शनिवार, 19 फ़रवरी 2022

साक्षात्कार "समीक्षा का यथार्थ – साक्षात्कार "डा जय शंकर शुक्ल

साक्षात्कार 

"समीक्षा का यथार्थ – साक्षात्कार "

डा जय शंकर शुक्ल

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सम्पूर्ण-परिचय : नाम:-डॉ जयशंकर शुक्ल. माता-पिता:-श्रीमती राजकली शुक्ला एवं श्री सूर्य प्रताप शुक्ल. जन्म-तिथि:-दो जुलाई सन् उन्नीस सौ सत्तर (०२-०७-१९७०) जन्म-स्थान:-गाँव+पोस्ट-सैदाबाद, जिला-इलाहाबाद,उ.प्र.-221508. वर्तमान पता:-भवन सं-49,पथ सं.-06,बैंक कॉलोनी,मण्डोली दिल्ली-110093 शिक्षा:-एम.ए.(हिन्दी,प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति),एम.एड.,पी-एच.डी., नेट/जे.आर.एफ,साहित्यरत्न, प्रकाशन :- काव्य-कृतियाँ :- 1-किरण (काव्य-संग्रह) 2-क्षितिज के सपने (काव्य-संग्रह) 3-क्रान्तिवीर आजा़द(महाकाव्य) 4-तम भाने लगा (काव्य-संग्रह) 5-समझौते समय से(दोहा-सतसई) 6-आह्लादिनी (खण्ड-काव्य) गद्य-कृतियाँ :- 7-बेबसी (कहानी-संग्रह) 8-संदेह के दायरे(कहानी-संग्रह) 9-भरोसे की आँच(कहानी-संग्रह) 10-दरकती-शिलाएँ(लघुकथासंग्रह 11-कुछ बातें-कुछ मुलाकातें (साक्षात्कार-संग्रह) 12-साहित्यिक-अन्तर्वार्ताएँ (साक्षात्कार- संग्रह) 13-अधूरा-सच (उपन्यास) 14-पराये-लोग (उपन्यास) 15-नवगीत के नए विमर्श (आलेख-संग्रह) 16-बौद्ध मठों के आर्थिक आयाम (शोध-ग्रंथ) 17-व्यंग्य-संग्रह (आलेख-संग्रह) संपादन :- पुस्तकें :- 1-उद्घोष (काव्य-संकलन)2004 2-नवोदयकीआस(काव्य-संग्रह)2006 3-भारत के साहित्यकार 2012 4-भारतीय-विचारक 2012 5-जननायक-चन्द्रशेखर (आलेखसंग्रह) दो संस्करण 2014 पत्रिकाएँ :- 6-मानसहंस श्रीराम(2000-2008) 7-विश्ववंद्य श्रीराम (2000_2008) 8-गगन-स्वर (2011-2013) 9-ट्रू मीडिया (2012-2014) 10-शिक्षा एवं धर्मसंस्कृति (2012-अबतक) 11-देवगंधा (2013-अबतक) 14-सृजन से (2013-अबतक) 15-तत्व-दर्शन (2015-अबतक) 16-बैसवारा (2015-अबतक) सम्मान/पुरस्कार :- विभिन्न शासकीय/अशासकीय संस्थाओं से पुरस्कृत विविध :- -दूरदर्शन से कविताओं का सरस प्रशारण -आकाशवाणी से रेडिओ वार्ताओं/रेडिओ समीक्षाओं का प्रशारण -विभिन्न संस्थाओं/गोष्ठियों मे रचनाओं की सरस प्रस्तुति -विभिन्न समितियों/संस्थाओं की सक्रिय सदस्यता व संचालन सम्पर्क-सूत्र :- भवन सं.-49, पथ सं.-06, बैंक कॉलोनी, मण्डोली, दिल्ली-110093 Ph 09968235647 09013338337.

ब्लॉग का पता: 

drjayashankarshukla.blogzpot.com

सम्पूर्ण परिचय 

नाम   :   अनिल कुमार पाण्डेय C:\Users\dell-pc\Desktop\unnamed.png

माता-पिता       :   श्रीमती गुजरती देवी एवं स्व० रामसमुझ पाण्डेय 

जन्म-तिथि       :   10, जुलाई, सन् 1985 ई० |

जन्म स्थान      :   गाँव-फत्तुपुर कलां, पोष्ट-रामनगर, जिला-जौनपुर, उ०प्र०, 222202 

शिक्षा           :    एम० ए० (हिन्दी), नेट/जे. आर. एफ. |

कार्यक्षेत्र         :    शोधरत  (पी-एच० डी०) हिन्दी-विभाग, पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ |

लेखन-विधाएँ     :    कविता, कहानी, लाभुकथा, समीक्षा, संस्मरण, साक्षात्कार |

प्रकाशन         :    काव्य कृतियाँ :- 1. रचना के स्वर                                 सन् 2014 (वोईस पब्लिकेशन )  

