाद में निराश होने पर या तो मुझे उसे किसी और को देना पड़ा या फिर रद्दी में प्रयोग हो गईं. अपनी विचारधारा और स्वगठित मानदंडों के अनुरूप ऐसी किसी भी रचना को अपने पुस्तकालय में स्थान देना मेरे लिए संभव नहीं है. कहने का तात्पर्य यह की मैं पुस्तकें खरीदता हूँ, पढ़ता हूँ पर यह प्रक्रिया मेरे लिए सरल सपाट न होकर कठिनाई लिए हुए है. कठिनाई पुस्तकों के चयन की. अन्यथा आप समय लगाकर, पैसे खर्च करके पुस्तकों को पढ़ें और बाद में हर ओर से आपको निराशा ही हाँथ लगे तो बहुत क्षोभ होता है. यात्रा संस्मरण पर कार्य करने की अभिलाषा तो प्रारम्भ से ही थी पर जैसा मैंने आपसे कुछ देर पहले कहा कि मैं किसी भी विधा पर रचना कार्य करने से पहले उससे सम्बंधित जानकारियाँ लेने और पढने का प्रयास करता हूँ कि ताकि आधारभूत जानकारी मिल सके और रचना के साथ भी न्याय कर सकूँ.वैसे भी संस्मरण मेरी प्रिय पठनीय विधा रही है उसमें भी यात्रा संस्मरण तो सर्वप्रिय. यात्रा संस्मारों के लरम में मैंने कई पुस्तकें पढ़ी हैं. जो नाम अभी याद आ रहे हैं उसमें राहुल संकृत्यायन कृत वोल्गा से गंगा, अज्ञेय द्वारा रचित एक बूँद सहसा उछली और मोहन राकेश कृत आख़िरी चट्टान तक , ऋषिराज द्वारा रचित अतुल्य भारत की खोज, नीलेश द्वारा लिखी गई कैलाश मानसरोवर की यात्रा प्रमुख हैं.

डॉ.जयशंकर शुक्ल 15: अपने शीर्ष आपने कैसे गढ़े? इनमें आपने किसी का सहयोग लिया अथवा नहीं?

[अरविन्द] – कोई भी व्यक्ति अपने आप में पूर्ण नहीं होता है. हो सकता है कि वह क्षेत्र विशेष में निपुण हो, पारंगत हो, विशेषज्ञ हो पर तब पर भी यह जरूरी नहीं कि वह उसके हर कोणों से परिचित हो. कुछ न कुछ तो अछूता रहेगा ही. अगर वह अन्य क्षेत्रों में भी अपनी जानकारी रखता है तो भी वह उनका विशेषज्ञ ही होगा इसके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता. कारण की आप कितना भी यत्न कर लें कहीं न कहीं क्षेत्र विशेषज्ञ से पारखियों से आपको को कुछ न कुछ सीखने को अवश्य मिलेगा. यह बात मेरे लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है यहाँ. एक तो मैं ठहरा टेक्निकल पृष्ठभूमि का और साहित्य इन सब से एकदम इतर. ये अलग बात है कि साहित्य में मेरी बहुत रूचि है, पढता भी हूँ पर अब मैं अपने आपको साहित्य का ज्ञाता समझ लूँ, पारखी अथवा विशेषज्ञ तो यह गलत होगा. हो सकता है कि मैं कई दृष्टिकोण से अच्छा होऊँ  पर बहुत सी ऐसी बातें हैं जो अभी जाननी शेष हैं, बहुत लम्बा सफ़र तय करना है अभी तो ज्ञानार्जन हेतु. अब ज्ज़हिर सी बात है कि मुझे आगे की दिशा-दृष्टि के लिए , ज्ञानार्जन के लिए अन्य साधकों का सहारा लेना ही पड़ेगा. मै बुत ईमानदारी से यह स्वीकार करता हूँ कि मैंने सहयोग लिया है और लेता रहता हूँ. भाग्य से संपर्क में आए कुछ विद्वान और सज्जन व्यक्तियों की छत्रछाया में हूँ जिनका मार्गदर्शन, सहयोग और प्रतिक्रियाएं मिलती रहती हैं. अच्छे-बुरे, सही-गलत की समझ विकसित होती है. यहाँ सहयोग का अर्थ यह कतई नहीं लिया जाना चाहिए कि साहित्य के मानदंडों से शिथिलता लेते हुए कुछ अनुचित लाभ लेता हूँ या मिलता है उद्दह्रण के लिए मान लीजिए कि मैंने कुछ भी लिखा और उसके कसीदे मेरे जानने वालों नें पढ़ दिए, कह-सुनकर किसी से भी पत्र-पत्रिकाओं, वेब पोर्टल पर कुछ छपवा लिया. नहीं ऐसा कुछ भी नहीं है कम से कम मेरे साथ. वो जो भी हैं मुझे सत्य बताते हैं, सत्य दिखाते हैं, कई बार डांट भी खता हूँ, रचनाओं को परिष्कृत करने के लिए उलाहने भी सुनता हूँ. सबसे बड़ी बात किभी लिखने से पहले बहुत कुछ पढने के लिए प्रेरित किया जाता है. कितनी बार हिंदी की मात्राओं और व्याकरण के लिए भी टोका गया है. तो आप ही समझिए कि कैसा होगा ये सम्बन्ध और उससे भी बड़ी बात कैसे होंगे वे लोग जो मुझ जैसे विपरीत पृष्ठभूमि वाले नवागुंतक को भी इतना स्नेह देते हैं. मैं अपने साहित्यिक गुरुओं का नमन करता हूँ और अपने भाग्य को सराहता भी हूँ कि मैं ऐसे लोगों के सानिध्य में कुछ सीख पा रहा हूँ. कोइ भी क्षेत्र हो, कोइ भी कार्य हो उसके और अच्छा होने की गुंजाईश हमेशा ही होती है. मई बस यही करने का प्रयास करता रहता हूँ. इसी बात बात को चरितार्थ करती अंग्रेजी में एक कहावत है जिसका उल्लेख करना चाहूँगा

“Good, better, best, let them not rest

Until good is better, better is best”

तो सीढ़ी बात यह कि बिना किसी का सहयोग पाए, मार्गदर्शन पाए मेरे लिए साहित्य के क्षेत्र में खड़ा रह पाना संभव नहीं हो सकता था. यहाँ बात यह नहीं की मैं साहित्य में अपने किसी विशेष मंतव्य की चाह लिये आया हूँ  अथवा किसी मुकाम तक पहुंचना हैं. ऐसा उद्देश्य बिलकुल भी नहीं है पर हाँ अगर ऐसा होता भी है ति वह सुखद ही होगा लेकिन मैं सिर्फ़ लिखना चाहता हूँ, निर्विकार भाव से सार्थक और उद्देश्यपरक. कुछ ऐसा लिखना चाहता हूँ जो लोगों से, उनकी अपेक्षाओं से जुड़ा हो, जिसे पढ़कर साधारण जन भी जुड़ा महसूस करे और वह भी अपने आप को साहित्य के समीप रख सके उससे संवाद स्थापित कर सके.

डॉ.जयशंकर शुक्ल 16: आपके यात्रा संस्मरण की विषयवस्तु क्या है? 

[अरविन्द] – जी यह यात्रा संस्मरण पंचमढ़ी की यात्रा से सम्बंधित है. पंचमढ़ी मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले में सतपुड़ा की पहाड़ियों में बसा मध्यप्रदेश का सबसे ऊँचा पर्यटन स्थल है. इसे सतपुड़ा की रानी और महादेव का दूसरा घर भी कहा जाता है. यह संस्मरण इस पूरी यात्रा का लिखित दस्तावेज है. यात्रा के विचार बनने, उस विचार से उत्पन्न स्थितियां, यात्रा के लिए स्थान का चयन, तैयारी, घूमना, वापस आने तक की घटनाओं का सिलसिलेवार ढंग से समेटने का प्रयास है. इन सब में सबसे महत्वपूर्ण यह की एक पर्यटक और साधारण मनुष्य होने के नाते मई स्वयं जिन-जिन मनोभावों और अनुभवों से गुजरा उन सब को संजोने की कोशिश है यह यात्रा संस्मरण.

डॉ.जयशंकर शुक्ल 17: अपने यात्रा संस्मरण में आपने अपने अनुभूतियों को शब्दों के माध्यम से  व्यक्त करने का प्रयत्न किया है. आप इसमें कितने सफल रहे हैं?

[अरविन्द] – सच कहूँ तो बहुत ही कठिन रहा यह. भावनाएँ, अनुभूतियाँ तो अपरिमित होती हैं ये बड़े वेग से आती हैं और ह्रदय को झंकृत करते हुए गुजर जाती हैं. जितनी बार भी आती हैं उनका परिमाण, वेग और प्रभाव अलग-अलग होता है. ऐसे में आपके पास बहुत सीमित शब्द होते हैं कि उन सभी अनुभूतियों को आप उकेर सकें, शब्दों में बाँध सकें. और अगर सारी अनुभूतियों को शब्दों में बाँधने का प्रयास भी किया जाए तो कुछ क्षणों के पश्चात उस लिखे हुए में भी एकरूपता लगने लगेगी क्योंकि शब्दों की भी अपनी मर्यादाएं हैं भावनाओं को व्यक्त करने की और अगर किसी तरह शब्दों को थोडा संयत कर भी लिया तो अतिसह भावनाओं की उपस्थिति यात्रा संस्मरण का स्वरुप विकृत कर सकती है. भावनाओं के साथ-साथ यात्रा संस्मरण के बाकी विधानों को भी साधना पड़ेगा और नियंत्रण में रखना पड़ेगा. सब मिलाकर कहूँ तो बड़ी विकट स्थिति रही मेरे लिए कि किन अनुभूतियों को लिखूँ और किन्हें नहीं. वैसे मुझे तो अपनी सारी अनुभूतियों को लिखने में प्रसन्नता ही होती पर यह पाठक के और साहित्यिक रूप से भी देखना था की उतना ही लिखा जाए जितना सहज रूप से उदरस्थ हो सके और यह स्वाभाविक रूप से हो. आप को लिखे हुए संस्मरणों को समझने के लिए अनुभव करने के लिए अतिरिक्त प्रयास न करना पड़े कि क्या ऐसा हुआ होगा? और कुछ देर सोचने पर आप स्वयं से कहे की हाँ, शायद ऐसा हुआ भी हो, अगर लिखा है तो सच ही होगा तो यह मैं उचित नहीं समझता, प्रवाह नहीं टूटना चाहिए, कोरी कल्पना या गल्प नहीं लगना चाहिए. पाठक अगर आपके साथ उन भावनाओं में बहे तो वह स्वयं भी इतना मूल्यांकन कर सके की ऐसा होना संभव है और हुआ भी होगा. वह आकर्षित हो उस जगह के प्रति या कम से कम एक सही दृष्टिकोण के साथ उसकी समझ विकसित कर सके और इसके साथ ही साथ उस स्थान विशेष के बारे में जैसे मौसम, आवागमन, स्थानीय, भौगोलिक स्थिति आदि के बारे में आधारभूत जानकारियां भी ले सकें. मैंने अपने इस यात्रा संस्मरण में इन सभी बातों में तालमेल बैठने का भरसक प्रयास किया है पर जैसा की मैंने कहा है कि चीज़ों के और श्रेष्ठतर होने की सम्भावना हमेशा होती है और अवश्य ही यहाँ भी इस बात से नाकारा नहीं जा सकता. बाकी कितना सफल हो पाया हूँ कि नहीं यह तो पाठकों की प्रतिक्रिया से ही जाना जा सकता है मेरे कयास लगाने का कोई औचित्य ही नहीं बनता.

