रविवार, 20 फ़रवरी 2022

साक्षात्कार "प्रकृति से मेरा जुड़ाव बहुत गहरा रहा है"-लोकप्रिय एवं नवोदित साहित्यकार अरविंद भट्ट से डॉक्टर जय शंकर शुक्ल की बातचीत

साक्षात्कार

 "प्रकृति से मेरा जुड़ाव बहुत गहरा रहा है"-लोकप्रिय एवं नवोदित साहित्यकार अरविंद भट्ट से डॉक्टर जय शंकर शुक्ल की बातचीत

डॉ.जयशंकर शुक्ल-1: अरविन्द जी, साहित्य में आपका आगमन कविता से हुआ और अब आप यात्रा संस्मरण लिख रहे हैं. इसका क्या कारण है?

[अरविन्द] – आपके प्रश्न का उत्तर देने से पहले मैं स्वयं आपसे एक प्रश्न करता हूँ की किसी के लिए आखिर हिंदी लेखन के लिए महत्वपूर्ण क्या है? उसके विचार, या विचारों को व्यक्त करने का माध्यम या विधा? निःसंदेह विचार सर्वोपरि है. लेखक अपने जिए हुए को, अपने अनुभवों को अपने विचारों में सींचता है, पोषित करता है, उसके साथ तादात्म्य स्थापित करते हुए स्वयं को संतुष्टि का भाव देता है. और तब वह इच्छा करता है कि इन विचारों को भावों को वह वाह्य दुनिया के सम्मुख ले आए. अब प्रश्न यह आता है कि वह इन विचारों को सम्मुख लाए कैसे? और यहीं पे यह चुनाव महत्वपूर्ण हो जाता है कि आखिर कौन सी विधा व्यक्ति विशेष के विचारों को अधिक प्रामाणिक और प्रभावी रूप से बाकी लोगों के सम्मुख सरलता से रख सकेगी.

सारांश यह रहा कि आपको अपनी बात, विचार दुनिया के सामे रखने हैं चाहे विधा कुछ भी हो. अब आपके प्रश्न पर आते हैं. साहित्य में मैंने अपने आगमन की कोई रूपरेखा नहीं बनाई और न ही कोई सुनियोजित कार्यक्रम. प्रारंभ से ही मनोभावों ने ह्रदय में, विचारों में जो उथल-पुथल मचा राखी थी, जो वर्षों से मेरे मन को मथ रहा था वह कविता के रूप में व्यक्त करना अधिक श्रेयस्कर लगा. क्यूंकि यही एक माध्यम था जिसमें मैं अलग-अलग मनोभावों को संक्षिप्त और प्रवाहपूर्ण ढंग से सामने ला सकता था. चूंकि अंदर बहुत कुछ भरा हुआ था और वह बाहर आने को व्यग्र था  इसीलिए सच कहूँ तो उन सभी मनोभावों को बहार लाने की कहीं न कहीं जल्दबाजी भी थी.कुछ समय पश्चात जब अंदर का बहुत कुछ कविताओं के रूप में बाहर आया तो विचारों नें अपनी संभावनाएं विस्तृत करने का प्रयास प्रारंभ कर दिया. मेरे अंदर का लेखक सजग था और इस बार उसने अपने संस्मरणों को लिपिबद्ध करने का सोचा और यहीं से मेरे यात्रा संस्मरण की रूपरेखा बनी. प्रकृति से मेरा जुड़ाव बहुत गहरा रहा है और यात्रा उस प्रकृति तक पहुँचने का मार्ग है. बस जिन यात्राओं नें मेरा भावनात्मक पोषण किया उन संस्मरणों को सामने लाने से स्वयं को रोक नहीं पाया. 

डॉ.जयशंकर शुक्ल 2: जब आप निबंध या संस्मरण लिखते हैं तो भावुकता और तार्किकता आती है. आप दोनों में सम्बन्ध कैसे बना पाते हैं?

[अरविन्द] – सत्य कहा आपने. निबंध या विशेषकर संस्मरण लिखते समय इन दोनों में सामंजस्य बनाये रखना बहुत महत्वपूर्ण होता है और कठिन भी.भावुकता आपको विषय से और घटनाओं से जोड़े रखती है. आपके अवलोकन को नई दृष्टि देती है जिससे लेखन और पाठक में एक अदृश्य सम्बन्ध स्थापित हो सके, पाठक आपके लिखे हुए में  स्वयं को समाहित कर सके, उससे जोड़ सके, आपकी दृष्टि से देखते हुए स्वान्तः सुखाय का आनंद ले सके. और यह सब बिना भावुकता से गुज़रे नहीं हो सकता है. वहीं दूसरी ओर तार्किकता आपको यथास्थिति से भटकने नहीं देती है. घटनाओं के प्रत्यक्षीकरण में भावनाओं के अतिरेक में होने वाले भटकाव को नियंत्रित करती है. भावुकता के अत्यधिक समावेश से घटनाओं के नाटकीय और काल्पनिक होने की संभावना बलवती हो जाती है तो वहीं अत्यधिक तार्किकता घटनाओं से पाठक के जुड़ाव को कम कर सकती है, जिससे उसकी रोचकता प्रभावित होती है और कहीं न कहीं उसके विषयांतर होने का भी भय रहता है कि आप संस्मरण लिखते-लिखते किसी डाक्युमेंट्री फिल्म की पटकथा न लिखने लगें. मेरे इस यात्रा संस्मरण में कई ऐसे पड़ाव आए जब स्वयं को दोनों में तारतम्य बैठाने में बहुत मानसिक संघर्ष करना पड़ा. एक ओर भावनाएं हिलोरें मार रहीं थी अपने हर अनुभव किए हुए क्षण को पूरे वेग से बाहर निकालने के लिए तो वहीं दूसरी ओर यह भी दबाव था कि कहीं मेरा सब लिखा कल्पनाशीलता की भेंट न चढ़ जाये. भावुकता और तार्किकता दोनों विरोधाभाषी हैं और दोनों को साधते हुए अपना लेखन करना वाकई चुनौतीपूर्ण होता है.

[डॉ.जयशंकर शुक्ल] 21: आपने लेखन को क्यूँ चुना?

[अरविन्द] – जी मैंने लेखन को नहीं चुना अपितु यह तो मेरे अंदर ही बसा था बस अपने सही समय आने पर यह दृष्टिगोचर हुआ. आस-पास इतना कुछ घटित होता रहता था कि उन सबको अपने अंतर्मन में समेट कर रखना मुश्किल होने लगा था. अंदर ही अंदर चलने वाला विचारों के झंझावातों को थामना कठिन होने लगा था. विचारों और भावों को किसी भी रूप में बाहर आना ही था और मैं स्वयं भी इन्हें बहार लाने को व्यग्र था. मुझे नहीं लगता कि अधिकतर घटनाएं जो मैंने देखि, मेरे साथ घटित हुई वह मेरी व्यक्तिगत थी. कही न कहीं वह ऐसी परिस्थितियां थीं जो सभी के जीवन में आती हैं, किसी की पहले तो किसी की बाद में बस उनके परिमाण का प्रभाव अलग-अलग होता है और उनको अनुभव करने का समझने का अपना-अपना फेर. तो सोचा क्यूँ न अपने अनुभवों को किसी न किसी रूप में लिख कर बाहर निकालूँ ताकि देख सकूँ कि अन्य लोग भी इससे अपने अप को जोड़ पाते है अथवा नहीं. 

डॉ.जयशंकर शुक्ल] 3: वो कौन से कारण हैं जिन्होंने आपको लेखन की ओर प्रेरित किया?