                    गद्य कृतियाँ :- 1. साहित्य का यथार्थ                सन् 2015 (उत्कर्ष प्रकाशन)       

  3. ‘बेबसी’ के यथार्थ का आलोचनात्मक अध्ययन     सन् 2014 (उत्कर्ष प्रकाशन)                              

 4..नवगीत साहित्य का यथार्थ (प्रकाशकाधीन)

5. मीडिया, हिन्दी और मीडिया का यथार्थ (प्रकाशकाधीन) 

 6. इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक की कहानियों में नारी स्वर (प्रकाशकाधीन)

सम्पादन        :  काव्य कृतियाँ :-1. अनुभूतियों के स्वर (भाग-1) (प्रकाशकाधीन) 

 गद्य कृतियाँ :-2. कृतित्व के आइने में डॉ० जयशंकर शुक्ल का मूल्यांकन (प्रकाशकाधीन)

विविध          :     -विभिन्न संस्थाओं/गोष्ठियों में रचनाओं की सरस प्रस्तुति 

 -विभिन्न समितियों/संस्थाओं की सक्रिय सदस्यता व सञ्चालन 

-संपर्क-सूत्र :-

 हिन्दी-विभाग, पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़, 160014 |

  मो०- 8528833317,8009612713,

  ईमेल-anilpandey650@gmail.com 

ब्लॉग पता-rachnawli.blogspot.com

समय समाज और संत साहित्य का यथार्थ : साक्षात्कार 

   समीक्षा का यथार्थ – साक्षात्कार 

प्रश्न : अनिल कुमार पाण्डेय : भारतीय वांग्मय में परम्पराओं से क्या अभिप्राय है? सिद्ध, नाथ और संत साहित्य मूलधारा में किस हद तक समीचीन हैं | आपकी दृष्टि में हिंदी संत-साहित्य का प्रारंभ किस कवि से मनना उचित होगा? 

उत्तर : डॉ० जयशंकर शुक्ल : भारत में परंपरा और उसका प्रारंभ सदा से ही चर्चा के केंद्र में रहा है | हमारे यहाँ सिद्ध नाथ एवं संत ये तीन परम्पराएं अपने उद्भव काल से ही चर्चा में रही हैं | इनके उद्भावक एवं साहचर्य के रूप में कदमताल करने वाले मनीषियों का जीवनकाल न केवल प्रेरणादायी रहा है अपितु सर्वधर्म समभाव का भी द्योतक रहा है | आज हिंदी कविता का उद्भव हम जिस विन्दु से तलाशने का प्रयास करते हैं वह भ्रान्तिपूर्ण है | अनिल जी मेरा व्यक्तिगत मानना यह है कि हमारे यहाँ की समाज सुधारकों की कालजाई कार्य-योजनाओं में साहित्य के मूल को खोजा जाना चाहिए | सिद्ध संप्रदाय में उसके प्रवर्तक एवं सहधर्मी विद्वत जनों के वचन आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, परम्परानुमोदन से बचते हुए नवीनतम सत्य की प्रतिष्ठापना में संलग्न इन सिद्धों ने काल के पटल पर न केवल सत्य की नवीन धाराओं का अनुसंधान किया वरन् जनमानस में गहरे पैठ बनाने वाली रचनाओं का प्रणयन भी किया हैं, जो आज भी जनसामान्य के जीह्वा पर चढ़े हुए हैं, भले ही वे उनके रचनाकार को न जानते हों | यह हमारी निष्ठा, समर्पण एवं सादगी का अभूतपूर्व प्रमाण है | सिद्धों नाथों एवं संतों की परंपरा एक दूसरे से कड़ियों के रूप में जुडी हुई है | नई परंपरा पिछली परंपरा के ध्वंश पर स्थिर न होकर उसके विकास के क्रम को दर्शाती हैं| क्रियापरक योग पद्धति एवं रहस्य की अनुगूंज, पहेलियों को अपने रचनाओं में शब्द देने वाले ये विद्द्वान आज भी अनुसंधान की बाट जोह रहे हैं |

      संत परंपरा के अवगाहन के फलस्वरूप हमें जो नाम प्रमुखता से अपनी ओर आकृष्ट करता है, वह नाम सुन्दरदास का है | वे न केवल पुरातन का अधुनातन के सरोकारों के साथ समन्वय स्थापित किया है वरण उन्होंने मिथकों को समयबद्ध ढंग से अपनी रचनावली में स्वर दिया है |   

प्रश्न : अनिल कुमार पाण्डेय : साहित्य में निर्गुण विचारधारा की क्या उपादेयता है? क्या सगुण साहित्य के प्रति आत्म मुग्धता ने निर्गुण साहित्य को उपेक्षित किया है? 