डॉ.जयशंकर शुक्ल 18: क्या आपके संस्मरण की भाषा आपकी बोलचाल की भाषा के करीब है? 

[अरविन्द] – मेरी मूल भाषा अवधी है. जहाँ तक मेरे लेखन की बात है मैं खडी बोली का व्यक्ति हूँ और येही मेरी लेखकीय और बोलचाल की भाषा है इस तरह से देखा जाए तो मेरी बोली, मेरा लेखन इन सब में दोनों ही भाषाओँ का प्रभाव है. इन सब के साथ मैं अंग्रेजी को अलग कर के रखता हूँ लेकिन जब बात मेरी कार्यालय से सम्बंधित काम की आती है तो वहाँ अंग्रेजी ही होती है. तो सीधी सी बात यह कि तीनो का ही प्रयोग मैं यथास्थिति के अनुसार सम्मिलित रूप से करता हूँ. उद्देश्य यही होता है की जो लिखा जाए, जो बोला जाए, वह पढ़ने और सुनने वालों को अलग सा न लगे. इस हिसाब से मैं अपने यात्रा संस्मरण की बात करूँ तो यहाँ खड़ी बोली ही केंद्र में है पर हाँ जहाँ तहां संवाद को सामान्य बनाए रखने के लिए सामान्य बोलचाल के शब्दों का भी सहारा लिया है.

डॉ.जयशंकर शुक्ल 19: आपकी मूल भाषा क्या है? और आप उसके कितने करीब हैं?

[अरविन्द] – मेरा जन्म गाँव में हुआ, हालांकि में पला-बढ़ा शहर में ही पर हाँ गाँव से हमारा आना जाना लगा रहता था. जाहिर सी बात है गाँव के परिवेश और भाषा का असर तो मेरे ऊपर पड़ना ही था. गाँव में और यहाँ तक मेरे घर लखनऊ में भी आपसी बोलचाल की भाषा अवधी ही रही. हम अब भी आपस का अधिकतर वार्तालाप अवधी में ही करते हैं पर शहर में ही पढाई-लिखाई होने के नाते खड़ी बोली में ही सम्प्रेषण करना होता था. धीरे-धीरे हमारी बोलचाल की भाषा में खड़ी बोली घुलती गयी और इस तरह से घुल गयी की खड़ी बोली या अवधी का बोलना मेरे लिए समान ही लगने लगे. 

डॉ.जयशंकर शुक्ल 20: आपकी पुस्तक का अध्याय विभाजन आपने कैसे किया?

[अरविन्द] – पुस्तक में अध्याय विभाजन के लिए मैंने कोई बहुत युक्ति लगाई हो मुझे नहीं जान पड़ता. अपने यात्रा संस्मरण को मैंने बहुत ही स्वाभाविक रूप में लिखा है. बहुत लाग-लपेट करने या स्थितियों को बहुत विशेष बनाकर या बताकर लिखा हो ऐसा भी नहीं है. जिस तरह से यात्रा प्रारंभ होकर अपने गंतव्य तक पहुँचने, भ्रमण करने और वापसी तक चलती रही उसी क्रम में अध्याय स्वतः ही बनते चले गए. इसमें मैंने ऐसा कुछ भी विशेष प्रयास नहीं किया है.

डॉ.जयशंकर शुक्ल 21: अरविन्द जी, आपने अपने विचारों को लेखन क्रम में कितनी ईमानदारी बरती है?

[अरविन्द] – सच कहूँ तो पूरे यात्रा संस्मरण में मेरे लिए यह बड़ा ही चुनौतीपूर्ण रहा कि अपने विचारों को लेखन में कैसे उतारूँ? कितनी बार मानसिक संघर्ष की स्थितियों से गुजरना पड़ा. एक तरफ विचारों का समंदर तटबंध तोड़ने पर आमादा था तो दूसरी ओर लेखन की अपनी सीमाएं भी थी . घटनाएँ कपोल-कल्पना न लगने लगे, नाटकीयता न आने पाए, स्थितियों कि वास्तविक दशा का भी वर्णन हो और विचारों-भावों के साथ एकरूपता भी बन सके, हर तरह का दबाव था. जैसा मैंने अभी कुछ देर पहले ही आप से कहा कि पूरे यात्रा संस्मरण को मैंने स्वाभाविक रूप में ही लिखा है, मुझे कहीं भी कुछ भी विशेष नहीं सोचना पड़ा है. जो जैसा होता गया, दिखता गया उसको उसी धारा में लिखता भी गया. हाँ, पर कहीं-कहीं विचारों को लेखकीय रूप देने में कठिनाई हुई पर एक बात तो स्पष्ट रूप से कहूँगा कि जो भी लिखा है उसमें लेश मात्र भी अतिशयोक्ति नहीं है, किसी भी घटना को खींचने का या रोचक बनाने में कोई भी अतिरिक्त जुगतबाजी नहीं की है जो भी है परस्थितिजन्य है स्वाभाविक है.

डॉ.जयशंकर शुक्ल 22: घटी हुई घटनाओं को आपने यथावत रखा है या काट-छांट कर?

[अरविन्द] – जहाँ तक भी संभव हुआ है घटनाओं को यथावत ही रखा है. संभव शब्द का प्रयोग इसलिए किया कि किसी घटना में हर बिंदु, हर क्षण का ब्यौरा लिखा जाए आवश्यक नहीं और यह भी आवश्यक नहीं हर कोई ऐसा क्षण कुछ विशेष जोड़ता हो उस पूरी घटना में. जहाँ-जहाँ भी ऐसे स्थितियाँ रहीं उन-उन स्थानों पर थोड़ी शिथिलता बरती है उनको लिखने में. बाकी घटनाओं के मूल प्रवाह और स्थितियों को जस का तस रखा है.

डॉ.जयशंकर शुक्ल 23: आपके लेखन में आपके आलोचकों का क्या योगदान है?

[अरविन्द] – किसी भी कार्य में पूर्णता और सुधार की गूंजाईश हमेशा ही होती है और मैं भी इससे अछूता नहीं हूँ. पर प्रश्न यह है कि आलोचक हैं कौन? क्या वह स्वयं आलोचना के मानदंडों पर खरे उतरते हैं और आलोचना को न्याय सांगत रूप से परिभाषित करते है? ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ कि मेरे इस अल्प साहित्यिक अवधि के दौरान मैंने कई ऐसे आलोचकों को देखा है जो मात्र आलोचना करने के लिए ही आलोचना लिखते हैं, बिना विषयवस्तु और लेखक की पृष्ठभूमि को अच्छे से जाने. ऐसे लोगों की आलोचना में पूर्वाग्रह पूरी तरह हावी रहता है.अब आप ही बताइए की ऐसी आलोचनाओं को आप कितना प्रामाणिक मानेंगे. अभी मई कुछ समय पहले ही ऐसे महानुभाव से मिला जिन्होंने मेरी पुस्तकों लेखन को जाने समझे बिना ही आलोचना और साहित्य पर लम्बा चौड़ा, पूर्वाग्रह और आदर्शवाद से भरा आख्यान  दे डाला.प्रश्नों की ऐसी झड़ी लगी की मिलने का प्रयोजन ही भस्मीभूत हो गया. उनके प्रश्नों में सार्थक साहित्यिक चर्चा, सन्देश, सुझाव तो न के बराबर थी बस अंदर की कुंठा और क्षोभ प्रश्नों के रूप में निकल रही थी. लब्बो लुआब यह था कि एक विज्ञान का विद्यार्थी साहित्य से न्याय कैसे कर सकता है, कैसे कोइ दो वर्षों में दो पुस्तकें प्रकाशित कर सकता है. उन महाशय का पूरा समय इस बात को मनवाने में लग गया कि मैं यह सब मात्र दिखावे और यशप्राप्ति के लिए ही करता हूँ. साहित्य से मेरा कोई लेना-देना नहीं. खैर हर व्यक्ति की अपनी विचारधारा है होती है और वह स्वतंत्र हिया इसे व्यक्त करने के लिए. पर जब आप किसी अन्य के साथ यह करते हैं तो आपको अपने उत्तरदायित्व का भी निर्वहन करना होता है. बड़ी-बड़ी अतिआदर्शवाद की बातें करके आप साहित्य को परिभाषित नहीं कर सकते, उसकी नए सिरे से व्याख्या नहीं कर सकते अपितु यह सब आपको अपने आचार-विचार से भी दिखाना होगा. कितना अच्छा होता यदि वह महाशय वास्तविकता में आते और अपने पूर्वाग्रह, स्वरचित सिद्धांत को परे रखकर मेरा और मेरे लेखन का मूल्यांकन करते. पुस्तकों को देखते और पढ़ते और फिर सभी त्रुटियों की ओर इंगित करते हुए अपने विचार रखते. मुझे बहुत प्रसन्नता होती अगर कुछ ऐसा होता. इसी बहाने मैं उन जैसे मनीषियों से कुछ सीखता, आत्मावलोकन करता और कहीं न कहीं यह उनका अप्रत्यक्ष रूप से योगदान ही होता. पर ऐसे आलोचक भी आपको दिशा ही देते हैं. इस छोटी सी घटना नें यह तो दिखा दिया कि आने वाले समय में मुझे ऐसे प्रश्नों के लिए तैयार रहना होगा और इन सबका उत्तर मुझे उत्कृष्ट विचारों को आत्मसात करते हुए उत्क्रिश रचनाओं के माध्यम से ही देना होगा. कहीं न कहीं यह अनुभव मेरे लिए प्रेरणा श्रोत ही रहा.

तो कहने का तात्पर्य यह की हर कोई जो लेखकीय धरातल पर उतारे बिना, उसको समझे बिना कुछ भी कह दे वह आलोचना नहीं हो सकती. ऐसे लोगों से ही साहित्य में मलिनता आती है और नए साहित्यकार हतोत्साहित होते हैं. इसका मतलब यह नहीं कि हर किसी रचनाकार और उसकी रचनाओं की प्रशंसात्मक दृष्टिकोण से ही विवेचना की जानी चाहिए. कतई नहीं. गलत को गलत कहा ही जाना चाहिए पर यह सब करने से पहले आपको अपने पूर्वाग्रहों को छोड़कर आना होगा और ततष्ठ भाव से समग्र दृष्टि से  रचनाओं को कसौटी पर तौलना होगा तभी साहित्य को कुछ स्सर्थक देने कीसार्थक पहल हो सकती है.