[अरविन्द] – कारण? सच कहूँ तो मुझे स्वयं नहीं पता  कि कोइ ऐसा विशेष कारण रहा है जिसने मुझे लेखन के लिए प्रेरित किया . मेरा लेखन अनायास नहीं रहा अपितु यह मेरी दिनचर्या का एक भाग रहा है, जीवन जीने का एक तरीका रहा है. हाँ, पारिवारिक, सामाजिक परिस्थोतियों नें, जीवन की कठिनाईयों नें अंदर बैठे लेखक को हमेशा एक नया आयाम दिया, दिशा दी. बीतता समय और प्राप्त होने वाला अनुभव मेरे लेखन को परिष्कृत करता रहा. मैं बचपन में बहुत अन्तर्मुखी व्यक्तित्व का था. अपने आस-पास के वातावरण  को देखना , सुनना  और उनका विश्लेषण करना मेरी आदतों में शुमार था. और इसी क्रम मन मैं स्वयं से वार्तालाप करता रहता था  और यही वार्तालाप कालान्तर में आत्ममंथन में, आत्मचिंतन में बदलता गया जो आज भी निर्बाध जारी है. मेरी इन्हीं आदतों में उत्प्रेरक का कार्य मेरे माता-पिता ने किया. इन दोनों को ही पुस्तकें, पत्र-पत्रिकाएं पढने का शौक था और मैं भी इस प्रभाव से बच नहीं सका. फलतः मेरे लिए भी पत्रिकाएं घर में नियमित रूप से आने लगीं. यहीं से मेरी जुगलबंदी शुरू हो गई पढने की, मंथन की, चिंतन की. अन्तर्मुखी स्वाभाव का होने के कारण अपनी बातों को सबसे करने की बजाए मैं उन्हें अपने ज़ेहन में ही मथता रहता था, विश्लेषण करता रहता था. एक दिन ऐसी ही कुछ बातों को मैंने अपनी डायरी में लिख दिया, तब शायद सातवीं कक्षा में था. संभवतः मेरा वह लेखन की दुनिया में पहला कदम था. फिर तो बस यह श्रृंखला नदी की धारा के समान अनवरत चलती रही, बहती रही और अनेक उतार-चढ़ावों से मार्गों से गुज़रती आज भी अग्रसर है.

इससे इतर एक बड़ी बात की कई बार आप अपने विचारों को, बातों को प्रकट करना चाहते हैं, उसे किसी के साथ बाँटना चाहते हैं पर हर बार आपको आपकी बातें बाँटने वाला, समझने वाला मिल जाये संभव नहीं. मिल भी गया तो वह उन मनोभावों से एकाकार या सहमत हो जायेगा कुछ कह नहीं सकते. बहुत सी कठिनाइयां होती हैं. तो ऐसे में लेखन ही एक माध्यम निकलकर सामने आता है जहाँ आप सब कुछ कह सकते हैं, व्यक्त कर सकते हैं, स्वयं से बातें कर सकते हैं. इसके साथ ही जैसे-जैसे समय बीतता गया सामाजिक, पारिवारिक और व्यक्तिगत जीवन में इतने संघर्षों से गुज़रा कि वह आंतरिक उद्धेलन का रूप लेता रहा  और जब यही उद्धेलन, विचार्रों का संघर्ष ह्रदय और मस्तिष्क को झंझोड़ने लगता है और जब भावनाओं का ज्वार रक्त को उष्ण करने लगता है तो अंदर बैठा रचनाकार कुछ रचने को सजग हो ही जाता है.  

[डॉ.जयशंकर शुक्ल] 25: वह कौन सी परिस्थितियां हैं जो आपको लिखने के लिए विवश करती हैं?

[अरविन्द] – जो भी स्थितियां सामान्य साँसों को दीर्घ उच्छ्वास में बदल दें, उनकी उष्णता और शीतलता को नियंत्रित करने लगें, जिनसे शिराओं में बहने वाला रक्त कभी उबल जाए या शनैः शनैः ठण्डा पड़ता जाए, जो कभी आँखों में शून्य भर दे तो कभी पानी, जो धडकनों के स्पंदन को महसूस करने लगे. ये सभी स्थितियां ही आंतरिक उद्धेलन और छटपटाहट को बढाती हैं, सोचने को विवश कर देती हैं, विचारों का बहाव तीव्र गति से होने लगता है जो अंततः कुछ लिखने की मनोदशा में स्वयं को पहुँचा ही देता है. यह तो रही वह स्थितियां जब लिखने का भाव बहुत तेज़ी से आरोपित होता है पर इससे अलग  विचारों में , मन के कोने में दबी पड़ी टीस, उत्तेजना या अपार सुख के क्षण, अपने संघर्ष मुझे लिखने पर विवश कर देते हैं.

डॉ.जयशंकर शुक्ल] 26: अरविन्द जी, लिखकर आपको कैसा महसूस होता है?

[अरविन्द] – आप ने तो मुझे संशय में डाल दिया. मैं सोचने की कोशिश कर रहा हूँ कि किस तरह से आपके प्रश्न का उत्तर दूँ. सीधे सरल शब्दों में कहूँ तो बहुत संतुष्टि मिलती है. यह संतुष्टि डॉ चक्रों में होती है. एक तो तब जब मई लिख चुका होता हूँ तब बहुत हल्का महसूस करने लगता हूँ. पन्नों पर लिखे शब्द भावनाओं का दर्पण होते हैं और उनमें ही स्वयं को निहारा करता हूँ.दूसरा संतुष्टि का चरण तब जब गाहे-बगाहे अपनी ही रचनाओं को एक पाठक की हैसियत से पढता हूँ और महसूस करने का प्रयास करता हूँ कि क्या इनमें लिखे शब्द उन भावों को मेरे अंदर जगा पा रहे हैं या नहीं जिनके वशीभूत होकर मैंने उस रचना को लिखा था. यकीन मनोए उन रचनाओं को पढ़कर जब मैं पुनः उसी मनोदशा में स्वयं को पाता हूँ तो वह मेरी आत्मसंतुष्टि का अव्यक्त भाव होता है.मैं अपने लिखे हुए में स्वयं या व्यक्तिगत भाव से अधिक जन सामान्य के भावों को देखना चाहता हूँ और महसूस भी करना चाहता हूँ और कहीं न कहीं इस तृष्णा से ग्रसित भी कि अगर पाठक इन रचनाओं में स्वयं को नहीं देख पाया तो क्या? कितनी ही बार ऐसे पल आए हैं जब लोगों ने प्रत्यक्ष, फ़ोन पर या चिट्टी के माध्यम से अपने विचार, भाव व्यक्त किए. वो व्यथित थे, भावुक थे, उत्तेजित भी कि ये रचनाएं उनको उस जगह लेकर चली गई जिसे वह विस्मृत कर चुके थे. कुछ ऐसे भी थे कि रचनाओं को पढने के बाद कुछ नहीं कहा सिर्फ़ मौन रहे. उनकी आँखों ने सत्य की व्याख्या स्वतः कर दी थी. ऐसा नहीं कि मेरी रचनाएँ अत्यंत उच्च कूटी की हैं या मेरा लेखा इतना उत्कृष्ट है कि वह लोगों को अपने पाश में बाँध लेता है. यह तो व्यक्ति विशेष के अपने अपने भाव और स्थितियां हैं कि वह रचनाओं में व्यक्त मर्म को कितना आत्मसात कर पाता है और वह लिखा हुआ उसके कितना समीप है. पर हाँ जब मुझे मेरी रचनाओं के बारे में ऐसी प्रतिक्रिया मिलती है और जब कुछ ऐसे क्षण आते हैं तो वह आत्मसंतुष्टि का चरम होता है, लगता है कि लेखन का अभीष्ट पूर्ण हुआ. पर अपने आपको प्रासंगिक बनाए रखने की एक बड़ी जिम्मेदारी का एहसास भी और यह भी कि अपने लेखन को अगले पायदान तक कैसे ले जाया जाए.


डॉ.जयशंकर शुक्ल 27: आपने क्या-क्या पढ़ा है? किनसे प्रभावित हैं? और क्यों प्रभावित हैं?