उत्तर : डॉ० जयशंकर शुक्ल : साहित्य एकात्म रूप, अखण्ड और समन्वयकारी होता है | निर्गुण और सगुण का विभेद बीसवीं सदी के आलोचकों द्वारा डाला गया है क्योंकि जिन कवियों को सगुण शाखा में सूचीबद्ध किया जाता है उन्होंने निर्गुण रचनाओं को भी शब्द दिए हैं और जिन्हें निर्गुण शाखा का कवि माना जाता है उन्होंने अपने रचनावलियो में सगुण शाखा के नायकों को बहुतेरा चित्रित किया है | ज्ञान को शाखाओं-प्रसखाओं में बांटना ज्ञान के अवहेलना के रूप में माना जा सकता है | स्वानुभूत तथ्यों को विविध रूपाकारों में ढालकर व्यंजित करना एक कवि का स्वाभाविक कर्म है | कवि अपने श्री की तलाश में मार्ग ढूँढते-ढूँढते कहीं न कहीं जाकर स्थिर होता है | यदि ऐसा न होता तो रामानंद से दीक्षा प्राप्त करके कबीर निर्गुण शाखा के शीर्षस्थ कवि न बनते | जनसामान्य अपनी अपेक्षाओं को अपने जरूरतों के साथ जोड़ता रहा है | राम और कृष्ण आमजन के महानायक रहे हैं | सोऽहं भाव से अखण्ड वृत्ति लगाने की सलाह दने वाले गोस्वामी तुलसीदास सगुण-भक्ति-शाखा के न केवल श्रेष्ठ कवि अपितु विश्व के सर्वश्रेष्ठ कवि माने जाते हैं | 400 वर्षों से ‘श्रीरामचरितमानस’ का घर-घर पूजा और पारायण किया जा रहा है जबकि कबीर को ढूंढकर लाने का श्रेय पिछले 100 वर्ष पहले जार्ज ग्रियार्शन को जाता है | बाद में आचर्य रामचंद्र शुक्ल के वैचारिक विभिन्नता के बावजूद आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा कबीर पर लिखा गया ग्रन्थ निर्गुण और सगुण के बीच की खाई को पाटने में भले ही काफी हद तक सफल रहा हो पर उनके इस कार्य ने निर्गुण साहित्य शाखा के अन्य संतों को उपेक्षित जरूर किया है | 

प्रश्न : अनिल कुमार पाण्डेय : आपकी नजर में संत कौन है ? क्या सगुण भक्ति काव्य के कवियों को भी संत की ही दृष्टि से देखा देखा जा सकता है?

उत्तर : डॉ० जयशंकर शुक्ल : हमारे यहाँ शास्त्रों में स्पष्ट निर्देश है की संत वही है जिसके संशयों का अंत हो गया हो | हमारा दर्शन संशय से शुरू होता है और जब संशय निर्मूल होते हैं तब हम अपने श्रेय को प्राप्त करते हैं | अब वह श्रेय प्रेय भी है अथवा नहीं यह देखने की बात है | पाश्चात्य धर्म-संस्कृति में संत की उपाधि देने के मानक चाहे जो भी हों हमारे यहाँ संत के लिए उसका आचार-विचार, संस्कार, पूजापद्धति, नामजप आदि के द्वारा ही संत की मान्यत दी जाती रही है | हमने हर तरह की विचारधारा को सदा से ही अपनाया है | अगर हमने शंकर और रामानुजन की विचारधारा से प्रेरणा ली है तो चार्वाक को भी हमने नहीं भुलाया है | मैनें पहले प्रश्न के उत्तर में इस बात को स्पष्ट किया है कि सगुण और निर्गुण की शिविर-बद्धता हमारी दी हुई है | ऐसे में सगुण और निर्गुण दोनों धाराओं के प्रतिपादक रचनाकार संत ही माने जाने के योग्य हैं | उपासना पद्धति एवं उपास्य देव का अंतर दोनों धाराओं में प्रमुख है | सगुण शाखा में स्वामी और सेवक का भाव बनाए रखकर अपने प्रेय और श्रेय को पाने के लिए व्यक्ति सतत् प्रयत्नशील रहता है | यहाँ पर व्यक्ति में अहम् शून्यता होना पहली शर्त है | यह मार्ग अपने अंत में प्राप्ति को उसी चरम के रूप में ही निर्धारित करता है जो निर्गुण धारा का प्रमुख ध्येय है | निर्गुण धारा में रहष्य और क्रियापरक ध्यान उसका प्रमुख चरण है | दोनों के बीच में अर्थात सगुण धारा और निर्गुण धारा के मध्य अहम् महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है | सगुण धारा में उपासक साधनारत रहता हुआ भी सिद्ध होने से बचता है जबकि निर्गुण धरा में व्यक्ति की सिद्धि प्रमुख है | अब यह मानने वाले पर निर्भर करता है कि वह किसे प्रमुख समझे और किसे गौण | किसे संत समझे और किसे संत न समझे |

प्रश्न : अनिल कुमार पाण्डेय : निर्गुण एवं सगुण संतों के मध्य व्याप्त विरोधाभासों पर आपका क्या विचार है?