अच्छे आलोचक और उनकी आलोचनाएँ निःसंदेह साहित्य को सही धारा और पक्ष में रखने की अनिवार्य परंपरा है. बिना आलोचकों के रचना स्वयं के साथ न्याय नहीं कर पाएगी. रचना को अपना अभीष्ट सिद्ध करने के लिए आलोचकों की कसौटी से गुज़रना ही होगा तभी रचनाकार उत्कृष्ट और स्सर्त्क रचने के लिए प्रेरित हो सकेगा. पर इन सबके साथ रचनाकारों का मनोबल भी बनाए रखना होगा. आलोचना का उद्देश्य रचना और रचनाकार को परिमार्जित करने के लिए दिशा देना है, संभावनाएं दिखाना है  ताकि अगली रचना  उन आकांक्षाओं को पूर्ण कर सके. हाँ गलत परिपाटी को हतोत्साहित किया जान अचहिये पर नया और स्सर्थ्क रचने की प्रेरणा भी आलोचना में निहित होनी चाहिए. मैं अपने बारे में बात करूँ तो  आलोचनाओं को मैं बहुत स्वाभाविक रूप में लेता हूँ. उन सभी आलोचनाओं को तौलता हूँ, मंथन करता हूँ और यथा संभव उन पर अमल भी करता हूँ. पर रचनाकार की भी अपनी सीमाएं हैं. आप हर किसी के भी विचारों और सुझावों को अपने पर नहीं थोप सकते अन्यथा फिर कोई अंतर कहाँ रहा आपकी और अन्य रचनाकारों की रचनाओं में.पर जहाँ तक कथ्य और शिल्प के तत्व की बात है मेरी अपनी रचनाओं में सुधार की गूंजाईश की बात है, रचनाओं के कहन को और स्पष्ट करने की बात है तो मैं इन सबको सहर्ष रूप से स्वीकारता भी हूँ और समाहित करने का प्रयास भी करता हूँ. यह तो निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है. आलोचनाएँ आपको सजग रखती हैं, सचेत रखती हैं, सधा हुआ रखती हैं. लेकिन इन सबके साथ-साथ रचनाकार को अपनी आलोचना को सुनने और स्वीकार करने का साहस होना चाहिए. आलोचना सुनना और करना दोनों पूर्वाग्रहों से परे होना चाहिए. दोनों का उद्देश्य साहित्य को दिशा देना होना चाहिए न कि हतोत्साहित करना.

डॉ.जयशंकर शुक्ल] 24: आप पहले ऐसे रचनाकार हैं जिनके साहित्य में पदार्पण के साथ ही दो पुस्तकें प्रकाशित हो गईं और अप्रकाशित पुस्तकों की संख्या ही आपके अनुसार तीन है.प्रकाशन क्रम की वरीयता आप कैसे निर्धारित करते हैं?

[अरविन्द] – जी! (एक उन्मुक्त हँसी के साथ) मुझे ऐसे लता है कि जैसे मेरे अंदर बहुत कुछ भरा हुआ है जो लिखते जाने के बाद भी कम नहीं हो रहा है. जितना लिखता जाता हूँ क्षुधा बढ़ती ही जाती है. वैसे भी हमारे आस पास बहुत कुछ बहुतायत में बिखरा पड़ा है कि मुझे बहुत परिश्रम की आवश्यकता नहीं पड़ती कंटेंट के लिए. और इसके साथ ही मन में सीखने की प्रबल इच्छा शक्ति भी है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मैं कुछ दिन में कुछ भी सीखकर कुछ भी लिख सकता हूँ. शायद लिख भी लूँ तो न्याय कर पाऊँगा यह नहीं कहा जा सकता. मैं अपनी सीमाएं जानता हूँ और उसमें ही अपने लेखन को समृद्ध करने का प्रयास करता रहूँगा. पुस्तकों का प्रकाशित होना एक संयोग है जिसमें मेरे कुछ शुभचिंतकों का बहुत बड़ा योगदान है. यह ईश्वरीय कृपा ही है कि मैं ऐसे लोगों के सानिध्य में हूँ और जिनकी कृपा मेरे ऊपर आशीर्वाद के रूप में बनी हुई है. मैंने पहले भी कहा कि मेरे शुभचिंतक मेरे लिए यह पहले ही तय कर देते हैं कि  अगला पड़ाव क्या होना चाहिए. प्रकाशन क्रम की वरीयता में इस बात का ध्यान रखता हूँ कि विषय की पुनरावृत्ति न होने पाए. विधा और विषय जहाँ तक हो सके अलग होने चाहिए अन्यथा लेखा में एकरूपता की सम्भावना बलवती हो जाती है. इसके अलग यह मेरे स्वयं के विचार बोध पर भी निर्भर करता है कि अंतर्मन क्या लिखने को उत्सुक है, विचार प्रवाह किस दिशा में इंगित कर रहे हैं. बस समय चक्र विचारों को जिस ओर मोड़ देता है तो उसके प्रकाशन की पृष्ठभूमि तैयार हो जाती है. यह सब बहुत पुनर्योजित होता है ऐसा मुझे नहीं लगता.

---डॉ जयशंकर शुक्ल

 

 

 

 


साक्षात्कार"कवि और संवेदनशीलता एक दूसरे के पर्याय"माहेश्वर प्रसाद सिंह से डॉ जयशंकर शुक्ल साक्षात्कार

साक्षात्कार

"कवि और संवेदनशीलता एक दूसरे के पर्याय"

माहेश्वर प्रसाद सिंह से  डॉ जयशंकर शुक्ल साक्षात्कार


प्रश्न 1: महेश्वर प्रसाद सिंह जी, साहित्य में आपका आगमन कविता से हुआ और अब आप यात्रा संस्मरण लिख रहे हैं. इसका क्या कारण है?

जी। सर्वप्रथम तो मैं आप का स्वागत करता हूं और आप को धन्यवाद देता हूं कि इस व्यस्तता भरी जिंदगी से कुछ पल निकाल कर मेरे घर तक पहुंच पाए। जहां तक पहले कविता लिखने का सवाल है तो मैं आप को यह बताना चाहूंगा कि साहित्य में मेरी शुरुआत ही कहानी से हुई थी। विश्वविद्यालय छोड़ कर जैसे ही मैं नौकरी में आया था और यहां आकर मुझे खुद में खालीपन सा लग रहा था तब मैने कहानी लिखनी शुरू कर दी थी और दो चार कहानी लिखी भी थी और वो स्थानीय अखबारों में तब प्रकाशित हुई थी जिसे मैंने अब तक संजो कर रखा हुआ था। सच तो यह है कि कविता की शुरुआत ही बहुत देर से हुई परंतु लोगों के बीच में कविता पहले आई और कहानी पीछे छूट गई।


प्रश्न 2: मेरी जानकारी में कवि होना संवेदनशील होने का पर्याय है. आप मूलतः कवि हैं, लेखन की विधाये बताएं?

जी। इसमें कोई दो मत नहीं है कि कवि और संवेदनशीलता एक दूसरे के पर्याय हैं। जब तक कोई व्यक्ति संवेदनशील नहीं होगा तब तक वह कोई कविता भला कैसे रच पाएगा! कवि का प्रथम गुण संवेदनशीलता ही है। जी। मैने गीत, गजल, कविताएं, मुक्तक आदि लिखे हैं।


प्रश्न 3 जब आप निबंध या संस्मरण लिखते हैं तो भावुकता और तार्किकता आती है. आप दोनों में सम्बन्ध कैसे बना पाते हैं?

बिल्कुल वाजिब प्रश्न है आप का। परंतु मैने पाया है कि कहानी या संस्मरण लिखते वक्त शुरुआत तो तार्किकता से होती जरूर है परंतु बीच बीच में पात्रों की मनस्थिति पर विचार करते हुए भावुकता या संवेदनशीलता भी स्वयं चल कर आ जाती है। लिखते वक्त तो मैं लिख जाता हूं परंतु जब मैं अपनी ही रचना को धारा प्रवाह से पढ़ता हूं तब कभी कभी मेरी आंखें नम हो जाती हैं और कुछ अश्रु बिंदु ढलक आते हैं।


प्रश्न 4: लेखन की प्रेरणा आपको कहाँ से मिली? आपने लेखन को क्यों चुना? 

सर। अब मैं क्या बताऊं आप को! सच तो यह है कि मैंने लेखन को चुना ही नहीं। मुझे लगता है लेखन ने मुझे चुन लिया है। लेकिन कभी कभी दूसरों की रचना पढ़ कर, समझ कर ऐसा जरूर लगता था कि मैं भी प्रयास करता तो कुछ लिख सकता था। पठन पाठन और मनन से ही विचार बनता है और जब उसे लिपिबद्ध कर देते हैं वह रचना बन जाती है, वही लेखन कहलाता है।


प्रश्न 5 विषय के लिए आप विधा का चयन कैसे करते हैं? 

जी। एक तो यह परिस्थिति पर निर्भर करता है। किस वक्त कैसा मूड होता है और दूसरे किसी की रचना पढ़ते या सुनते वक्त स्वतः मन के अंदर विचार जागृत होने लगते हैं। कोई न कोई रचना चल पड़ती है।



प्रश्न 6वो कौन से कारण हैं जिन्होंने आपको लेखन की ओर प्रेरित किया?

सर। इसके कोई ठोस कारण तो दिखाई नहीं पड़ता। न मैने कभी किसी से प्रेम किया, नहीं कोई धोखा खाया, नहीं मेरा कभी दिल ही टूटा। हालांकि प्रसाद जी कहते हैं, 

वियोगी  होगा  पहला  कवि

आह! से  उपजा  होगा गान

उमड़ कर आंखों से चुपचाप

बही होगी कविता अनजान।

परंतु मैं वियोगी नहीं हूं। हां, एक बात है जो मैं यहां बताना जरूर चाहूंगा। लोग फिल्म देखने जाते हैं मनोरंजन के लिए, खुश होने के लिए परंतु फिल्मों में कभी कोई करुण दृश्य आता तो मैं रोता रहता। मेरी आंखों से आंसू अनायास चल पड़ते हैं और दो दिन तक मेरा सिर भारी रहता है। मैं हॉस्पिटल में लोगों को कराहते, रोते नहीं देख सकता हूं। कुछ भी पढ़ता या देखता हूं और अगर कहीं कोई ऐसी बात हुई तो मुझे बर्दाश्त नहीं होता है। यह स्थिति आज भी बनी हुई है। मैं किसी को दुख में नहीं देख सकता परंतु साधनहीन होने के कारण उन्हें कोई मदद भी कर पाता हूं। इसका अफसोस रहता है।


प्रश्न 7: अलख जी, लिखकर आपको कैसा महसूस होता है?

जब तक कोई रचना प्रक्रिया में होती है, और जब तक वह पूरी नहीं हो जाती है तब तक मन में छटपटाहट रहती है। किसी और काम में मन नहीं लगता है। लेकिन जैसे ही वह पूरी हो जाती है वैसे ही मन को बहुत शांति मिलती है, मन सुकून मिलता है और लगता है कुछ काम हुआ। कुछ और आगे कर सकता हूं।


प्रश्न 8  क्या आप अपनी सारी बातों को कागज़ पर उतार पाते हैं? यदि हाँ तो कितनी और यदि नहीं तो क्यों नहीं?