[अरविन्द] – पढना मेरे लिए एक सतत प्रक्रिया है. लेखन और अपने ऑफिस के कार्यों के बीच से समय निकाल कर पड़ता ही रहता हूँ.पढने के लिए मैं विधा विशेष, लेखक विशेष, धारा विशेष का अनुयायी नहीं हूँ. वैसे मैं पुस्तक पढने के मामले में बहुत ही सेलेक्टिव हूँ. किसी भी रचना या रचनाकार को ऐसे नहीं पढ़ लेता जब तक कि मुझे उस रचना में कोई तत्व दृष्टव्य नहीं होता. बस इतना समज लीजिए कि जब भी ऐसा कुछ भी नज़रों के सामने आता है तो अपना ध्यान वह स्वयं ही आकृष्ट कर लेता है. पढने की बात कर्रों तो जैसा कि मैंने कहा कि मेरी कोई नितोजित धारा नहीं है. मैं भगवत गीता और उसके कई अलग-अलग संस्करणों को पढ़ चुका हूँ. वैदिक शोल्क, आत्म संस्मरण, यात्रा वृत्तान्त, आलोचनात्मक लेख पढना मुझे विशेष रूप से प्रिय है. कहानियों और उपन्यासों में मैं प्रेमचंद को आदर्श मानता हूँ.  प्रेमचंद की बारें में तो मई पुस्तक मेलों और ऑनलाइन स्टोर्स पर तो कुछ न कुछ खोजता ही रहता हूँ. प्रेमचंद को पढना, प्रेमचंद के बारे में पढना और उनके विचारों को जानना मेरी प्राथमिकता में है. कवियों में दिनकर और हरिबंश राय बच्चन मुझे प्रिय हैं.इसके अतिरिक्त पौराणिक गाथाएँ (गल्प नहीं) मुझे आकर्षित करती हैं. प्रेमचंद की कहानियां, उनके विचार आम जन से जुड़े हैं जो वो जीते हैं, अनुभव करते है वह सब प्रेमचंद के लेखन के एक-एक शब्द में परिलक्षित होता है. इतना सादगी पसंद, अभावग्रस्त व्यक्ति, इतना महान रचनाकार, अद्भुत है उनको जानना पढ़ना. इसी क्रम में मैं शैलेश मटियानी को भी विशेष क्रम में रखता हूँ. दिनकर और हरिबंश राय बच्चन के गीतों में जीवन की आशा दिखाई देती है. विश्वनाथ जी के संस्मरण जिस सादगी से आपको अपने लोक में लेकर चले जाते हैं वह अलग ही अनुभव है. राहुल संकृत्यायन, मोहन राकेश के यात्रा वृत्त के बारे में कुछ भी कहना सूर्य को दीपक दिखाना है. अमृता प्रीतम, मन्नू भंडारी और शिवानी की रचनाएं भी मुझे पसंद है.

तो बात यह रही कि अगर मैं प्रेमचंद को अपवाद माँ लूँ तो मैं व्यक्ति केन्द्रित नहीं हूँ वरन रचना केन्द्रित हूँ. हो सकता है कि अत्यंत प्रतिष्ठित रचनाकारों की सभी रचनाएं मुझे उतना आकर्षित नहीं कर पाती जितना की उनकी कुछ रचनाएँ. इसलिए सभी के बारे में स्पष्ट कह पाना संभव नहीं है मेरे लिए.


डॉ.जयशंकर शुक्ल 28: आप किस पुस्तक को अधिक पसंद करते हैं और क्यों?

[अरविन्द] – जी किस पुस्तक का नाम लूँ समझ नहीं में आता. कोई एक-दो हों तो बताऊँ भी. यहाँ तो बहुत से ऐसे नाम हैं जिनसे मेरा जुड़ाव बहुत गहरे तक है. पर हाँ कुछ पुस्तकों का नाम जरूर लेना चाहूँगा जिन्होंने मेरे जीवन की दिशा और दशा भी बदली और साथ-साथ मेरे अंदर आशा और उत्साह का भी संचार किया. क्रमशः कुछ पुस्तकों के बारे में अपने विचार अवश्य रखूँगा.

भगवद गीता जो अपने आप में ही समस्त ज्ञान का मूल है. इसको पढ़ना मुझे सर्वप्रिय है. जितना भी पढता हूँ जीवन को उतना ही समझता जाता हूँ.

Who moved my cheese by Dr. Spenser Johnson एक अत्यंत प्रेरणाप्रद पुस्तक जिसनें मुझे ऐसे समय सम्हाला जब मैं भटक सकता था, टूट सकता था. इस पुस्तक ने जीवन को एक नए नज़रिए से देखने का रास्ता सुझाया.

हरिबंश राय बच्चन द्वारा संकलित मेरी श्रेष्ठ कविताएँ. इस पुस्तक में कई गीत ऐसे हैं जो मेरे लिए प्रेरणा श्रोत हैं.

विश्वनाथ त्रिपाठी द्वारा रचित नंगातलाई का गाँव. जिसमें संस्मरण, जीवन वृत्त के माध्यम से गावों और वहाँ की दशा और रहन-सहन का स्वाभाविक और अद्भुत चित्रण.

दिनकर कृत रश्मिरथी. कर्ण, परशुराम और कृष्ण के संवाद जिस शैली में लिखे गए हैं वह जोश और उत्तेजना का संचार तो करते ही हैं साथ हे जीवन मूल्यों और संघर्षों से जूझने का पाठ भी.

दिनकर जोशी द्वारा रचित पौराणिक उपन्यास श्याम फिर एक बार तुम मिल जाते.  यह मात्र कपोल कल्पना पर आधारित उपन्यास नहीं हैं अपितु धर्म ग्रंथों पर आधारित  कृष्ण के जीवन संघर्षों और उनके घनिष्ठ सम्बन्धियों का उनके अवसान पश्चात की पीड़ा का प्रायश्चित पूर्ण विलाप है. इन सभी बातों को उपन्यास में जिस प्रामाणिकता के साथ व्यक्त किया गया है वह श्लाघनीय है. यह उपन्यास मूलतः बंगला में लिखा गया था.

The waiting of Mahatma by K.R. Narayanan महात्मा गांधी के स्वतंत्रता आन्दोलन को केंद्र में रखकर रचा गया प्रेम पर आधारित उपन्यास जिसमें स्वंतत्रता आन्दोलन और उससे जुड़ी घटनाओं के बीच नायक और नायिका के मध्य प्रेम किस तरह अंकुरित होता है और धीरे -धीरे आगे बढ़ता है यह पढना आश्चर्य है. आज के परिप्रेक्ष्य में प्रेम को इतनी पराकाष्ठा पर ले जाकर जिस तरह से व्यक्त किया गया है वह रचनाकार के अद्भुत दृष्टिकोण को दिखता है.

दुर्गा प्रसाद शुक्ल द्वारा लिखित तेनजिंग नोरगे. प्रथम एवरेस्ट विजेता शेरपा तेनजिंग नोरगे की आत्मकथा दुर्गाप्रसाद जी की जबानी. अत्यंत अभावों में पीला व्यक्ति की एवरेस्ट को फतह करने के संघर्षों की जीवत गाथा.

राहुल संकृत्यायन कृत वोल्गा से गंगा, अज्ञेय द्वारा रचित एक बूँद सहसा उछली और मोहन राकेश कृत आख़िरी चट्टान तक ऐसे यात्रा वृत्त और संस्मरण हैं जो जिन्हें बार-बार पढने का मन करता है.

डॉ.जयशंकर शुक्ल 4: आप पेशे से इंजीनियर हैं. एक इंजीनियर यंत्रों के साथ खेलता है.लेखन में इसे कैसे व्यवस्थित कर पाते हैं ?