उत्तर : डॉ० जयशंकर शुक्ल : निर्गुण एवं सगुण धारा का अंतर इसकी प्रक्रिया उपास्य-देव और क्रिया पद्धति में है | विरोधाभाषों पर विचार करने से पहले हम समानताओं पर विचार कर लें | दोनों ही धाराओं में व्यक्ति का चरम लक्ष्य आत्मसाक्षात्कार है | दोनों में ही व्यक्ति अपने पूर्व कृत कर्मों के बीज के विनाश पर निर्भर करता है | आत्मसाक्षात्कार की अवस्था को प्राप्त करने के लिए बनी हुई सीढियां सगुण एवं निर्गुण दोनों धाराओं के परिनिष्ठित व्यक्ति द्वारा प्राप्त किया जाना शक्य है | सगुण शाखा में व्यक्ति जप, सुमिरन, मनन, कीर्तन, भजन, के द्वारा ध्यान, धारण और समाधि तक पहुंचता है | यहाँ पर द्वैत का भाव होता है | उपासक स्वामी और सेवक का भाव जन्म जन्मान्तर तक बनाए रखना चाहता है | उसका पूज्य सर्वगुण संपन्न और सर्वश्रेष्ठ होता है | श्रृष्टि में उसके समकक्ष उपासक की दृष्टि में कोई भी नहीं होता जबकि निर्गुण शाखा में व्यक्ति स्वयं को सिद्ध करने की ओर बढ़ता है | वह क्रियापरक योग साधना के बल पर स्वयं के षट्चक्रों का क्रमशः भेदन करके सहस्त्रार्थ तक पहुँचाना अपना चरम लक्ष्य मानता है | और इस तरह वह जीव को ही शिव बनाने की प्रक्रिया में लगा रहता है | निर्गुण धारा के अंतर्गत व्यक्ति का आदर्श वह स्वयं होता है | यहाँ पर उसकी इच्छा प्रमुख होती है | वह संसार की समस्त संभावनाएं मानव मात्र के अंतर्गत अर्थात स्वयं में देखता है और इसे सिद्ध करना उसके जीवन का अंतिम सत्य होता है | वह 20 तत्वों के कारण शरीर और चार तत्वों के सूक्ष्म शरीर दोनों कही अतिक्रमण करके इनके अधिष्ठाता परमात्मा का स्वयं में दर्शन कर स्वयं को उसके समकक्ष ला खड़ा करता है |  

प्रश्न : अनिल कुमार पाण्डेय : निर्गुण संतों की दार्शनिक चेतना को जब हम परिभाषित करते हैं तो अक्सर उनकी सम्पूर्ण दृष्टि शंकर के अद्वैतवाद तक ही सीमित होती दिखाई देती है, इसका मुख्य कारण क्या है?

उत्तर : डॉ० जयशंकर शुक्ल : अनिल कुमार पाण्डेय जी आपके इस प्रश्न में आपने शंकर के अद्वैतवाद को आधार मानते हुए निर्गुण धारा को उस पर केन्द्रित कर सीमाओं को निश्चित करने का उपक्रम किया है | जबकि आपको भी यह पता है की शंकर समावेशी धारणा के सर्वप्रमुख  और उच्च मानदंडों के आचार्य रहे हैं | हम जब भी कहीं किसी तुलना की बात करते हैं वहां हमारी बात आरोपित सी होने लगती है | क्या एक पक्षीय विचारधारा और एकांगी सूत्रों को लेकर तुलना करने का यह प्रयत्न उचित है? मैं मानता हूँ की निर्गुण धारा अद्वैत के विचार श्रंखला का अनुमोदन करती है | यह एक दृष्टि से ईश्वर को स्वयं में देखने का माध्यम है | जिसका विषद विवेचन आचार्य शंकर की शिक्षाओं में देखा जा सकता है | परन्तु यह देशकाल, वातावरण और परिस्थितियों पर निर्भर करता है | शंकरभाष्य और सूत्रों द्वारा जनजन में सगुण-भक्ति की अलख जगाने वाले आचार्य शंकर को उनकी पूजा पद्धति के एक तंतु के आधार पर निर्गुण संतों की दार्शनिक चेतना से जोड़ दिया जाना कहाँ तक प्रासंगिक है? यह विचार का विषय है | निर्गुण संतों की उपासना पद्धति, रहस्य, क्रियापराकता योग की दुरूहता को आचार्य शंकर ने बहुत नजदीक से देखा है | यह हमारे सोचने-समझने और मानने पर निर्भर करता है कि हम उसे कहाँ से जोड़ें | हमने अक्सर सगुण-भक्ति शाखा को भी रामानन्द से जोड़कर देखा है | जबकि रामानंद से दीक्षित उनका एक शिष्य जन-मान्यताओं में, जन-प्रचालन में निर्गुण धारा के शीर्ष पर विद्यमान है | अब यह शोध और अनुसंधान का विषय है कि हम मान्यताओं को व्यक्ति से कब तक जोड़ते रहेंगे |