जी। विषय से संबंधित जितनी भी बातें हो सकती हैं और जहां तक लिखते वक्त सोच पाता हूं वो तो लिख ही देता हूं। हां, बाद में पढ़ने के बाद कभी कभी ऐसा लगता है कहीं कुछ अधूरा रह गया है। परंतु ऐसे मौके कम ही आते हैं। एक बार लिख देने के बाद मुझे उसमें बहुत ही मामूली संशोधन की जरूरत महसूस होती है। कोई आमूल चूल परिवर्तन की जरूरत नहीं दिखती है।


प्रश्न 9: आपने कब महसूस किया कि आपमें लिखने की क्षमता है 

सर। ऐसा मैने कभी नहीं सोचा कि मैं क्षमतावान हूं। लेकिन विचारों की अभिव्यक्ति को कागज पर उतारते हुए मुझे अच्छा लगा और इसी तरह लिखते लिखते मुझमें लिखने की क्षमता आई है और जितना लिखता हूं उतना ही मुझे लगता है कि मैं कुछ और लिख सकता हूं।


प्रश्न 10 यह कैसे प्रमाणित हुआ की आपका लेखन मानक के करीब है?

सर। कोई भी व्यक्ति अपनी रचना को मानक के करीब खुद कैसे पा सकता 

है! यह काम तो पाठक और समीक्षक का है। हां, रचनाकार अपनी भरपूर कोशिश जरूर करता है कि उसकी रचना कहीं से अपूर्ण न दिखे।

साक्षात्कार "साहित्य और साहित्य की विधाएं व्यक्ति का चुनाव कर लेती है "डा जय शंकर शुक्ल"

साक्षात्कार

"साहित्य और साहित्य की विधाएं व्यक्ति का चुनाव कर लेती है "

डा जय शंकर शुक्ल का साक्षात्कार संजय यादव द्वारा


प्रश्न 1_अध्ययन मनन के और भी क्षेत्र थे, लेकिन उस तरफ न जाकर, साहित्य का पथ आपने चुना, ऐसा किसी सुझाव, विशेष कारण या किसी व्यक्तित्व से प्रेरित होकर आपने इस ओर रुख किया?

उत्तर_ संजय जी आपका प्रश्न किसी भी साहित्यकार के लिए उसके अतीत में ले जाने हेतु एक कुशल संवाहक के रूप में सामने आता है आपने कहा अध्ययन और मनन के अन्य रास्ते भी हैं मैं आपको पूरी विनम्रता से बताना चाहता हूं कि वह समस्त रास्ते यदि देखा जाए तो साहित्य की गलियों से होकर ही गुजरते हैं साहित्य की विधियों से गुजरने वाला हर रास्ता किसी न किसी व्यक्ति को पाठक श्रोता रचनाकार अथवा आलोचक बनाता है ऐसा मेरा मत है यह व्यक्ति स्वयं नहीं सुनता बल्कि मेरी अपनी धारणा के अनुसार साहित्य और साहित्य की विधाएं व्यक्ति का चुनाव कर लेती है मेरे लिए मेरे इस क्षेत्र में पदार्पण का पूरा श्रेय मेरे इसी अवधारणा को जाती है मैंने साहित्य को नहीं चुना है बल्कि समाज में यत्र तत्र सर्वत्र घटने वाली घटनाएं संवेदनशीलता एवं संवेदनहीनता के मध्य की बारीक रेखा लोगों का एक दूसरे के प्रति समर्पण और धोखा यह सारी चीजें मिल कर के मेरे हृदय को मत्ती रहती थी जिसके कारण ऐसा लगा कि इनको बाहर निकालना चाहिए शुरुआत में हमने इन बातों को अपने किसी अभिन्न पर चितियां मित्र से कहने का प्रयत्न किया लेकिन वह बड़ा भयंकर साबित हुआ क्योंकि उसमें नमक मिर्च अलग करके दूसरे रूप में अन्य लोगों के सामने परोस दिया गया फिर हार कर के अपने भावों के उद्योग को शब्दों के माध्यम से कागज पर उतार कर के सुधी पाठकों आलोचकों शोधकर्ताओं हेतु एक पूर्व प्रचलित परंपरा का हिस्सा बनना मुझे ज्यादा उचित लगा और इस तरह से मैं साहित्य की धारा में अपने आप को पाता हूं।


प्रश्न 2_साहित्य में अन्य विधाओं की अपेक्षा नवगीत ही आपकी प्रतिनिधि विधा क्यों है ?

उत्तर_जैसा कि आप के पूर्व प्रश्न के उत्तर में मैंने बताया कि विधाएं स्वयं व्यक्ति का चयन करती हैं व्यक्ति कभी विधाओं का चयन नहीं करता यह बात कमोबेश सब पर लागू होती हैं और जब कभी भी आप किसी कंटेंट को या किसी थॉट प्रोसेस को लेकर के सक्रिय होते हैं तो निश्चित तौर पर वह अपने लिए माध्यम की तलाश करती है और वह माध्यम किसी भी रूप में हो सकता है कुछ नवगीत के प्रारंभिक आयामों ने मुझे प्रभावित किया और उस प्रभावशीलता का परिणाम है की अन्य कई विधाओं में लेखन के साथ-साथ क्योंकि मैं मूलतः अपने को नव गीतकार मानता हूं यह लालित्य मेरे अन्य विधाओं में भी देखा जाता है और लोकगीत में कथा तमक और गेम आत्मक स्वरूप साक्षी कृत होता है इस तरह से मैं तो यही कहूंगा कि मेरा प्रतिनिधि 9 गीतकार के रूप में स्थापन मेरे भावों के उद्योग का प्रवाह है जिसमें मुझे इस विधा ने स्वयं मन के भाव को अलग-अलग रूप आकार में व्यक्त करने की सामर्थ्य प्रदान की!


प्रश्न 3_जब गीत स्वयं में एक विधा थी और नवगीतकार भी यह मानते हैं, गीत की जानकारी के बिना नवगीत नहीं लिखा जा सकता, तो नवगीत नामकरण की क्या विवशता थी, इसे गीत रूप में ही रहने दिया जाता? 

उत्तर_आपने एक विमर्श को प्रश्न के रूप में यहां प्रस्तुत किया है हर नवगीत कार मूलतः गीतकार होता है लेकिन हर गीतकार  नवगीतकार हो यह जरूरी नहीं। संजय जी यहां पर हमें देखना होगा की गीत की आत्मा क्या है मेरे समझ से गीत की आत्मा उसकी चांद से अधारणा है जहां पर थोड़े ही सोत्र आत्मक स्वरूप में बहुत सारी बातें कह जाने का बहुत सारे रहस्यों को स्थापित करने का एवं प्रसारित करने का हुनर व्यक्ति के अंदर आ जाता है इसमें टेक्स्ट और क्राफ्ट दो चीजें होते हैं टेस्ट कथन है और क्राफ्ट जो है रूपा कार है रूपा कार में हम देखते हैं कि विभिन्न तरह के मात्रक और वर्णिक शब्दों के रूप में हम जब आगे बढ़ते हैं यहां मुखड़ा और अंतरा के क्रमिक प्रवाह में यह हमारे सामने आता है मैं नवगीत को भी गीत का एक परिष्कृत और उत्कृष्ट रूप मानता हूं इसका मतलब यह नहीं है कि गीत उत्कृष्ट नहीं होते या परिष्कृत नहीं होते बहुत सारे लोग लोकगीत को भी गीत ही मानते हैं जहां पर की नए कथन नए भाव नए विचार नए रूप आकार आकार लेते हैं वस्तुत अतीत में जाते हैं तो हमारे सामने आजादी के आसपास की बात आती है जहां पर कहानी के उन्नत स्वरूप को व्यक्त करने के लिए नई कहानी नए-नए नाटक नई कविता नए निबंध आकार लेते हैं वहीं पर गीत की शाखा में लोकगीत का भी जन्म होता है और निराला के गीतों में लोकगीत के उच्च देखे जा सकते हैं केदारनाथ अग्रवाल के गीतों में नवगीत का आकार आगे बढ़ता हुआ दिखता है वीरेंद्र मिश्र इसको और आगे तक ले जाते हैं ठाकुर प्रसाद सिंह के गीतों में यह चीजें आती हैं तो गीत को गीत ही रहने दिया जाए आपकी बात सत्य है लेकिन हमेशा समय के साथ-साथ यह चीजें परिवर्तनशील है और आज के समय में इनका जो स्वरूप हमारे सामने है वह लगभग चौथे चरण में नौ गीत का स्वरूप हमारे सामने है जिसे हम क्रमिक रूप से जब देखते हैं तो वह अपने शिल्प में और अपने कथ्य में बहुत ही विशिष्ट रूप लेते हुए आगे बढ़ता है यह विधाओं का परिष्करण है जो विधा के रूप में आ रहा है रूप आकार इसका जो है सफल है सक्षम है स्वतंत्र है इसलिए मेरा विचार यह है कि गीत की शासक सत्ता अनिर्वचनीय है स्थापित है लोकगीत उसी गीत की परंपरा को आगे बढ़ाने का एक नवीनतम साधन माना जा सकता है।

प्रश्न 4_क्या आपने जन्म से लेकर आज तक नवगीत में अपने शिल्प और कथ्य के संदर्भ में परिवर्तन आए हैं, यदि परिवर्तन आए हैं तो क्या हैं ? 

उत्तर_परिवर्तन सदैव विकास के क्रम को आगे बढ़ाते हैं यदि परिवर्तन संभव ना होता तो हम आप इस स्वरूप में ना होते यह विचार की अवधारणा ही परिवर्तन का सबसे बड़ा कारण है इस कारक को लेकर के जब हम कुछ नवीनतम करने की ओर बढ़ते हैं तो जो कुछ छूट जाता है वह पुरातन होता है जो कुछ आगे आता है वह नवीनतम होता है इन के मध्य की जो बारीक धारा है उसे आप परिवर्तन कर सकते हैं निश्चित रूप से बंसी और मॉडल k9 गीत को देखें या उस कालखंड में निराला के गीत हो केदारनाथ अग्रवाल के हो वीरेंद्र मिश्र के हो यह एक परंपरा को आगे बढ़ाता हुआ चंद्रदेव सिंह के हो जो हमारे सामने स्वरूप आ रहा है निश्चित तौर से और निरंतर परिवर्तन की ओर आगे बढ़ रहा है यह परिवर्तन केवल शिव में नहीं है यह तथ्य में भी है और तथ्य का परिवर्तन अपने समय की अनुगूंज को ध्वनित करता है अब देखिए कि आज के कालखंड में जो हम यह पाते हैं के निरंतर नए-नए शब्दावली हमारे प्रयोग में आते जा रहे हैं पुरानी शब्दावली छूटती जा रही है हम निश्चित तौर पर छायावाद की शब्दावली से काफी आगे बढ़ चुके हैं और छायावाद की शब्दावली से बल्कि 60 के दशक 70 के दशक 80 के दशक और दर्शकों के भी आगे निकल कर के हमने नई सदी में नए प्रतिमान रखने की कोशिश की है निश्चित तौर पर संजय जी यह परिवर्तन आया है और यह परिवर्तन नहीं है परिवर्तन ना आए तो नए लोगों को अवसर ही नहीं मिलेगा परिवर्तन ना आए तो पुराने लोग ही पुरानी चीजों को लेकर बैठे रहेंगे और जो हम कहते हैं साहित्य समाज का दर्पण होता है तो साहित्य अपने समाज का अपने समय के समाज का दर्पण होता है तो वह चीज धोनी तो नहीं होगी इसलिए यह परिवर्तन आया है और आगे भी इस तरह के परिवर्तन की संभावना बनी रहेगी।

प्रश्न 5_आज लिखे जा रहे नवगीत की चुनौतियाँ क्या हैं, क्या वह अपनी समकालीन चिंताओं को सीधी तरह स्वर दे पा रहा है, जैसे हिंदी के अन्य समकालीन काव्य रूप दे रहे हैं ? 