[अरविन्द] – यह एक बहुत ही स्वाभाविक प्रश्न है जो अक्सर मुझसे पुछा जाता है. कई बार तो आश्चर्य मिश्रित हर्ष के साथ कि कैसे एक इंजीनियर साहित्य की तरफ मुड़ गया? क्यों भी ऐसा क्यूँ नहीं हो सकता? क्या एक इंजीनियर मनुष्य होने के गुणों से वंचित होता है? क्या वह अन्य व्यक्तियों की तरह भावनाओं से युक्त नहीं होता? वैसे भी मैं एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर हूँ. यंत्रों के साथ-साथ प्रोग्रामिंग लैंग्वेज और सॉफ्टवेयर का आर्किटेक्चर डिजाईन करना मेरा कार्य है या आपके शब्दों में कहूँ तो मेरा खेल है. सोचना मुझे वहाँ भी पड़ता है (अपने कार्य में) और यहाँ भी (साहित्य में). तो इस प्रकार दोनों ही मेरे लिए खेल ही हुए बस तरीका और वातावरण अलग है, ध्येय अलग है. वो अलग बात है कि लेखन के लिए व्यक्ति में जिन आधारभूत गुणों को होना चाहिए उसका अंश कहीं न कहीं बचपन से ही मुझमें अंकुरित होता रहा है. इस नाते टेक्नीकल पृष्ठभूमि का होने के कारण भी मेरा लेखन प्रभावित नहीं हुआ, इसके उलट यह और भी परिष्कृत  हुआ है, मेरे लेखन को फैलाव मिला है, नज़रिए को नया धरातल मिला है. लेकिन हाँ इतना है कि दोनों परस्पर विरोधाभासी क्षेत्र हैं. एक तथ्य पर चलता है तो दूसरा भावनाओं और विचारों पर. एक मेरी आजीविका का साधन है तो दूसरा मेरे विचारों और भावों का वाहक.बस यही सीमाएं ही मुझे अपने दोनों सरोकारों को एक साथ लेकर चलने की अनुमति देती हैं. 

[डॉ. शुक्ल] 5: क्या आपको कभी महसूस होता है कि आप शब्दों से खेलते हैं? या शब्द आपके साथ खेलते हैं?

डॉ.जयशंकर शुक्ल – मेरे विचार से किसी भी लेखक के लिए लेखन एक संघर्ष की प्रक्रिया है. संघर्ष उसके विचारों के आलोड़न की, संघर्ष उन विचारों को, भावों को सार्थक दिशा देने की और संघर्ष उन सभी को शब्दरूप देने की. हमनें सोच तो लिया कि क्या लिखना है? किस विधा में लिखना है पर बात वहाँ आकर अटकती है कि आखिर सोचे हुए को लिखा कैसे जाए? कैसे उन शब्दों का वाक्यों का चुनाव किया जाए जो आपके विचारों का अक्षरशः निरूपण कर सके उनको अर्थ दे सके.और यही वः बिंदु होता है जहाँ से शब्दों का खेल आरम्भ होता है. कई बार विचार स्पष्ट होते हैं और ऐसे में शब्द आपसे क्रीड़ा करते हैं, वो अलग-अलग रूपों में आकर आपको आकर्षित करते हैं, भ्रमित करते हैं. आपको उनमें से अपने अभीष्ट का चुनाव करना होता है. कभी-कभी यह प्रक्रिया वैचारिक उहापोह का रूप ले लेती है. वहीं जब आप विचारों की अस्पष्टता से जूझ रहे होते हैं तो आप शब्दों के पीछे भागते हैं, उनको तोलते हैं, परखते हैं कि शायद वो शब्द आपके अस्पष्ट विचारों को सार्थकता दे दें, दिशा दे दें. यह क्रम चलता रहता है. रचनाकार और शब्दों के बीच का यह खेल सामान्य है जो परिस्थितियों के अनुसार अपना पाला बदलता रहता है. कभी रचनाकार शब्दों से अठखेलियाँ करता है तो कभी शब्द रचनाकार को भरमाते हैं, आकर्षित करते हैं. पर इन सब का लक्ष्य एक ही होता है, विचारों और भावों को शब्दरूप देना. एक सार्थक शब्दरूप जो रचनाकार और पाठक दोनों के विचारों को संतुष्टि दे सके, पोषित कर सके. 

[डॉ.जयशंकर शुक्ल 6: आप रचनाकार हैं और रचनाकार का आभासी दुनिया से बहुत करीब का सम्बन्ध होता है. क्या इसे आप महसूस कर पाते हैं?

[अरविन्द] – वह रचनाकार ही क्या जो कल्पनाशील न हो. कल्पना ही रचनाकार को विस्तृत आकाश देती है जिससे वह अपने मनोभावों के पंखों पर सवार होकर स्वछंद विचरण कर सके, अपनी कल्पनाओं में रंग भर सके. पर मेरी समझ में यह मात्र कोरी कल्पना नहीं होनी चाहिए. रचनाकार को वास्तविकता का दामन कदापि नहीं छोड़ना चाहिए. कम से कम इतना तो हो कि वह कल्पना भी वास्तविकता का विस्तृत रूप हो और कहीं न कहीं उन घटनाओं से सम्बद्ध हो जिसको आप व्यक्त करना चाहते हैं. अब रचनाकार के लिए हर घटना प्रत्यक्ष नहीं हो सकती. हो सकता है कि वह कुछ का प्रत्यक्षदर्शी भी हो, उनको साक्षात् अनुभव भी किया हो पर बाकी कि सम्बंधित घटनाओं या भावों के निरूपण के लिए वह कल्पना के सहारे उस आभासी दुनिया को जीता है , महसूस करता है, उन सब घटनाओं को फिर से अपने कल्पनालोक में दोहराता है ताकि वह अपनी रचना के लिए एक पृष्ठभूमि तैयार कर सके. रचनाकार कल्पना से बच नहीं सकता और बचना भी नहीं चाहिए. सबसे बड़ी बात कि अगर रचनाकार वास्तविकता से परे भी कुछ लिखता है तो भी उसे अपनी आभासी दुनिया निर्मित करनी ही पड़ेगी जहाँ वह अपनी स्वगठित कल्पनाओं को अपनी आभासी दुनिया में घटित होते देख सके और उनको अपनी रचना में पुनर्जीवित कर सके. मेरी समझ में बिना आभासी दुनिया को रचे रचनाकार अपनी रचना के साथ कतई न्याय नहीं कर सकता. अब यह उस पर निर्भर है कि वह आभासी दुनिया से वास्तविक दुनिया को कितना साध पाता है.

डॉ.जयशंकर शुक्ल 7: आपको गद्य लिखने में जादा सुविधाजनक लगता है अथवा पद्य? क्यों?

[अरविन्द] – गद्य और पद्य दोनों कि अपनी सरलताएं और जटिलताएं है. एक तरह से देखा जाये तो गद्य लिखना बहुत सरल लगता है. किसी भी बात को, घटना को बस लिखते जाना है जितना आप सोच सकें और तथ्यों के साथ अपनी बात को कह सकें बिना मात्राओं, वर्णों के नियमन के, बिना किसी अन्य नियम से बंधे. बस लिखते जाना है. पर क्या यह वाकई में इतना सरल है जितना दिखता है? नहीं, कदापि नहीं. इस सरलता में भी जटिलता निहित है. गद्य रस, छंद, अलंकार, लय से परे है और इसकी सम्भावना भी बहुत क्षीण है पर आप सोचकर देखिये कि बिना किसी नियमन और रस, छंद, अलंकार, लय से रहित होते हुए आप किसी गद्य रचना को प्रभावी और रुचिकर कैसे बना सकते हैं? कैसे एक पाठक गद्य में भी कविता जैसा आनंद ले सकता है? निःसंदेह यह चुनौतीपूर्ण है. इसके लिए विषय की सार्थकता, स्पष्टता, तथ्य, भाषा प्रवाह, उसकी कसावट, विश्लेष्णात्मक अध्ययन और अपनी बातों को  सही परिप्रेक्ष्य में रखने की कला चाहिए. यह कतई सरल नहीं है किसी भी रचनाकार के लिए. एक अच्छा गद्य बिना इन गुणों को आत्मसात किए हुए नहीं लिखा जा सकता है.

दूसरी ओर काव्य तो रस, छंद, अलंकार, यति, गति, लय और भाव पर निर्भर है.अपनी रचना में यदि रचनाकार इनमें से कुछ को भी साध ले तोहै कम से कम वह पठनीय अवश्य हो जाता है. पाठक कहीं न कहीं उनमें अपनी संतुष्टि कर ही लेता है. यहाँ तथ्य और उनका विश्लेष्णात्मक अध्ययन उतने मायनें नहीं रखते जितना भाव और लय. पर यह कार्य भी चुनौतीपूर्ण तब हो जाता है जब आप साहित्य को कुछ उत्कृष्ट देना चाहते हैं. काव्य मात्र लय, यति, गति का ही आकांक्षी नहीं है  अपितु यह उन सभी गुणों की माँग करता है जो रचनाओं को काव्य की कसौटी पर कस सकें उनको पूर्णता दे सके. छंदबद्ध काव्य की अपनी दुरुहता है. मात्राओं, वर्णों, छंदों के नियम का पालन करते हुए, लय, यति, गति को साधते हुएअपने भावों को सरल शब्दों में प्रभावी तरीके से व्यक्त करना कोइ सरल कार्य नहीं है.