प्रश्न : अनिल कुमार पाण्डेय : आज बहुत से लोग संत साहित्य को विभागीय पाठ्यक्रमों से निकाल देना चाहते हैं और यदि ऐसा होता है तो आपकी दृष्टि में साहित्य और भाषा के क्षेत्र में इसका क्या प्रभाव पड़ेगा ?

उत्तर : डॉ० जयशंकर शुक्ल : हमारे जीवन के सूत्र हमारे ही देशकाल, वातावरण और परम्पराओं में मिलते हैं और हमें इसे वहीँ से जोड़कर देखना भी प्रासंगिक है | हमारे पिता पारंपरिक अवधाराणाओं से जुड़े प्राचीन हो जाएं तो क्या हम उन्हें पिता कहना छोड़ दें? मैं यह प्रश्न उन तमाम लोगों के सामने बड़ी विनम्रता से रखना चाहता हूँ जो इस तरह की चर्चा में संलग्न हैं | पाठ्यक्रम का निर्धारण भावी पीढ़ी के निर्माण के लिए किया जाता है जो देश के श्रेष्ठ नागरिक बनकर उसकी अस्मिता की रक्षा करते हैं | साथ ही साथ अपने परिवार का, अपने सामाज का भरण-पोषण करते हुए मूल्यों-मान्यताओं, आदर्शों एवं विश्वासों का अक्षरशः पालन करते हुए रहन-सहन, खान-पान, जीवन के ढंग में अपनी गौरवमई परम्पराओं का संचरण चाहते हैं | पाठ्यक्रम व्यक्ति को व्यक्ति बनाने की क्रिया का एक सोपान है जिसमे सम्बंधित देशकाल, वातावरण की सारी संभावनाओं का सघनित रूप होना आवश्यक है | धर्म, जाति, भाषा , क्षेत्र, पंथ, संप्रदाय में एकरूपता और एकजुटता के सूत्र आखिर हम कहाँ से ढूंढेंगे | अनिल जी हम आपसे पूछते हैं आखिर पाठ्यक्रम निर्माण में आपकी प्रतिबधता क्या है? आप पाठ्यक्रम में क्या चीजें रखना चाहेंगे? चूंकि भारत और भारतीयता को आप तिरोहित करना चाह रहे हैं, तो जवाब दीजिए की आप विश्व के किस भूभाग के विचार धाराओं को भारतीय विचारधाराओं के स्थान पर स्थापित करना चाहते हैं और क्यों?  

प्रश्न : अनिल कुमार पाण्डेय : आज के समकालीन रचनाधर्मिता पर संत साहित्य का प्रभाव कहाँ तक दिखाई देता है आपको?

उत्तर : डॉ० जयशंकर शुक्ल : समकालीन रचनाधर्मिता स्थापित परम्पराओं का अनुमोदन करती है | हर रचनाधर्मी अपनी रचनाओं में प्रतीकों, विम्बों, प्रस्तुत–अप्रस्तुत योजनाओं, लक्षणों, संवेदनाओं में एक आधारभूत मान्यता को लेकर चलता है | यह मान्यता उसे अपनी जड़ों से जोड़ती है | तुलसी की चौपाइयां, कबीर, रहीम, बिहारी के दोहे, गिरधर की कुण्डलियाँ, घाघ की कहावतें ये सब हमें हमारे जड़ों से जुड़े रहने का मजबूत आधार प्रदान करती हैं | संत साहित्य समग्र और समावेशी है जिसके अंतर्गत सबकुछ समाहित है | अनिल जी आपसे एक बात कहना चाहूँगा-आदि कवि वाल्मीकि के अन्तश्चेतना में छंद का स्फुरण होने के बाद जब उन्होंने कथ्य को ढूँढने का प्रयास किया तो उस समय पूर्व से ही प्रचलन में रही राम कथा को अपने रचना का प्रमुख केंद्र विन्दु बानाया | उस एक माध्यम से उन्होंने जनमानस के लिए बहुत सारी स्थापनाएं प्रदान की | आज के समकालीन रचनाधर्मिता में जब भी कोई व्यक्ति रचनाकार की संभावनाओं से ओतप्रोत होता है तो बिना पूरा आख्यानों के उसका रचनाकर्म पूर्ण हो, यह संदेह के दायरे में रहता है | संत साहित्य समावेशी, समन्वयकारी एवं सूत्रबद्ध है | इसमें न केवल मानव मात्र की बेहतरी की बातें हैं अपितु समाज के हर अंग को केंद्र में रखकर सृजन कार्य किया गया है | मेरे विचार से संत साहित्य को बिना अपनाए साहित्य सृजन वैसे ही है जैसे प्राण के बगैर देह |

प्रश्न : अनिल कुमार पाण्डेय : वर्तमान समय में संतवाणी का सबसे प्रभावी रूप क्या हो सकता है? इनकी प्रासंगिकता के किन आयामों की सबसे अधिक आवश्यकता है ?