उत्तर_आपके इस प्रश्न ने एक अलग तरह के परिवेश को चर्चा के लिए सामने ला दिया जब भी कोई व्यक्ति साहित्य में कदम रखता है और कुछ लिखने का प्रयत्न करता है तो वह अपने आदर्श अपनी मान्यताएं अपने मूल्य और अपने विश्वास लेकर आता है हमारे यहां कहा गया है कि 1 लाइन लिखने के लिए 100 लाइन पढ़ना होता है आज के समय में साहित्य रचना में लगे हुए लोग पढ़ नहीं रहे हैं यह बहुत बड़ा दुर्भाग्य है साहित्य का भी साहित्यकारों का भी पाठकों का भी हमें निश्चित नहीं कर पाते कि क्या चीज़ लिखी जा चुकी है क्या चीज लिखने बाकी है किस तरह से हम लिखे कि युगबोध उसमें ध्वनित हो यह बड़ा कठिन दौर है आपका यह प्रश्न मौजूद है बहुत ही समय के साथ जुड़ा हुआ है आज की समस्याएं साहित्य में मुखरित होनी चाहिए न केवल समस्याएं अभी तो उनका समाधान भी मुखरित हो तो यह ज्यादा उचित होगा लेकिन थोड़ा सा यहां मैं यह भी कहना चाहूंगा कि साहित्य रचना समस्याओं और समस्याओं के समाधान का वर्णन ही नहीं है बल्कि यह कहीं न कहीं विवरण विश्लेषण व्याख्या विवेचन तात्पर्य अभिप्राय इन सारे शिक्षकों से होकर भी अपने आप को प्रमाणित करने का प्रयत्न करता है जब हम कभी लेखन में उतरते हैं तो हम यह देखते हैं कि महादेवी ने क्या लिखा है प्रसाद ने क्या लिखा है पंत ने क्या लिखा है निराला ने क्या लिखा है बच्चन ने क्या लिखा है भवानी दादा ने क्या लिखा है केदारनाथ में क्या लिखा है नरेंद्र शर्मा ने क्या लिखा है वीरेंद्र मिश्र ने क्या लिखा है देवेंद्र शर्मा इंद्र ने क्या लिखा है क्या लिखा है कि लिस्ट में जो नाम मैंने गिनाए हैं यह थोड़े से नाम है इसमें बहुत सारे नाम और जोड़े जा सकते हैं अब यहां इन्होंने जो लिखा है वह अपने समय को लिखा है जरूरी नहीं है कि हम भी उन्हीं के समय को लिखें हमें अपना समय लिखना होगा और साथ ही साथ जब हम अपने समय को लिखते हैं तो हमारा शेर भी अपना होता है हमें अपना नया रास्ता बनाना होता है शिल्प के लिए भी और कथ्य के लिए भी जब दोनों चीजें हम बना लेते हैं तब हम स्थापित हो पाते हैं नहीं तो हम पर नकल का आरोप लगता है और आजकल ज्यादातर रचनाकार अपने आपको इससे अलग नहीं रख पा रहे हैं सबसे बड़ा कारण यही है कि आज विमर्श और संवाद का अभाव है हर व्यक्ति ने अपने अपने खेमे और खाना बना लिया है और यह गिरोह बंदी साहित्य का नुकसान कर रही है एक नया व्यक्ति स्वतंत्र रूप से लिखना चाहे तो उसे पहचान के संकट से गुजर ना होता है हां जब वह धीरे-धीरे अपना स्वाध्याय करके अध्ययन करके अपनी नई लीक अपना नया रास्ता बना लेता है तो धीरे-धीरे वह अनंत काल तक कीर्ति को प्राप्त करता है ऐसा मेरा मत है।


प्रश्न 6_युगबोध के विविध आयाम क्या है, क्या युगबोध की संकल्पना को संपूर्णता से लाने में सक्षम है, यह विधा?

उत्तर_संजय यादव जी आपका यह प्रश्न विविध काल खंडों में परंपराओं और परिवेश के साथ-साथ स्थितियों के विवेचन तक हमें ले जाती हैं युगबोध वास्तव में बड़ा ही जटिल शब्द है इसे इसके शाब्दिक अर्थ से अलग लेकर के कुछ लाक्षणिक और व्यंजन इक अर्थ भी लेने होंगे सामान्यतया युगबोध का अर्थ है कि किसी भी युग का अच्छी तरह हमें बोध होना अथवा किसी भी युग का बोध किसी भी रचना में परिलक्षित होना जब हम देखते हैं भारतेंदु हरिश्चंद्र के समय से लगभग 18 से 57 से जो समय चलता है हिंदी के आधुनिक कालका हिंदी साहित्य के इतिहास में यह योग कई रूपों में विशिष्ट है और वह समय मूलत शुरुआत का है जहां बहुत सारी परंपराएं बहुत सारी परिभाषाएं गढ़ी गई अट्ठारह सौ सत्तावन से लेकर 19 और उनके उनके स्कूल के रचनाकार हिंदी को नया स्वरूप देने में लगे रहे लेकिन वास्तविक हिंदी के नए शब्द और अर्थ करने की प्रक्रिया जो शुरू हुई वह सन उन्नीस सौ से हुई जहां आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने मराठी साहित्य के मानकों को कहीं ना कहीं आधार बनाते हुए हिंदी साहित्य को आगे बढ़ाने का नए-नए आयाम खोजने का प्रयत्न किया और सरस्वती का प्रकाशन इस कड़ी में एक महत्वपूर्ण कार्य है 19 से 1918 तक का द्विवेदी युग हिंदी साहित्य के इतिहास में बहुत सारे नए कार्यों के लिए जाना जाता है यहीं पर आकर के खड़ी बोली हिंदी गद्य का उद्भव होता है जो निरंतर अपने विकास की प्रक्रिया में आज तक संलग्न है 1918 में एक नए युग का सूत्रपात होता है छायावाद का यहां छायावाद के चार स्तंभ प्रसाद निराला और महादेवी हमारे सामने आते हैं और निराला को इसका कुछ ज्यादा ही दिया जाता है और वह बंगाल से साहित्य की चल रही धारा को लेकर के बहुत सारे प्रयोग बहुत सारी परंपराएं हिंदी साहित्य में लेकर आए और यहां पर आत्म प्रकाशन की जो भावना रही वह महत्वपूर्ण रही जिस तरह से द्विवेदी युग में इतिवृत्त आत्मकथा की भावना रही भारतेंदु युग में देश प्रेम की भावना रहे उसी तरह छायावाद में मन के छिपे हुए भावों को प्रकट करना प्रमुख रहा और यह 1918 से लेकर 1936 तक चला 1936 में लखनऊ में प्रेमचंद की अध्यक्षता में प्रगतिशील लेखक संघ जो बैठक हुई उस बैठक में एक चीज निश्चित किया गया कि भारतीय साहित्य को विश्व साहित्य से जोड़ा जाए और वहां कठिनाई छंद की रचना का अनुवाद नहीं किया जा सकता तो शब्द अनुवाद हो सकता है हो सकता है हो सकता है वहां पर फिर हर चीज को नए रूप में गन्ने की परंपरा चली और वहीं से हमारे सामने कुछ नया करने की अर्थात उत्तर छायावाद आया दिनकर बच्चन रामेश्वर शुक्ल अंचल नरेंद्र शर्मा जैसे रचनाकारों के साथ-साथ केदारनाथ अग्रवाल जगदीश प्रसाद माथुर नागार्जुन जैसे रचनाकारों का प्रारंभ कुछ नया करने की ओर आगे बढ़ने की दृढ़ता यहां सामने आती है और जिसे हम इसके मूल स्वरूप में देख पाते हैं युगबोध का तात्पर्य होता है उस कालखंड में घटने वाली राजनीतिक सांस्कृतिक सामाजिक घटनाएं आपकी रचनाओं में आकार ले पा रही है या नहीं आप जो बिंब लेकर आ रहे हैं प्रत्येक लेकर आ रहे हैं वह कहीं पुरानी तो नहीं है आप की शब्दावली पुरानी तो नहीं है आपका शिल्प पुराना तो नहीं पुराना से हमारा आशय जिसमें आपके पूर्ववर्ती रचनाकारों ने लिख रखा है आपको कुछ नया करना है क्योंकि समय हमेशा बदलता रहता है और ऐसे में वही रचनाकार कालजई होते हैं युग जी भी होते हैं जो युगबोध को प्रश्रय देते हैं युगबोध को अपने लेखन में लेकर आते हैं। निश्चित रूप से लोकगीत बिरहा युगबोध को अपने आप में समाहित करने में सक्षम है अगर सक्षम ना होती तो यह विधा अन्य विधाओं की तरह कहीं दम तोड़ चुकी होती आज नई विधाओं का सूत्रपात हो रहा है पुरानी विधाएं कहीं खोती चली जा रही हैं आज आपने अगर यह प्रश्न किया है तो यह भी ध्वनित होता है कि 9 वित्त में वह सामर्थ्य है किसी भी विधा की सामर्थ्य अपने रचनाकारों के सामर्थ्य पर निर्भर करता है मैं समझता हूं यह वाक्य अपने आप में परिपूर्ण है।


प्रश्न 7_आपकी दृष्टि में युगबोध में किस प्रकार की संभावनाएँ निहित हैं ? 

उत्तर_आपने युगबोध में नहीं संभावनाओं की बात की है देखिए हमारे यहां किसी भी चीज को आंकने के लिए दो शब्द है एक संभावना दूसरी है आशंका जब हम संभावना की बात करते हैं तो सकारात्मकता की ओर जाती है जब आशंका की बात करते हैं तो निरर्थक और नकारात्मकता की ओर जाती है आपने चुके संभावना की बात कही है तो युगबोध में ही अपार संभावनाएं हैं ऐसा मेरा प्रबल मत है जब हम यह देखते हैं कि कोई भी रचनाकार अपने पूर्व रचनाकारों के श्रेणी को आगे की ओर ले जाने के लिए संकल्प है तो निश्चित तौर पर वह संभावनाओं के नए द्वार खोलता है और अपनी स्वयं की उपादेयता को भी लंबे समय तक बनाए रखने में सक्षम होता है जब वह ऐसा नहीं कर पाता तो काल की विकराल नीतियों में कहीं खो कर रह जाता है इसलिए विधा की यह समग्रता यह संपूर्णता संभावना गत होकर अपने रचनाकार को नया जीवन देने के साथ-साथ दीर्घ जीवन देने की हिमायती और पक्ष में अपार संभावनाओं को देखता हूं जहां पर युगबोध अपने सभी आयामों के साथ सभी परंपराओं के साथ स्थापित और ध्वनित हो सकता है ऐसा मेरा मत है।

प्रश्न 8_वर्तमान में 21वीं सदी के नवगीतों को आप 20वी सदी के नवगीतों से किन आयामों पर भिन्न पाते हैं? 