अगर मैं अपनी बात करूँ तो दोनों ही मेरे लिए सरल नहीं हैं. जितना प्रयत्न मैं गद्य लिखने में करता हूँ उतना ही काव्य के लिए भी. पर भी मेरे विचार में गद्य लिखना पद्य की तुलना में थोड़ा सा सरल है पर उसकी स्वीकार्यता बनाए रखना उतना ही कठिन.

डॉ.जयशंकर शुक्ल 8: आपकी अब तक दो किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. क्रमशः उन पुस्तकों के विषयवस्तु पर प्रकाश डालेंगे? 

[अरविन्द] – जी मेरी दोनों ही पुस्तकें छंदमुक्त (गद्य गीत) कविताओं का संकलन हैं. प्रथम पुस्तक ‘अनकही अनुभूतियों का सच’ 2017 में अंजुमन प्रकाशन, इलाहाबाद से प्रकाशित हुई थी. इस पुस्तक में मेरी 52 कविताओं का संकलन हैं जो विभिन्न विषयों पर केन्द्रित है. इन विषयों में समाज, किसान, व्यक्तिगत सम्बन्ध, प्रकृति, गाँव, मजदूर, बच्चे आदि बहुत कुछ है. मैंने बचपन से जो भी देखा, जिया और भोगा, उन सब का लेखा-जोखा, सारांश हैं ये कविताएँ. एक तरह से कहूँ तो बचपन से, जब से मैंने लिखना प्रारम्भ किया था और इस पुस्तक के प्रकाशित होने तक के अंतराल का मेरा जीवन वृत्त है ये कविताएँ.यह अंतराल करीब 15 वर्षों का रहा और इस दौरान जो भी घटा, देखा कहीं न कहीं इन कविताओं की पंक्तियाँ बन गईं.

दूसरी पुस्तक ‘वो कहते हैं’ अभी हाल में ही (मई 2019) में आस्था प्रकाशन नागपुर से प्रकाशित हुई है. प्रथम पुस्तक की भंन्ति यह भी छंदमुक्त (गद्य गीत) कविताओं का संकलन ही है. इस पुस्तक में करीब 34 कविताएँ संकलित हैं. स्पष्ट रूप से मैंने इसमें उन विषयों को रखा है जिनसे मेरा साक्षात्कार इस अंतराल में हुआ. आपको दोनों पुस्तकों में कुछ विषयों में समानता दिख सकती है पर उनके भाव और उनका निरूपण बदले हुए काल और बदले हुए परिप्रेक्ष्य में है.एक तरह से कहूँ तो यह मेरी नई दृष्टि है इस मध्य बदले हुए हालात में और समय में.पर हाँ केंद्र में समाज, किसान, व्यक्तिगत सम्बन्ध, प्रकृति, गाँव, मजदूर, बच्चे आदि यहाँ भी हैं. दोनों पुस्तकों में संग्रहीत कविताओं के विषय हमारे ही अस पास के वातावरण की बानगी हैं. जो कुछ भी घटित होते देखा, समझा, अनुभव किया  और जिस घटना ने जितना मन को  मथा, व्यथित किया उनको बस लिखता रहा. मेरी सभी अव्यक्त भावनाओं का लिखित दस्तावेज हैं ये दोनों पुस्तकें, बस इतना ही कहूँगा.

डॉ.जयशंकर शुक्ल 9: अरविन्द जी, साहित्य की इस दुनिया में आपने बहुत कुछ पाया है और समाज को दिया भी है. क्या इन दोनों के बीच कुछ खोया भी है? इसे कैसे व्यस्थित कर पाते हैं?

[अरविन्द] – एक बड़ा प्रश्न पूछा है आपने. मैं इसका उत्तर संक्षेप में देने का प्रयास करूँगा. यह सच है कि साहित्य से मुझे बहुत कुछ मिला है और जो भी मिला है अलग-अलग रूपों में, अलग-अलग माध्यमों से. सबसे बड़ी चीज़ जो मुझे साहित्य से मिली वह है ‘आत्मबल’. अब आप कहेंगे कि कैसा ‘आत्मबल’? ये ‘आत्मबल’ मिला है मुझे कविताओं से, लेखों से, जिनसे मैं गुज़रा, जिनको मैंने पढ़ा और जिनसे मुझे संबल मिला, जीवन जीने की दिशा मिली, अपनी सोच को विस्तृत रूप देने का मज़बूत आधार मिला. जो कहीं न कहीं मेरे अंदर सही मायनों में मनुष्यता का संवाहक भी रहा है और उनका पोषक भी. इससे इतर मुझे और जो कुछ विशेष मिला है वह है ‘आप जैसे लोग’. सच मानिए इस साहित्य में मुझे कुछ ऐसे विभूतियों का साथ मिला जो मेरे साथ किसी भी तरह का सम्बन्ध न होते हुए भी  चाहे वह व्यक्तिगत हो या साहित्यिक और न ही मैं कोई इतना बड़ा विद्वान या व्यक्तित्व कि लोग मुझे समय देते, इसके बावजूद आप और उन सब लोगों ने मुझ नवागुंतक को जो स्नेह, सम्मान और ज्ञान का आशीर्वाद दिया वह तथाकथित अपने कहे जाने वालों से उम्मीद करना भी दिवास्वप्न ही होगा. साहित्य ने मुझे जो भी दिया ही उन सब में यही मेरी धरोहर भी है और पूँजी भी. सत्य कहूँ तो इससे अधिक की आकांक्षा भी नहीं है.

रही बात समाज को देने कि तो मैं यह कहने की स्थिति में कतई नहीं हूँ कि मैंने क्या दिया है? मुझे नहीं लगता कि मात्र पुस्तकें लिख भर देने से किसी का कोइ योगदान हो जाता है जब तक वह कुछ सार्थक न हो और यह सार्थक है अथवा नहीं यह पाठक वर्ग ही तय कर सकता है. अतः मैं इस निर्णय का दायित्व आप जैसे साहित्य मनीषियों और पाठक वर्ग पर ही छोड़ता हूँ.

‘क्या खोया है मैंने’? यह प्रश्न गौड़ है उन उपलब्धियों के सम्मुख जो मैंने अभी आपसे कहे.पर इतना तो है कि जिस तरह का कार्य क्षेत्र है मेरा उसमें से साहित्य के लिए समय निकालना बहुत ही चुनौतीपूर्ण है. एक सीनियर सॉफ्टवेयर आर्किटेक्ट होने के नाते मुझे नई-नई तकनीकों के बारे में पढना पड़ता है, सीखना पड़ता है और सबसे बड़ी बात कि उनको कब, कैसे, कहाँ प्रयोग में लाया जाए यह सब निर्णय करना पड़ता है. इन सब के लिए आपको अनवरत पढना ही पड़ेगा. ऐसे में आप ही सोचिए कि साहित्य के लिए मनोदशा और समय कहाँ से लाऊँ और इसी में आपके प्रश्न का उत्तर निहित है कि क्या खोया है मैंने? या क्या खोता हूँ? कई बार रातों को जागता हूँ कि कुछ सोच सकूँ, लिख सकूँ. ऑफिस से आना-जाना हो या कहीं किसी यात्रा के दौरान अपने समय का सदुपयोग लिखने में करता हूँ या लिखने की भूमिका की मनोदशा बनाने में.कई बार घर या ऑफिस में जब सब बाकी चीज़ों या पार्टियों का आनंद ले रहे होते हैं तो मैं कहीं कुछ सोच रहा होता हूँ. सबके साथ रहकर भी सबसे अलग रहता हूँ और इन सब के मध्य पत्नी, बच्चों और घर के दायित्व का भी निर्वहन करना होता है. कई बार लगता है कि जैसे मैं इन सब के मध्य अपनी कुछ पारिवारिक जिम्मेदारियां उतनी तन्मयता से नहीं निभा पा रहा जितनी तन्मयता से निभानी चाहिए. ऐसे ही और भी कई ऐसी बातें हैं जहाँ कुछ न कुछ खोने, छोड़ने और छूटने का एहसास तो होता ही है. लेकिन इन सब के बावजूद जब आपका ही परिवार आपके लिखे हुए को देखकर प्रशन्न होता है तो आप सब कुछ पा लेते हैं, जब कोइ आपकी कविता या लेख पढ़कर प्रसन्न भाव से आपसे बात करता है तो खोया हुआ सब लौट आता है. कितनी बार ऐसा हुआ है कि लोगों ने मेरी कविताएँ पढीं और जिस तरह से उनकी प्रतिक्रिया उनकी भीगी पलकों में दिखी, उनकी शांत और गहरी साँसों में परिलक्षित हुई वह संतोष अवर्णनीय है. ऐसे में  कुछ खोने की बात ही कहाँ रह गई. जो भी है बस पाया ही है. इतना ही कहूँगा कि बिना पारिवारिक संबल के कार्य और साहित्य को एक साथ लेकर चलनामेरे लिए हमेशा ही कठिन रहा है पर इन कठिनाईयों के साथ आगे बढना उतना ही प्रिय भी.