उत्तर : डॉ० जयशंकर शुक्ल : अनिल जी हम कितना भी मना करें हमारे देश की सांसे मंदिर, मस्जिद और गुरुद्वारों से होकर गुजरती हैं | जब यह अकाट्य सत्य है कि हमारे संकृति के केंद्र व्यक्ति की निष्ठा और समर्पण के केंद्र विन्दु हैं तो उसकी वह निष्ठा, वह समर्पण उसकी जीवन प्रक्रियाओं के साथ साथ पाठ्यचर्या में भी समाहित हो, यह आवश्यक है | आपके प्रश्न के दो हिस्से हैं | प्रथम हिस्से में आपने संत वाणी का प्रभावी रूप पूंछा है, जिसपर विचार करना पहला कार्य है | संत वाणी का प्रभावी रूप देखना है तो अजान, गुरुवाणी, भजन, इसके रूपाकार को आमजन के हेतु लाने वाले प्रमुख केंद्र हैं | संत वाणी मनुष्य में मानवीय गुणों को बनाए रखने का प्रबल माध्यम हो सकता है | जिसकी जरूरत आज सारे विश्व को है | कट्टरता का परिहार और समावेशियता का प्रचार अगर विश्व में किसी भी माध्यम से किया जा सकता है तो वह केवल और केवल संत वाणी हो सकती है | यह मेरा प्रबल मत है | 

      अब आइये प्रासंगिकता के बारे में | धार्मिक अंधभक्ति और कट्टरपन ने व्यक्ति की हठधर्मिता जहां तक जिम्मेदार है वहीँ पूर्व में व्यक्त विचारों को तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत किया जाना भी एक बड़ा कारण है | ओल्ड टेस्टामेंट और न्यू टेस्टामेंट’ के अंतर्विरोधों को जानने के लिए इनसे होकर गुजरना अत्यंत आवश्यक है | इसी प्रकार ‘कुरआन’ के आयातों को केंद्र में लेकर की जा रही टिप्पड़ियों के मद्दे नजर व्यक्ति द्वारा स्वयं उनके मनन, चिंतन की अत्यंत आवश्यकता है | इसी तरह गीता के श्लोकों से होकर गुजरे बिना कोई भी व्यक्ति भारत और भारतीयता को कितना जान पाएगा | अनिल जी गुरु ग्रन्थ साहिब तो संत साहित्य के प्रासंगिकता का सबसे ज्वलंत और अकाट्य प्रमाण है | आप दुनिया के किसी भी कोने में चले जाइए गुरुवाणी के रूप में क्या आप संत साहित्य में वर्णित रचनाधर्मिता और रचनाओं को नहीं सुनते? अब रचनाधर्मिता हम पढ़े–लिखों के मानसिक गणित के लिए जरूरी है जबकि रचनाएँ आम जन के मन में आह्लाद के साथ-साथ मर्यादा का भी सूत्रपात करती हैं | संत साहित्य के प्रासंगिकता का इससे बड़ा उदहारण और क्या होगा |

प्रश्न : अनिल कुमार पाण्डेय : संत साहित्य के प्रचार प्रसार में आपकी दृष्टि से साहित्य अकादमियों की क्या भूमिका रही है?