उत्तर-मैंने अपने पहले उत्तरों में इस बात को रखने का प्रयत्न किया है की नवगीत के विविध चरण रहे हैं अट्ठारह सौ सत्तावन से हिंदी साहित्य में जो नए पन का सूत्रपात हुआ है परवर्ती काल में आते-आते 1957 के आसपास जहां से नवगीत को हम आकार लेता हुआ देखते हैं नामकरण देखते हैं गीतांजलि का उद्भव देखते हैं कविता 64 की बात देखते हैं 5 + बांसुरी का प्रकाशन देखते हैं यहां से प्रथम चरण शुरू होता है नवगीत का इसे थोड़ा और पीछे ले जाए तो निराला के केदार के जानकी वल्लभ शास्त्री के गीतों में भी हमें नवगीत के उच्च दिखाई पड़ते हैं यह प्रारंभ है नवदीप के रचना काल का जिसे हम स्थापना का नाम दे सकते हैं आज लोकगीत 70 साल की यात्रा कर चुकी है सृजन की 70 साल की यात्रा में अगर विविध चरणों को ले तो आपके प्रश्न के अनुसार बीसवीं सदी और 21वीं सदी निश्चित तौर पर बीसवीं सदी के परिवेश कुछ और थे जन सरोकार और थे 21वीं सदी में काफी कुछ बदला हुआ नजर आया बहुत सारे नए उपकरण याद किए गए बहुत सारी प्रक्रिया नए पंखों लिए हुए आई और यहां पर मानवीय संवेदना का स्वरूप भी बदला हमारे मूल्य बदले हमारी मान्यताएं बदली हमारे आदर्श बदले और विश्वास में भी बदलाव हुआ नई पीढ़ी बदलाव की हिमायती है पुरानी पीढ़ी है के बीच में एक संघर्ष का रूप देखा गया यह रूप गीत की रचना में भी दृष्टिगोचर होता है सामान्य देखते हैं कि अपने प्रथम चरण में सरसो में जिस तरह अपने शिल्प और कथ्य को लेकर के कुछ झगड़ा हुआ था 21वीं सदी आते-आते दूर हुआ अब हमने समाधान देने की समस्या उठाने की संवाद करने की परंपराओं में नए-नए आयाम खोज लिए हैं और वह आया हमारी रचना धर्मिता को नए ढंग से परिभाषित करते हैं यह नवगीत का एक ऐसा प्रवेश है जहां पर रचनाकार विज्ञान की शब्दावली ओं को अंग्रेजी की शब्दावली यों को भी अपनी रचनाओं में स्थान देने से नहीं चूकता वह कहीं पर भी बाध्य नहीं है दबा हुआ नहीं है बंधा हुआ नहीं है। वह मुखर है अपने विचार को लेकर अपने भावों को लेकर,संजीदा भी है।

प्रश्न 9_हिंदी कविता की मुख्यधारा में नवगीत की उपस्थिति के मायने क्या हैं ? 

उत्तर_यादव जी सबसे पहले तो मुझे यह बताइए कि आप मुख्यधारा मानते कि से हैं क्या आजकल के मंचों पर जो तथाकथित लोग चुटकुलों के माध्यम से लकीरों के माध्यम से प्रस्तुत कर रहे हैं उसे आप मुख्यधारा मानते हैं या जो बड़े-बड़े अधिकारी जो कि उपकृत करने में समर्थ हैं उनके द्वारा विविध पत्र-पत्रिकाओं के लिए बनाए गए गिरोह इसमें एक दूसरे को सम्मानित और उपकृत करने की होड़ लगी होती है उसे मुख्यधारा मांगते हैं मित्र मुख्यधारा को स्पष्ट करना अत्यंत कठिन है ना तो मंच मुख्यधारा है और नहीं इस तरह की एकेडमिक मुख्यधारा कही जाती है हर एक बात मैं और कहूंगा कि उच्च शिक्षा में विविध आचार्य उपाचार्य द्वारा अपने विद्यार्थियों के माध्यम से आजकल कॉपी पेस्ट की जो विगत अवधारणा चल रही है उसे भी मुख्यधारा नहीं मानी जा सकती समय पर निर्भर होता है की मुख्य धारा क्या है आप कितना मौलिक कर पा रहे हैं वह आपको आपके दीर्घ जीवन में सहायक और प्रेरक साबित होगा लोकगीत मुख्यधारा का काव्य है मुख्यधारा हमारे लेखन हमारे प्रस्तुतीकरण को नया आधार देता है। जब हम मुख्यधारा में लोकगीत के उपस्थिति की बात करते हैं तो यह एक नया चुनौती है पुराने और नए लेखकों के लिए रचनाकारों के लिए कवियों के लिए पुराने रचनाकारों के लिए इस रूप में है कि मैथिलीशरण गुप्त की तरह किया वह अपने को इतना समर्थ समय-समय पर कर पाएंगे का हर युग में उनकी स्वीकार्यता बनी रहे क्योंकि गुप्त जी ऐसे रचनाकार हैं जो द्विवेदी युग से लेकर छायावाद से लेकर उत्तर छायावाद से लेकर प्रगतिशील युग को लेकर प्रयोगवादी युग तक और उसके बाद नई कविता कविता साठोत्तरी कविता समकालीन कविता के दौर में भी हो रहे ऐसा विलक्षण रचनाकार हमारे सामने एक मील का पत्थर है अगर हमें अपनी उपादेयता बनाए रखनी है साहित्य में अपनी उपस्थिति को बरकरार रखनी है तो निश्चित तौर पर समय के अनुसार हमें स्वयं को बदलना आवश्यक होगा यदि हम ऐसा नहीं कर पाते हैं पीछे छूटते चले जाएंगे आत्मा की पराकाष्ठा को लेकर कुछ मानते रहे तो वह मानने वाले हम और हमारे चेले छुपाते हो सकते हैं जो कहीं से भी मुख्यधारा का स्रोत नहीं हो सकते नवगीत की मुख्यधारा में मायने को जब हम देखते हैं तो यहां पर नई नई चुनौतियां हमें स्वयं को प्रमाणित और व्यवस्थित सिद्ध करने की जद्दोजहद है मेरे अपने मन में यही।

प्रश्न 10_नवगीत का लोकधर्मी अथवा जनसंवादी रूप हमारे सामने क्यूं नहीं आ पा रहा है और वर्तमान नवगीत जनता से सीधा संवाद क्यों नहीं कर पा रहे हैं? 

उत्तर_संजय जी लोकगीत बिरहा लोकगीत कारों का यह दुर्भाग्य रहा है कि नवगीत विधा जनसंवाद ई एवं लोक रंजन की परिभाषा को अपने कथ्य द्वारा पूरी तरह से साबित नहीं कर पाई जनसंवाद में सामान्य जन चेतना की बातें जीवन के अलग-अलग पहलू के साथ-साथ जन सरोकारों का जो आधार लोकगीत को पकड़ना चाहिए या नो गीत कारों को अपने रचना धर्मिता में लेकर आना चाहिए कहीं उससे यह दूर रहा वास्तव में लोकगीत विधा के रचनाकारों में आपसी मनभेद और मतभेद के साथ-साथ रचना प्रक्रिया एवं रचना धर्मिता में असहमति जिसे बाद में वयक्तिक असहमति मान लिया गया का बहुत बड़ी भूमिका रही जिसने इसे जन संवाद के रूप में जैन धर्मी के रूप में स्थापित होने में अवरोध उत्पन्न ने किया सामान्यतया गीत जो कि 9 गीत का मूल है और नो गीत जोगी गीत का उत्साह है यह दोनों आपस में पहलू होने चाहिए थे लेकिन यह आपस में विरोधाभासी हो गए और नवगीत कारों ने अपने आपको स्वयं को श्रेष्ठ मान लिया यहां तक तो ठीक था आप स्वयं को श्रेष्ठ मानले लेकिन इसके दूसरी तरफ उन्होंने गीत कारों को ही यह भी मांगने का कुत्सित प्रयास किया जो हमारे साहित्य में गिरोह बंदी की ओर इशारा करता है यही कारण रहा कि नवगीत में जैन धर्म राया लोकरंजन की जगह पंडित के प्रदर्शन प्रमुख हो गया ऊंचा सिल्क में हो या कथ्य में हो विद्वानों ने अपनी समस्त विद्युत आ को शब्दों के माध्यम से टकसाली शिल्प में शब्दकोश की अवधारणा को लेते हुए लोकगीत की रचना की जिसने नवगीत विधा के साथ-साथ साहित्य का बहुत बड़ा नुकसान किया।

प्रश्न 11 क्या नवगीत एक सीमित, बौद्धिक समाज तक ही सिमट कर रह गया है?

उत्तर_आपका यह प्रश्न मेरे पूर्व के उत्तर में अपना समाधान प्राप्त करता है लेकिन फिर भी मैं कुछ कहना चाहूंगा इस संदर्भ को लेकर कि लोकगीत विधा में लोकगीत का लेखन और लोकगीत का पठन दोनों ही कुछ निश्चित लोगों के हाथों में चला गया यहां पर अलग-अलग समूह एवं उप समूह बन गए और उस समूह में एक मुखिया और उसके तमाम चले चौपाटी बन गए जो एक दूसरे को महिमामंडित करते हुए श्रेष्ठ साबित करने की प्रक्रिया में शामिल हो गए जब लेखन कुछ सीमित लोग अपने पंडित प्रदर्शन के आधार पर करने लगे तो पठन भी चुकी जनसामान्य तक नहीं पहुंचा और कविता प्रकाशन और बिक्री की स्थिति को देखते हुए प्रकाश को ने भी इस से मुंह मोड़ लिया तो ऐसी स्थिति में आम लोगों तक इसकी पहुंच दुर्लभ हो गई मुझे एक बड़े सुनाम धन्य दशकों के नौ गीतकार जिनका नाम मैं नहीं लूंगा कि एक टिप्पणी याद आती है कि आज भी मैं अपनी पुस्तक छपवाने के लिए प्रकाशक को पैसे देता हूं और पाठक मुझसे फ्री में लेना चाहते हैं यह हिंदी साहित्य का बहुत बड़ा दुर्भाग्य है जहां पर हम मुफ्तखोरी की एक प्रथा में शामिल सभी लोग एक दूसरे से किताबें मुफ्त में पा लेना चाहते हैं और एक व्यक्ति जो किताबें छपवा आता है उनको बांट कर इतिश्री कर लेता है पानी वाला उसे पड़ता नहीं सिर्फ अपने घर के शोभा बना कर रख देता है यह बड़ा कारण है नवनीत के जैन धर्म इता में ना हो पाने का।

प्रश्न 12    हिंदी कविता की मुख्य धारा की आलोचना नवगीत का मूल्यांकन करने से क्यों बचती रही?