डॉ.जयशंकर शुक्ल 10: आपके प्रकाशित साहित्य के अतिरिक्त अप्रकाशित साहित्य के रूप में कितना कुछ प्रतीक्षा में है? वो आकार ले पाया या आपके विचारों, मस्तिष्क में है?

[अरविन्द] – सृजनधर्मिता रचनाकार का स्वाभाविक गुण है और मैं भी इससे अछूता नहीं. यहाँ पर मेरे साथ विशेष बात यह है कि जितना मैं स्वयं अपने लेखन और अपने भावी कार्यक्रमों के बारे में नहीं सोचता उससे अधिक मेरे शुभचिंतक मेरे लिए सजग रहते हैं. मेरे प्रेरक व्ही सब हैं.आज तक मुझे नहीं जान पड़ता कि मैंने अपने लिए कोई रूपरेखा बनाई हो. मेरे अग्रज, शुभचिंतक  उन रूपरेखाओं से मुझे पहले ही अवगत करा देते हैं, मेरे मस्तिष्क में आरोपित कर देते हैं.यहाँ तक कि मेरी प्रथम पुस्तक का प्रकाशन भी स्वयं मेरी सोच नहीं थी और न ही दूसरी पुस्तक की भी. अप्रकाशित साहित्य की बात करूँ तो ज़ेहन में बहुत कुछ है. कुछ पर तो मैंने कार्य भी प्रारम्भ कर दिया है, कुछ पर मंथन चल रहा है और बाकी को भविष्य के लिए छोड़ रखा है.गद्यगीत संग्रह तो आपके सम्मुख है. यात्रा संस्मरण भी पूर्ण ही है. भावी कार्यकर्म की बात करूँ तो डॉ एनी यात्रा संस्मरणों की पृष्ठभूमि तैयार है, गीतों पर भी एक संग्रह निकालने की योजना है. मेरी प्रथम पुस्तक ‘अनकही अनुभुतियों का सच’ पर एक समीक्षात्मक संग्रह भी निकलना है. साक्षात्कार संकलन पर भी मंथन चल रहा है. कहानी लघुकथा का भी प्लाट तैयार है और भी अन्य बहुत से विचार हैं जो भविष्य में समय और काल की परिस्थिति पर निर्भर करेंगे और इस बात पर भी की मैं कितना सीख पाता हूँ और कितना न्याय कर पाता हूँ विधा विशेष से. पर हाँ इतना कह सकता हूँ कि जितना सोचा था और जितना सोच रहा हूँ वह कहीं न कहीं आकर ले चूका है या आकार ले रहा है. बाकी एनी गतिविधियाँ इन सब के समानांतर चलती ही रहती हैं जो निश्चित ही इन परिकल्पनाओं को वास्तविकता प्रदान करेंगी.

डॉ.जयशंकर शुक्ल 11: आपका गद्य लेखन यात्रा संस्मरण से शुरू हुआ है और प्रकाशन से पहले आपकी कविता की दो किताबें आ चुकी हैं. वरीयता क्रम में आप अपने को लेखक मानते है या कवि?

[अरविन्द] – जी देखिए, यह मैं आपसे अभी कुछ देर पहले ही कह चूका हूँ कि रचनाकार को अपने सृजन से जाना, जाना चाहिए न की विधा विशेष के आधार पर. यही बात मैं स्वयं के लिए भी लागू करता हूँ. मैं अपने विचार और भावनाओं को व्यक्त करना अधिक महत्वपूर्ण समझता हूँ, न कि इस बात में की वह किस विधा विशेष में व्यक्त की गई है. विधा विशेष तो विषय, भावनाओं और विचार पर निर्भर करती है कि वह किस सांचे में सरलता और प्रवाहपूर्ण तरीके से ढाली जा सकती है जहाँ उसका इम्पैक्ट अधिक होगा. मैं समीक्षा, गीत, दोहा, आलेख, संस्मरण और अन्य विधाओं में भी लिखता हूँ पर इसका मतलब यह नहीं कि इससे सम्बंधित सारे उपनाम मेरे साथ जुड़ गए मसलन गीतकार, कहानीकार, समीक्षक इत्यादि. मैं मात्र लिखने में विश्वास करता हूँ. अपने विषय को जिस विधा में भी उपयुक्त लगता है उसमें ढालने का प्रयास करता हूँ. अगर मुझमें उस विधा विशेष में व्यक्त करने की क्षमता नहीं है तो या मैं उस विधा का प्रयोग नहीं करता या मई उसको पढ़ने, सीखने का प्रयत्न करता हूँ जब तक, तब तक कि उसके साथ न्याय न कर सकूँ. रही बात वरीयता क्रम की तो जैसा की मैंने कहा कि मैं मात्र रचनाकार हूँ जो अपने विषय के अनुरूप किसी भी विधा का चुनाव करने के लिए स्वतंत्र है न कि कोइ कवि, लेखक या अन्य. कविता संग्रह पहले आना मात्र एक संयोग है मेरे लिए या यूँ कह लीजिए कि दैवयोग से मेरे पास कविता संग्रह के लिए पर्याप्त सामग्री उपलब्ध थी जिससे इसे कविता संकलन का रूप देने में विलम्ब नहीं हुआ.

डॉ.जयशंकर शुक्ल 12: अरविन्द जी, जैसा मैंने पाया है कि आपके गद्य में कविता जैसा लालित्य है.

[अरविन्द] – जी धन्यवाद् (सकुचाते हुए), अगर ऐसा है तो. बाकी इसका निर्णय तो आप या अन्य पाठकगण ही कर सकते हैं. जैसा कि आपने कहा कि मेरे गद्य में कविता जैसा लालित्य है.

डॉ.जयशंकर शुक्ल 13: इस लालित्य को बरकरार रखते हुए आप गद्य की कसौटी को कैसे साध पाते हैं?