उत्तर : डॉ० जयशंकर शुक्ल : पाण्डेय जी आजकल साहित्य को समृद्ध करने के लिए बनाई गयी अकादमियां विचारधाराओं से आबद्ध होकर व्यक्तिपरकता को बढ़ावा दे रही हैं | आज व्यक्ति संस्थाओं से बड़े हो रहे हैं जबकि इन संस्थाओं ने ही उन्हें जन्म दिया है | उनका पोषण कर उन्हें नाम दिया है और सबसे प्रमुख तो ये कि उनकी रोजी-रोटी का जुगाड़ इन्हीं गलियों से होकर देखा जा सकता है | इस बात से क्या किसी को इनकार होगा? मित्र, एक व्यक्ति जब अपनी माता से जाकर यह कहे कि मैं तुम्हारे द्वारा अपने प्रति किया गया सबकुछ तुम्हें वापस कर रहा हूँ तो ऐसे में प्रश्न उठता है कि उसका स्वयं का अस्तित्व कैसे पृथक रह गया? विचारधारा के टकराव में व्यक्ति-पूजा का यह क्रम भारतीय परम्पराओं को तिरस्कृत और अपमानित कर रही है | और यह प्रयास आज साहित्य के लिए सरकारी-गैर सरकारी हर तरह की संस्थाओं द्वारा किया जा रहा है | आज सर्वमान्य संकल्पो का अभाव मानव को गहरे अंधे कुँए में धकेलने का एक प्रयास है | सम्मान व्यक्ति के प्रति समाज का उधार होता है जिसे केवल और केवल सम्मान के द्वारा ही बरकरार रखा जा सकता है | तिरस्कार और अपमान व्यक्ति को मानव से अलग कुछ और बना देता है | ऐसा ही कार्य विभिन्न अकादमियों द्वारा संत साहित्य के लिए किया गया | हम इस बात को इस रूप में भी देख सकते हैं कि घर का लायक लड़का जिसे लायक बनाने में घर ने अपने समृद्धि को भी दाँव पर लगा दिया आज उसी घर को गाली दे रहा है | और इसी में अपना बड़प्पन समझ रहा है | उसे सुदूर दूसरे वैचारिक मान्यताओं के लोग अपने ज्यादा करीब लग रहे हैं | वह किसी को भी माने यह उसका निजी अधिकार है परन्तु अपनों को गाली देने का अधिकार उसे किसने दे दिया? ये कृतघ्नता नहीं है ?

      संत साहित्य के लिए उसके प्रचार-प्रसार का निर्णय आजकल अकादमियां नहीं कर रही हैं बल्कि उनके करता-धर्ता, उनमे शीर्ष पर बैठे लोग अपनी हठधर्मिता के चलते अपना निर्णय थोप रहे हैं |

प्रश्न : अनिल कुमार पाण्डेय : क्या ये सही है कि निर्गुण संत साहित्य के जितने भी पुरस्कर्ता रहे हैं वे किसी न किसी रूप में कबीर से प्रभावित रहे हैं ?

उत्तर : डॉ० जयशंकर शुक्ल : कबीर भारतीय जनमानस के नायक हैं | यह पदवी उनके अनुयायियों ने नहीं बल्कि उन पर शोध करने वाले चंद ऐसे लोगों ने दिया है जिनकी रोजी- रोटी इससे चली है | निर्गुण संत साहित्य में कबीर की उचाइयां निःसंदेह अकल्पनीय है परन्तु ऐसा नहीं है कि यही अंतिम सत्य है | संत साहित्य के 90 प्रतिशत पुरस्कर्ताओं के रचनाकर्म आज भी शोध और अनुसंधान की परिधि में आने को तरस रहे हैं | जब हमने मूल्यांकन ही ठीक से नहीं किया तो निष्कर्ष प्रतिपादन का अधिकार हमे किसने दे दिया? कबीर की रचनावलियों का संकलन किया गया और कालांतर में यह संकलन उनके अनुयायियों द्वारा सामने लाया गया जिसकी प्रमाणिकता पर हम कुछ नहीं कहेंगे लेकिन कृपा करके हिंदी साहित्य के मनीषियों, आलोचकों से यह आग्रह जरूर करना चाहेंगे कि वे निर्गुण संत साहित्य के उन संतों को भी एक बार जरूर पढ़ लें जिनकी रचनाएँ उनके अपने जीवनकाल में ही उन्हीं के द्वारा लिखी गयी और जिनकी प्रमाणिकता कहीं से भी संदेह के दायरे में नहीं है |

      कबीर भारतीय समाज के अगुवा हैं | कहीं न कहीं ये अपने समकालीन, पूर्ववर्ती तथा परवर्ती सबसे आगे निकलते देखे जाते हैं | ये बात अलग है कि यह उनके अपने रचनाकर्म पर न होकर प्रतिष्ठापित करने वाले लोगों पर निर्भर करता है | इसके लिए कहीं कहीं आचार्य रामचंद्र जैसे समालोचक पर भी लोगों की तल्ख़ टिप्पड़ियां देखने को मिलती हैं |              

प्रश्न : अनिल कुमार पाण्डेय : मध्यकालीन संतों की भावभूमि क्या वर्तमान समय के भी किन्हीं संतों में दिखाई देती है ?