उत्तर_हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं में से नवगीत विधा पर यह आरोप लगता है इस विधा ने अपने लिए आलोचक नहीं तैयार की यह बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि प्रायोजित आलोचना ने किसी भी विधा का बहुत अधिक नुकसान किया है चाहे वह कोई भी साहित्यिक विधा हो हिंदी कविता में जिसे आप मुख्यधारा का नाम दे सकते हैं या दे रहे हैं वहां पर आलोचकों ने खूब कलम चलाई क्योंकि जो कभी थे वह स्वयं ही आलोचक भी थे और कविता पर स्वतंत्र चर्चा को बढ़ावा देते हुए आलोचना के नए नए आयाम तय किए गए नामवर सिंह ने जब कविता में से काव्य शास्त्रीय पक्ष से उसका निकाल करके उसमें समाजशास्त्रीय पक्ष को स्थापित किया तो वहीं से उन्होंने आलोचना के नए टूल्स तैयार करने पर बल दिया जिसके द्वारा कविता की आलोचना के लिए नए-नए मिथक गधे गए यह मिथक नवगीत में नहीं मिलता कारण बहुत सारे हो सकते हैं लेकिन मेरे समझ से जो एक महत्वपूर्ण कारण है कोई भी नौ गीतकार स्वयं में इतना आत्ममुग्ध है कि वह अपने नवगीत पर किसी भी तरह की टिप्पणियां चर्चा करना तो दूर उसके मूल्यांकन के लिए स्वयं को तैयार नहीं कर पाता है आत्महत्या की पराकाष्ठा यह है कि कुछ खेमे और खाते हैं जहां से उन्हें लिखने और लिखवाने की प्रायोजना एक सुरक्षित व्यू में रखती है जिसके कारण नवगीत विधा विपन होती चली गई लोकगीत तो लिखे जाते रहे लेकिन इस पर चर्चा नहीं हो पाई संवाद नहीं हो पाया और लोकार्पण और अनावरण में भी रश्मि एक कार्य बनकर रह गया किसी भी विधा को आगे बढ़ाने के लिए उसमें आलोचना का होना बहुत जरूरी है यदि आलोचक नहीं है तो वह विधा धीरे-धीरे मृतप्राय हो जाती है यहां लोकगीत विद्या के साथ यह बात जुड़ती है कि इसने अपने लिए अपने बीच से आलोचक नहीं तैयार किया।

प्रश्न 13 समकालीन कविता और नवगीत के बीच इतनी विभेदक रेखाएं क्यों खींची गयी हैं? क्यों उसे आलोचना जगत ने बहिष्कृत किया?

उत्तर_समकालीन कविता का अपना अलग परिदृश्य और परिवेश है जहां पर बड़े-बड़े अधिकारी बड़े-बड़े प्रोफेसर बड़े-बड़े नेता बड़े-बड़े उद्योगपति अपने आप को स्थापित करने के लिए साहित्य की विभिन्न धाराओं में ना जा करके अपने स्वयं की योग्यता के विकास से ज्यादा काव्य की धारा को अपने अनुरूप बनाने और मोड़ने का प्रयत्न किया यहां यह बात ध्यान देने की है कि उन्होंने गीत या नो गीत का अहित नहीं किया बल्कि गीत और लोकगीत ने उन्हें अपने से अलग करके अपने लिए एक अलग विभेदक रेखा खींच कर रखी जो इसके लिए दुर्भाग्यपूर्ण रहा सारे पत्र पत्रिकाएं सारे विश्वविद्यालय की एकेडमिक स्थितियां इनके हाथ में थी एक निश्चित योजना के तहत इन्होंने काम किया जिससे कि गीत लोकगीत हाशिए पर आते चले गए उन्होंने कहा कि गीत और गीत की चांद से अवधारणा के कारण उसमें अपनी बात पूरी तरह से नहीं कहा जा सकता यह बात अलग है कि विधायक के प्रति इनकी यह गैर जिम्मेदाराना वक्तव्य इनके अयोग्यता या उसके शिल्प की जानकारी ना होना ना मान करके कई दूसरे कारणों को सामने लाया गया जो अपेक्षित नहीं थे यह विवेक रेखा दोनों तरफ से खींची गई लोकगीत में भी कुछ मठाधीश जो आशीर्वाद की स्थिति में हमेशा बने रहते थे वह जिनको कह दे वह नव गीतकार हैं उनका नवगीत है वह जीने ना कहें वह अपनी पहचान के लिए संघर्ष करता पाया जाता था और कमोबेश यही स्थिति समकालीन कविता के साथ रही वहां भी अपने खेमे का चोर गिरोह बंदी रही जिसने की हिंदी साहित्य में एक नई निवेदक रेखा को बल दिया

प्रश्न 14    हिंदी साहित्य के विकास एवं प्रचार-प्रसार में पत्र-पत्रिकाओं का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है, परन्तु नवगीत पर केन्द्रित पत्रिकाओं का अभाव क्यों है ? 

उत्तर_पत्रिका प्रकाशन के लिए सबसे पहला कार्य होता है वित्त की व्यवस्था करना ज्यादातर पत्र पत्रिकाएं अकादमी द्वारा संचालित हैं जिन्हें और सरकारी कर सकते हैं और सरकारी अकादमी यों के शीर्ष पर बैठे हुए लोग जो नौकरशाहों उद्योगपति हो प्रोफेसरों वह कुछ और नहीं तो कभी जरूर बन गए और उन्होंने कुछ उल्टी-सीधी तुकबंदी आकर के गद्य लेखन करके अपने आप को कभी घोषित भी कर लिया और अपने तरह के लोगों को जोड़ करके आगे बढ़ते रहें और बढ़ाते रहें रही सही कसर गीत लोकगीत के रचनाकारों द्वारा स्वयं को एकांगी और कूप मंडूक ताके स्थिति तक ले जाने का बिरहा यही कारण है कि नई कविता के पैरों का रोने पत्रिकाओं को अपनी निजी विरासत बना ली और जितने भी बड़े घराने रहे वह पत्र-पत्रिकाओं में कौन प्रकाशित होगा क्या प्रकाशित होगा इसका ध्यान रखने लगे गीत और नवगीत की चांद सी योजना के अनुसार प्रकाशित होने वाली पत्र पत्रिकाओं के लिए सबसे बड़ी चीज तो फंड की व्यवस्था दूसरे इसका पाठक वर्ग और तीसरी वहां तक की पहुंच इन तीनों के कारण यह नवगीत केंद्रित गीत केंद्रित पत्र-पत्रिकाओं का अभाव तो नहीं कर सकते लेकिन मात्रा में यह अपेक्षित रूप से बहुत कम है और जो है अभी वह कितने दिन चल पाएंगे यह कहना बहुत मुश्किल है

प्रश्न 15    नवगीत की आलोचना को समृद्ध करने के लिए और क्या किया जाना चाहिए?

उत्तर_नवगीत की आलोचना के लिए सबसे पहले हमें नवगीत परक आलोचना के टूल्स बनाने आवश्यक है संवाद धर्मिता जैन धर्म ताकि ओर उन्मुख हो करके हमें अपने खिड़कियां और दरवाजे खोलने होंगे हमें अपनी आलोचना को सुनने का अपने अंदर साहस पैदा करना होगा और कार्य शालाओं के माध्यम से आलेखों के माध्यम से हम इन चीजों को सामने लेकर आ सकते हैं आलोचना केवल पुस्तक चर्चा नहीं है केवल समीक्षा नहीं है केवल खोज नहीं है खबर नहीं है परख नहीं है बल्कि यह व्यक्ति केंद्रित अथवा विधा केंद्रित दो तरह से चलती है जब हम व्यक्ति केंद्रित करते हैं तो उसकी सारी लिखावट में मूल चीजों को हम लेकर आते हैं जो बिरहा केंद्रित करते हैं तो उसने क्या-क्या लिखा है उन पर बात करते हैं और जब किसी पुस्तक केंद्र तो होता है तो वह हम उस पुस्तक में आई रचनाओं पर अपनी बात कहते हैं इसके लिए हमें कुछ उपकरण तलाशने होंगे उन उपकरणों पर ध्यान देते हुए एक मानक बनाकर के आलोचना को आगे बढ़ाया जा सकता है आलोचकों को पैदा किया जा सकता है सबसे बड़ी बात यह है कि हमें अपने उस आत्मा के आवरण को भेद कर बाहर निकलकर जनसंवाद की स्थितियों तक स्वयं को लाना होगा तभी हम ऐसा कर पाएंगे

प्रश्न 16 नवगीत परम्परा को प्रतिष्ठा दिलाने का श्रेय आप किसे देते हैं?

उत्तर_लोकगीत की परंपरा आपके प्रश्न का यह हिस्सा अपने आप में बहुत ही विवादित है क्योंकि जो हम परंपरा की बात करते हैं तो वहां व्यक्ति प्रमुख नहीं होता विधा प्रमुख होती है और आपने व्यक्ति का नाम लिया है अब मैं यहां पर निराला को कहूं तो केदार रह जाते हैं केदार को कहूं तो राजेंद्र प्रसाद सिंह रह जाते हैं राजेंद्र प्रसाद सिंह को कहूं तो शंभूनाथ सिंह रह जाते हैं शंभूनाथ सिंह को कहो तो देवेंद्र शर्मा अंदर रह जाते हैं वीरेंद्र मिश्र रह जाते हैं उमाकांत मालवीय रह जाते हैं राजेंद्र गौतम रह जाते हैं वास्तव में परंपरा युग की परंपरा होती है एक कालखंड में सक्रिय बहुत सारे रचनाकारों के द्वारा रची गई रचनाओं के माध्यम से उस समय की परंपरा बनती है और इस परंपरा में योगदान देने वाले बहुत सारे लोग अपने कार्यों के द्वारा अपने लेखों के द्वारा अपनी रचनाओं के द्वारा उसे समृद्ध करते हैं तो इस तरह से मैं इसमें किसी एक व्यक्ति को श्रेय नहीं देना चाहूंगा मैंने कुछ नाम लिए हैं मैं तो यह कहता हूं कि आज नव प्रवेश e9 गीतकार जो पहला नो गीत लिखता है वह भी उतना ही महत्वपूर्ण उतना ही मजबूत है जितना इसके स्थापना को लेकर के सक्रिय रहने वाले रचनाकार क्योंकि यह जिंदा तभी रह पाएगी जब नए अंकुर फूटते रहेंगे

प्रश्न 17    अपनी छः दशकों की यात्रा में नवगीत को महिला साहित्यकारों का साथ क्यों नहीं मिल पाया?

उत्तर_लोकगीत लेखकों को महिला और पुरुष में बांटना मेरे समस्या उचित नहीं है कई महिलाएं रही भी हैं शांति सुमन से लेकर के यशोधरा राठौर तक की परंपरा जो है लेकिन हां अपेक्षाकृत कम महिलाएं इस क्षेत्र में आई हैं शायद विधायक लिस्ट था या दूर होता या जल्दी नाम कमाने की स्थितियों को ना देखते हुए इधर आना उन्होंने स्वीकार नहीं किया होगा क्योंकि कठिनाई जब हमारे सामने आती है तो समाधान लेकर आती है रचनाओं को रचने के क्रम में महिला साहित्यकारों ने नवगीत की तरफ ध्यान नहीं दिया या लोकगीत ने अपने दरवाजे उस तरह से नहीं खोलें जिससे कि यहां पर कोई भी रचना कार्य को समर्पित महिला या पुरुष उस रूप से आ सके आज भी उंगलियों पर गिने जाने वाले लोग लोकगीत लेखन में है दूसरी चीज है कि कोई भी रचनाकार महिला हो या पुरुष उस तरफ जाता है जहां पर पुरस्कार यस सम्मान धन मान प्रतिष्ठा की अपेक्षित मात्रा उसका इंतजार कर रही हो नवगीत के मामले में ऐसा नहीं देखा एक यह भी कारण रहा कि यहां पर पुरुष या महिला रचनाकार कम जुड़ पाए हैं और आगे यह संख्या निरंतर कम होती चली जा रही है

प्रश्न 18    21वी सदी के नवगीतों में युगबोध किस प्रकार व्यक्त हो रहा है?