[अरविन्द] – जैसा कि आपने कहा कि मेरे गद्य में कविता जैसा लालित्य है, यकीन मानिए मैं ऐसा कुछ भी विशेष नहीं करता. और न ही मैंने कभी इस बात पट गौर किया कि मेरे लिखे हुए में ऐसा कुछ है.मैं अपनी सभी रचनाओं पर बड़े मनोयोग से कार्य करता हूँ, अलग-अलग कोणों से स्वमूल्यांकन भी और इसी कारण मुझे भली भी लगती हैं. मैं उन्हें स्वयं भी पाठक की हैसियत से पढता हूँ. मैंने कई बार आपसे इस बात को दोहराया है कि मेरे लिए रचना में भावों और प्रवाह का होना बहुत महत्वपूर्ण है. रचना कोई भी हो, किसी भी विधा की हो, जब तक पाठक उसे बिना रुके पढता न जाए या वह पूरी रचना को पढ़ लेने को तत्पर न हो तो रचनाकार की रचना अपना प्रयोजन सिद्ध नहीं करती है. मैंने जो भी गद्य अथवा पद्य (किसी भी रूप में) लिखा है उसमें प्रयास यही रहा है कि प्रवाह टूटना नहीं चाहिए. घटनाएँ, तथ्य एक दूसरे से सम्बंधित होने चाहिए, उसमें भटकाव नहीं होना चाहिए. किसी भी व्यक्ति के भाव ही स्वयं में एक कविता है. आप भावनाओं में बहते जाइए, उनको अनुभव करते जाइए कविता की पृष्ठभूमि स्वयं ही निर्मित होती जाएगी. जब यही भावनाएं किसी रचनाकार के ह्रदय और मस्तिष्क जन्म लेती हैं तो आप सोच सकते हैं कि वह अपने मनोभावों को शब्द रूप देने के लिए क्या जतन नहीं करेगा. मेरे साथ भी ऐसा ही है मैं किसी भी अनुभव से गुजरूँ, भावनाओं के किसी भी सरोवर में गोते लगाऊँ,मैं उनको बहुत शिद्दत से महसूस करता हूँ और कोशिश करता हूँ कि उस अवधि में अनुभवों की, भावनाओं की हे छुवन को अपने ज़ेहन में उतार सकूं. कुछ विशेष नहीं करता बस इन्हीं सब को उकेरता जाता हूँ शब्दों से खेलते-खेलते. एक काव्यात्मक, साहित्यिक अपेक्षाओं और नियंत्रण के साथ भावनाओं को जब अपनी रचना के माध्यम से शब्द रूप देते हैं तो निश्चय ही उसमें काव्यात्मक पुट तो रहेगा ही.शायद यही कारण हो कि मेरी गद्य रचनाएं भी इस प्रभाव से अछूती न रह पाती हों. पर इसका आशय यह  नहीं कि गद्य की कसौटी से कोइ समझौता किया जाना चाहिए, कतई नहीं. भावों का निरूपण तो रचना को लोच देता है, पाठक और रचनाकार को करीब लाता है लेकिन तथ्य और विश्लेषण रचना को उसकी सार्थकता प्रदान करते हैं उससे किनारा करना उस रूपसी के सामान है जिसके पास श्रृंगार, सज्जा सब तो है पर आचार-विचार की उत्कृष्टता नहीं. 

डॉ.जयशंकर शुक्ल 14:  यात्रा संस्मरण लिखने से पहले आपने क्या कोई यात्रा संस्मरण की पुस्तक पढ़ी है?

[अरविन्द] – पढ़ना मेरा शौक है और जब भी समय मिलता है अलग-अलग विधाओं में विभिन्न रचनाकारों को पढ़ता रहता हूँ. मेरा स्वयं का छोटा सा पुस्तकालय है जिसमें अलग-अलग विषयों, विधाओं में उत्कृष्ट रचनाएं संग्रहीत हैं. बस मेरे साथ कठिनाई यह है कि मैं ऐसे ही किसी भी पुस्तक को नहीं पढ़ लेता जब तक की उस पुस्तक की विषयवस्तु, भाषा और रचनाकार के बारे में पर्याप्त जानकारी न हो अथवा किसी अन्य व्यक्ति ने उसकी अनुशंसा न की हो. कई बार ऐसा हुआ है कि मैंने जल्दबाजी या अतिरेक में नाम, शीर्षक से प्रभावित होकर कुछ पुस्तकें खरी ली और बाद में निराश होने पर या तो मुझे उसे किसी और को देना पड़ा या फिर रद्दी में प्रयोग हो गईं. अपनी विचारधारा और स्वगठित मानदंडों के अनुरूप ऐसी किसी भी रचना को अपने पुस्तकालय में स्थान देना मेरे लिए संभव नहीं है. कहने का तात्पर्य यह की मैं पुस्तकें खरीदता हूँ, पढ़ता हूँ पर यह प्रक्रिया मेरे लिए सरल सपाट न होकर कठिनाई लिए हुए है. कठिनाई पुस्तकों के चयन की. अन्यथा आप समय लगाकर, पैसे खर्च करके पुस्तकों को पढ़ें और बाद में हर ओर से आपको निराशा ही हाँथ लगे तो बहुत क्षोभ होता है. यात्रा संस्मरण पर कार्य करने की अभिलाषा तो प्रारम्भ से ही थी पर जैसा मैंने आपसे कुछ देर पहले कहा कि मैं किसी भी विधा पर रचना कार्य करने से पहले उससे सम्बंधित जानकारियाँ लेने और पढने का प्रयास करता हूँ कि ताकि आधारभूत जानकारी मिल सके और रचना के साथ भी न्याय कर सकूँ.वैसे भी संस्मरण मेरी प्रिय पठनीय विधा रही है उसमें भी यात्रा संस्मरण तो सर्वप्रिय. यात्रा संस्मारों के लरम में मैंने कई पुस्तकें पढ़ी हैं. जो नाम अभी याद आ रहे हैं उसमें राहुल संकृत्यायन कृत वोल्गा से गंगा, अज्ञेय द्वारा रचित एक बूँद सहसा उछली और मोहन राकेश कृत आख़िरी चट्टान तक , ऋषिराज द्वारा रचित अतुल्य भारत की खोज, नीलेश द्वारा लिखी गई कैलाश मानसरोवर की यात्रा प्रमुख हैं.

डॉ.जयशंकर शुक्ल 15: अपने शीर्ष आपने कैसे गढ़े? इनमें आपने किसी का सहयोग लिया अथवा नहीं?

[अरविन्द] – कोई भी व्यक्ति अपने आप में पूर्ण नहीं होता है. हो सकता है कि वह क्षेत्र विशेष में निपुण हो, पारंगत हो, विशेषज्ञ हो पर तब पर भी यह जरूरी नहीं कि वह उसके हर कोणों से परिचित हो. कुछ न कुछ तो अछूता रहेगा ही. अगर वह अन्य क्षेत्रों में भी अपनी जानकारी रखता है तो भी वह उनका विशेषज्ञ ही होगा इसके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता. कारण की आप कितना भी यत्न कर लें कहीं न कहीं क्षेत्र विशेषज्ञ से पारखियों से आपको को कुछ न कुछ सीखने को अवश्य मिलेगा. यह बात मेरे लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है यहाँ. एक तो मैं ठहरा टेक्निकल पृष्ठभूमि का और साहित्य इन सब से एकदम इतर. ये अलग बात है कि साहित्य में मेरी बहुत रूचि है, पढता भी हूँ पर अब मैं अपने आपको साहित्य का ज्ञाता समझ लूँ, पारखी अथवा विशेषज्ञ तो यह गलत होगा. हो सकता है कि मैं कई दृष्टिकोण से अच्छा होऊँ  पर बहुत सी ऐसी बातें हैं जो अभी जाननी शेष हैं, बहुत लम्बा सफ़र तय करना है अभी तो ज्ञानार्जन हेतु. अब ज्ज़हिर सी बात है कि मुझे आगे की दिशा-दृष्टि के लिए , ज्ञानार्जन के लिए अन्य साधकों का सहारा लेना ही पड़ेगा. मै बुत ईमानदारी से यह स्वीकार करता हूँ कि मैंने सहयोग लिया है और लेता रहता हूँ. भाग्य से संपर्क में आए कुछ विद्वान और सज्जन व्यक्तियों की छत्रछाया में हूँ जिनका मार्गदर्शन, सहयोग और प्रतिक्रियाएं मिलती रहती हैं. अच्छे-बुरे, सही-गलत की समझ विकसित होती है. यहाँ सहयोग का अर्थ यह कतई नहीं लिया जाना चाहिए कि साहित्य के मानदंडों से शिथिलता लेते हुए कुछ अनुचित लाभ लेता हूँ या मिलता है उद्दह्रण के लिए मान लीजिए कि मैंने कुछ भी लिखा और उसके कसीदे मेरे जानने वालों नें पढ़ दिए, कह-सुनकर किसी से भी पत्र-पत्रिकाओं, वेब पोर्टल पर कुछ छपवा लिया. नहीं ऐसा कुछ भी नहीं है कम से कम मेरे साथ. वो जो भी हैं मुझे सत्य बताते हैं, सत्य दिखाते हैं, कई बार डांट भी खता हूँ, रचनाओं को परिष्कृत करने के लिए उलाहने भी सुनता हूँ. सबसे बड़ी बात किभी लिखने से पहले बहुत कुछ पढने के लिए प्रेरित किया जाता है. कितनी बार हिंदी की मात्राओं और व्याकरण के लिए भी टोका गया है. तो आप ही समझिए कि कैसा होगा ये सम्बन्ध और उससे भी बड़ी बात कैसे होंगे वे लोग जो मुझ जैसे विपरीत पृष्ठभूमि वाले नवागुंतक को भी इतना स्नेह देते हैं. मैं अपने साहित्यिक गुरुओं का नमन करता हूँ और अपने भाग्य को सराहता भी हूँ कि मैं ऐसे लोगों के सानिध्य में कुछ सीख पा रहा हूँ. कोइ भी क्षेत्र हो, कोइ भी कार्य हो उसके और अच्छा होने की गुंजाईश हमेशा ही होती है. मई बस यही करने का प्रयास करता रहता हूँ. इसी बात बात को चरितार्थ करती अंग्रेजी में एक कहावत है जिसका उल्लेख करना चाहूँगा