उत्तर : डॉ० जयशंकर शुक्ल : संतों की भावभूमि समयातीत होती है | उसे कालखंड में बांधकर नहीं देखा जाना चाहिए | अनिल जी प्रश्न तो यह है की आप संत किसे मानते हैं? संत की कसौटी क्या है? इन प्रश्नों पर विचार किए बिना आपकी बात का जवाब नहीं दिया जा सकता | मध्यकालीन संतों का कालखंड ज्यादा चुनौतीपूर्ण था | उस समय धार्मिक कट्टरता, रूढ़िवादिता, पन्थपरकता ज्यादा मुखर थे | उस समय व्यक्ति ने जो कुछ भी कहा, जो कुछ भी किया उस कालखंड के लिए अद्भुत और आश्चर्य जनक था | उन्होंने समाज में रहकर सामाजिक दायित्वों का पालन करते हुए जीवन के सारे उतार चढ़ाव अपने ऊपर  झेलकर अपनी रचनाधर्मिता को स्वर दिया | वे समाज सुधारक कहे गए | उन्होंने मर्यादाओं का स्वयं अनुपालन करके दूसरों को राह दिखाई | उच्च मानदंड उनके लेखन-कर्म की कसौटी रहे हैं | यह लेखन उनके जीवन में भी दिखता है | 

      वर्तमान समय में संत आप किसे मानेंगे? जनता के एक हिस्से की अगुवाई करने वाले व्यक्ति को, टीवी के विभिन्न चैनलों पर आने वाले उपदेशकों, कथावाचकों को, अपने मठ बनाकरके सुनिश्चित तरीके से अनुयायियों को जोड़ने की प्रवृत्ति में जुटे हठधर्मियों को, या सात समुन्दर पार की विचारधारा से अनुप्राणित साहित्य अध्यात्म की दुकान चलाने वाले तथाकथित मठाधीशों को? निर्णय आपर है | मित्र आज अपने को संत कहने वाला कोई भी व्यक्ति मध्यकालीन संतों के पावों के नाखून के बराबर भी नहीं है | 

प्रश्न : अनिल कुमार पाण्डेय : आज के परिवेश में संत साहित्य को आगे लेन के लिए क्या क्या प्रयास किये जा सकते हैं; इसमें हम अपना योगदान किस तरह दे सकते हैं?

उत्तर : डॉ० जयशंकर शुक्ल : संत साहित्य को जनमानस के सामने लाने के लिए सबसे पहले देश के शिक्षण संस्थाओं और अकादमियों को पहल करनी होगी | मेरे अपने विचार से एक सूची बनाकर विश्वविद्यालयों में संत साहित्य के एक-एक मनीषी विद्वान के नाम पर पीठ बना देनी चाहिए | जिसको उस एक विद्वान के कार्य और रचनाधर्मिता पर शोध के लिए उसे प्रेरित किया जाना चाहिए | समय समय पर इन कार्यों का मूल्यांकन उच्चतम मानदंडों और कसौटियों पर करते हुए विभिन्न संस्थाओं को इसका मूल्यांकनकर्ता बनाया जाना चाहिए| अनुसन्धान-कर्ताओं को विषय चयन में स्वयत्तता देते हुए शोध के लिए संत साहित्य को प्रमुखता से रखा जाना चाहिए | अकादमियों में हमें संत साहित्य से सम्बंधित शोध, रचनाकर्म प्रस्तावित कर उन्हें आगे बढ़ाना चाहिए | 

      हम विभिन्न पुरस्कारों की स्थापना करके भी इस कार्य को आगे बढ़ा सकते हैं| माध्यमिक पाठ्यक्रम के साथ-साथ सहायक पाठ्यपुस्तकों के रूप में संत साहित्य को लागू करने से भी विकास की संभावनाओं के द्वार खोले जा सकते हैं | पात्र-पत्रिकाओं में सम्बंधित आलेखों को प्रमुखता से प्रकाशित किया जाना भी एक महत्वपूर्ण कार्य है | समय समय पर इस दिशा में काम करने वाली संस्थाओं द्वारा शोध-पत्रों व स्मारिकाओं का समयबद्ध ढंग से प्रकाशन इसमें प्रमुख भूमिका निभा सकता है | हम अपने स्तर पर पढ़कर, पढ़ाकर, वार्तालाप कर-काराकर संगोष्ठियाँ आयोजित कराकर, आलेख लिख-लिखवाकर इसका प्रचार-प्रसार कर सकते हैं | 

       अनिल जी आपका आभार है कि आपने संत साहित्य जैसे गूढ़ विषय पर विविधवर्णी प्रश्नों का विवेकपूर्ण चयन करके मुझे अपनी बात रखने का एक अच्छा अवसर दिया | आपके द्वारा किया जा रहा यह कार्य निश्चित रूप से आपकी प्रतिबद्धताओं को पूर्ण करते हुए मान्यताओं की स्थापना में समर्थ होगा | एक बार पुनः इस यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए अवसर देने हेतु आपका आभार !

अनिल कुमार पाण्डेय – श्रीमान आपके विद्वतापूर्ण विश्लेषण के लिए मैं ह्रदय से आभारी हूँ का | आशा करता हूँ कि आपके व्यक्तित्व का आशीर्वाद मुझे निरंतर मिलता रहेगा |                   डॉ० जयशंकर शुक्ल                     भवन संख्या-49. पथ संख्या-6, 

बैंक कालोनी.नंद नगरी                दिल्ली,110093                     मो०-9968235647



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