उत्तर_जब हम 21वीं सदी की बात करते हैं तो यहां पर किसी भी रचनात्मक विधा के साथ-साथ तकनीकी ज्ञान और तकनीकी ज्ञान के प्रयोग की बातें सहज उद्घाटित होती हैं आज का युग विज्ञान का युग है विज्ञान में भी बहुत सारे नए नए आयामों के सृजित होने का युग है निश्चित तौर पर इस कालखंड में रखे जाने वाले साहित्य में यह योग ध्वनित होना चाहिए यदि हमारे रचनाओं में यह चीजें आ रही हैं तो हम कहेंगे कि युगबोध हमारी रचना धर्मिता के साथ-साथ चल रहा है यदि हम अब भी 40 साल 50 साल पूर्व की बातें लेकर आ रहे हैं तो निश्चित तौर पर यह हमारे रचना धर्मिता के साथ अन्याय माना जाएगा जो स्वयं हमारे द्वारा किया जा रहा है 21वीं सदी में परिवार विवाह जैसी संस्थाओं का श्री सकता हुआ कालखंड व्यक्ति के नए-नए पहनावे नए-नए विचार नई-नई भाव भंगिमा है इन सब पर साथ ही साथ जीवन के उतार-चढ़ाव में अलग-अलग अभिव्यक्त हो रहे भावों को स्वर देना इस युग की प्रमुख मांग है अब यह देखने की बात है कि 21वीं सदी में लोकगीत के अंतर्गत हम कितना इनका ध्यान रख पा रहे हैं!

प्रश्न 19 आधुनिक युगबोध में सम्मिलित तत्त्व यथा वैश्वीकरण, उत्तर आधुनिकतावाद, बाजारवाद, माहामारी, राष्ट्रवाद आदि को नवगीत किस प्रकार व्यक्त कर रहे हैं?

उत्तर_आपने जिन स्थितियों और विकारों का वर्णन किया है अपने प्रश्न में निश्चित तौर पर आज के लोकगीत में यह मुखर हैं रचनाकारों द्वारा इन्हें पूरी तरह से सिर्फ बंद कर के सामने लाने की प्रक्रिया को देखा जा रहा है वह भोपाल के मनोज जैन मधुर हो या मुरादाबाद के योगेंद्र वर्मा व्योम अथवा अवनी सिंह चौहान यह संगीतकार है जो आज के नए परिवेश में नए कथ्य को लेकर के सामाजिक ताने-बाने और जन सरोकारों से आवत रचनाओं को प्रस्तुत कर रहे हैं यह अपने आप में बहुत ही प्रसन्नता का विषय है कि युवक को लेकर के नवीनतम शिल्पी योजना के मद्देनजर नवगीत का सृजन चल रहा है जो बहुत ही प्रसन्नता का विषय है इसे निरंतर आगे बढ़ते रहना होगा जिसके लिए हमें कहीं ना कहीं आत्माओं लोकन करते हुए आत्मा से बच कर के आने वाले नई पीढ़ी के लिए एक शब्द सहारा प्रेरणा और रास्ता देना होगा।

प्रश्न 20 दलित, स्त्री, आदिवासी आदि विमर्शों में नवगीत का स्थान क्या है? क्या यह वर्तमान विमर्शों को व्यक्त कर पा रहा है?

उत्तर_वास्तव में नवगीत ने अपने लिए कुछ निश्चित सूत्र और श्रेणियां बना रखी है जो इसके रचनाकारों द्वारा अपने सुविधाजनक जोन में रहने को लेकर के कहीं जा सकती हैं आज के समय में आदिवासी हो या स्त्री विमर्श हो अथवा अन्य तरह के दलित विमर्श हो इनको रचनात्मकता में पूरा आख्यान ओं के माध्यम से आज के युग धर्म को शब्दों और शिल्प के द्वारा प्रस्तुत किया जाना अति आवश्यक है और बहुत सारा नवगीत इस तरह से लिखा भी जा रहा है रमेश रंजन की रचनाएं हो या माहेश्वर तिवारी की देवेंद्र शर्मा इंद्र की रचनाएं हो या योगेंद्र दत्त शर्मा की मयंक श्रीवास्तव भोपाल से लिख रहे हो या कानपुर से वीरेंद्र आस्तिक नचिकेता तो इन सब में सबसे मुखर और सशक्त गीतकार संगीतकार कहे जा सकते हैं हम यह कह सकते हैं कुल मिलाकर के भी हमारी पूर्व और नवीनतम पीढ़ी इन विषयों को लेकर के लोकगीत रच रही है और उनका स्वागत भी हो रहा है!

प्रश्न 21     वर्तमान नवगीतकारों के नवगीतों को दृष्टिगत रखते हुए, आपको नवगीत विधा का भविष्य कैसा प्रतीत होता है?

उत्तर_लोकगीत विधा के भविष्य की बात यदि आप करते हैं तो निश्चित तौर पर इसमें बहुत कुछ सोचने और बहुत कुछ करने की आवश्यकता है सबसे पहले तो हमें नवगीत के शिल्प और नवगीत के कथ्य को लेकर के बहुत सारे मानक और उपकरण निर्मित करने होंगे और यहीं से आलोचना के रास्ते निकलते हैं मैंने पहले भी आपके प्रश्न के उत्तर में कहा है कि आलोचना 3 या 4 तरह से की जा सकती है व्यक्तित्व का लोचना रचना परक आलोचना व्यक्ति फरक आलोचना में व्यक्ति का समग्र चिंतन समग्र सर्जन आ सकता है या व्यक्ति के नव गीतकार के रूप में उसका मूल्यांकन आ सकता है रचना का द्वारा उसके किसी एक पुस्तक को केंद्र में रखकर के उस पर की गई टिप्पणी या समीक्षा भी आलोचना के रूप में रखी जा सकती है जब हम श्री जैन धर्म की आलोचना की बात करते हैं तू रचनाकार के समस्त सृजन को भी लेकर चल सकते हैं अथवा उसके द्वारा सृजित किसी एक विधा की किसी एक पुस्तक को लेकर चलते हैं मूलत हम देखें तो किसी व्यक्ति के एक गीत को लेकर के भी संवाद और पर चर्चा की जा सकती है आज परिचर्चा का वह दौर वह संवाद की स्थितियां हमारे मध्य से लुप्त प्राय है उसको पुनर्जीवित करना होगा कार्य शालाओं के माध्यम से परिचर्चा ओं के माध्यम से हम इस विधा को निरंतर समृद्ध कर सकते हैं और ऐसा किया जाना चाहिए!

प्रश्न 22    अनेक महाविद्यालयों/विश्वविद्यालयों में नवगीतों पर हुए शोध/हो रहे शोध कार्य, को आप नवगीत के विकास में कितना अहम मानते है? 

उत्तर_संजय जी आपका प्रश्न बड़ा उचित है परंतु यह प्रश्न जितना सहज और सरल दिखाई पड़ रहा है इसका उत्तर उतना ही दुरूह एवं कठिन है मित्र वास्तव में आज के समय में उच्च शिक्षा के अंतर्गत शोध निर्देशकों द्वारा शोधार्थियों से कराया जा रहा अधिकतम काम कॉपी पेस्ट के रूप में सामने आ रहा है दूसरी बात इसमें चयन में एक निश्चित आ देखी जा रही है लोक परिचय के माध्यम से एक दूसरे को प्रायोजित करके अपना कार्य कर रहे हैं यहां पर मौलिकता और प्रामाणिकता का भाव दिख रहा है जो बहुत ही कठिन है और अब प्रामाणिक है हमें यहां पर किसी भी तरह की कोटि का निर्धारण न करके अपने मन से चीजों का संग्रहण करना बहुत ही अलार्म कर प्रतीत हो रहा है उच्च शिक्षा के अंतर्गत ऐसे शोध केवल शोध उपाधि प्राप्त करने तक सीमित होते हैं मैं नहीं देख पा रहा हूं कि इनमें से कितने प्रकाशित हो रहे हैं कितनों पर चर्चा हो रही है कितनों का मूल्यांकन किया जा रहा है कुछ इन्हीं बातों को लेकर के विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने शोधगंगा नाम से इन शोध प्रारूप शोध ग्रंथों को रखने का एक व्यवस्था किया और जो मैंने कॉपी पेस्ट कहा है उसकी जांच के लिए तमाम तरह के उपकरण विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा बनाए गए हैं जिससे चेक किया जाता है कि कितनी चीजें रिपीट है या कहीं और से कॉपी की हुई है यह हमारे बात को प्रमाणित करने का भारत के उच्च शिक्षा के सर्वोच्च विधाई संस्थान द्वारा अपनाए जा रहे मां को और क्रियाकलापों के द्वारा भी सुनिश्चित देखा जा सकता है इससे बचने की जरूरत है जब तक हम इससे नहीं बचेंगे कठोर मानदंड नहीं आएंगे प्रामाणिक मानदंड नहीं आएंगे तब तक उच्च शिक्षा में हो रहे शोध ऐसे ही अपनी स्थिति को आते रहेंगे!

प्रश्न 23    नवगीतों पर कार्य कर रहे शोधार्थियों को आप क्या संदेश देना चाहेंगे ?

उत्तर_संजय यादव जी सबसे पहले मैं आपका धन्यवाद करना चाहता हूं कि आपने मुझे एक अवसर दिया जिसमें मैं अपने अतीत के साथ-साथ रचना धर्मिता और युगबोध पर स्वयं के विचार व्यक्त कर सका शिल्प और कथ्य को लेकर के लोकगीत कारों की परंपरा परिपाटी को लेकर के मूल्यांकन को लेकर के आपके द्वारा दिए गए प्रश्नों पर अपनी सामर्थ्य और अपने अनुभव के अनुसार मैंने उत्तर देने का प्रयत्न किया है और इसके लिए आपको धन्यवाद भी देता हूं आपने शोधार्थियों के लिए कुछ करने की बात कही है तो मैं इस प्रश्न के पूर्व प्रश्न में कुछ समस्याएं कुछ औरतों का मने जिक्र किया है शोधार्थियों को इनसे बचने की जरूरत है अपने अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए अपने कार्य को पूरी तरह मौलिक रखना होगा और शोध के उपरांत भी उन्हें इस तरह के कार्यों से जुड़े रहने का संकल्प व्यक्त करना होगा जिससे कि भारतीय वांग्मय में हिंदी साहित्य इस की विधाएं गद्य और पद्य और इन दोनों विधाओं के अनेकानेक रूपा कारों में स्वतंत्र रचना धर्मिता को जन सरोकारों को प्रतिबद्धता पूर्वक आगे बढ़ने में सहायता मिल सके एक बार पुनः आपका धन्यवाद!