“Good, better, best, let them not rest

Until good is better, better is best”

तो सीढ़ी बात यह कि बिना किसी का सहयोग पाए, मार्गदर्शन पाए मेरे लिए साहित्य के क्षेत्र में खड़ा रह पाना संभव नहीं हो सकता था. यहाँ बात यह नहीं की मैं साहित्य में अपने किसी विशेष मंतव्य की चाह लिये आया हूँ  अथवा किसी मुकाम तक पहुंचना हैं. ऐसा उद्देश्य बिलकुल भी नहीं है पर हाँ अगर ऐसा होता भी है ति वह सुखद ही होगा लेकिन मैं सिर्फ़ लिखना चाहता हूँ, निर्विकार भाव से सार्थक और उद्देश्यपरक. कुछ ऐसा लिखना चाहता हूँ जो लोगों से, उनकी अपेक्षाओं से जुड़ा हो, जिसे पढ़कर साधारण जन भी जुड़ा महसूस करे और वह भी अपने आप को साहित्य के समीप रख सके उससे संवाद स्थापित कर सके.

डॉ.जयशंकर शुक्ल 16: आपके यात्रा संस्मरण की विषयवस्तु क्या है? 

[अरविन्द] – जी यह यात्रा संस्मरण पंचमढ़ी की यात्रा से सम्बंधित है. पंचमढ़ी मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले में सतपुड़ा की पहाड़ियों में बसा मध्यप्रदेश का सबसे ऊँचा पर्यटन स्थल है. इसे सतपुड़ा की रानी और महादेव का दूसरा घर भी कहा जाता है. यह संस्मरण इस पूरी यात्रा का लिखित दस्तावेज है. यात्रा के विचार बनने, उस विचार से उत्पन्न स्थितियां, यात्रा के लिए स्थान का चयन, तैयारी, घूमना, वापस आने तक की घटनाओं का सिलसिलेवार ढंग से समेटने का प्रयास है. इन सब में सबसे महत्वपूर्ण यह की एक पर्यटक और साधारण मनुष्य होने के नाते मई स्वयं जिन-जिन मनोभावों और अनुभवों से गुजरा उन सब को संजोने की कोशिश है यह यात्रा संस्मरण.

डॉ.जयशंकर शुक्ल 17: अपने यात्रा संस्मरण में आपने अपने अनुभूतियों को शब्दों के माध्यम से  व्यक्त करने का प्रयत्न किया है. आप इसमें कितने सफल रहे हैं?

[अरविन्द] – सच कहूँ तो बहुत ही कठिन रहा यह. भावनाएँ, अनुभूतियाँ तो अपरिमित होती हैं ये बड़े वेग से आती हैं और ह्रदय को झंकृत करते हुए गुजर जाती हैं. जितनी बार भी आती हैं उनका परिमाण, वेग और प्रभाव अलग-अलग होता है. ऐसे में आपके पास बहुत सीमित शब्द होते हैं कि उन सभी अनुभूतियों को आप उकेर सकें, शब्दों में बाँध सकें. और अगर सारी अनुभूतियों को शब्दों में बाँधने का प्रयास भी किया जाए तो कुछ क्षणों के पश्चात उस लिखे हुए में भी एकरूपता लगने लगेगी क्योंकि शब्दों की भी अपनी मर्यादाएं हैं भावनाओं को व्यक्त करने की और अगर किसी तरह शब्दों को थोडा संयत कर भी लिया तो अतिसह भावनाओं की उपस्थिति यात्रा संस्मरण का स्वरुप विकृत कर सकती है. भावनाओं के साथ-साथ यात्रा संस्मरण के बाकी विधानों को भी साधना पड़ेगा और नियंत्रण में रखना पड़ेगा. सब मिलाकर कहूँ तो बड़ी विकट स्थिति रही मेरे लिए कि किन अनुभूतियों को लिखूँ और किन्हें नहीं. वैसे मुझे तो अपनी सारी अनुभूतियों को लिखने में प्रसन्नता ही होती पर यह पाठक के और साहित्यिक रूप से भी देखना था की उतना ही लिखा जाए जितना सहज रूप से उदरस्थ हो सके और यह स्वाभाविक रूप से हो. आप को लिखे हुए संस्मरणों को समझने के लिए अनुभव करने के लिए अतिरिक्त प्रयास न करना पड़े कि क्या ऐसा हुआ होगा? और कुछ देर सोचने पर आप स्वयं से कहे की हाँ, शायद ऐसा हुआ भी हो, अगर लिखा है तो सच ही होगा तो यह मैं उचित नहीं समझता, प्रवाह नहीं टूटना चाहिए, कोरी कल्पना या गल्प नहीं लगना चाहिए. पाठक अगर आपके साथ उन भावनाओं में बहे तो वह स्वयं भी इतना मूल्यांकन कर सके की ऐसा होना संभव है और हुआ भी होगा. वह आकर्षित हो उस जगह के प्रति या कम से कम एक सही दृष्टिकोण के साथ उसकी समझ विकसित कर सके और इसके साथ ही साथ उस स्थान विशेष के बारे में जैसे मौसम, आवागमन, स्थानीय, भौगोलिक स्थिति आदि के बारे में आधारभूत जानकारियां भी ले सकें. मैंने अपने इस यात्रा संस्मरण में इन सभी बातों में तालमेल बैठने का भरसक प्रयास किया है पर जैसा की मैंने कहा है कि चीज़ों के और श्रेष्ठतर होने की सम्भावना हमेशा होती है और अवश्य ही यहाँ भी इस बात से नाकारा नहीं जा सकता. बाकी कितना सफल हो पाया हूँ कि नहीं यह तो पाठकों की प्रतिक्रिया से ही जाना जा सकता है मेरे कयास लगाने का कोई औचित्य ही नहीं बनता.

डॉ.जयशंकर शुक्ल 18: क्या आपके संस्मरण की भाषा आपकी बोलचाल की भाषा के करीब है? 

[अरविन्द] – मेरी मूल भाषा अवधी है. जहाँ तक मेरे लेखन की बात है मैं खडी बोली का व्यक्ति हूँ और येही मेरी लेखकीय और बोलचाल की भाषा है इस तरह से देखा जाए तो मेरी बोली, मेरा लेखन इन सब में दोनों ही भाषाओँ का प्रभाव है. इन सब के साथ मैं अंग्रेजी को अलग कर के रखता हूँ लेकिन जब बात मेरी कार्यालय से सम्बंधित काम की आती है तो वहाँ अंग्रेजी ही होती है. तो सीधी सी बात यह कि तीनो का ही प्रयोग मैं यथास्थिति के अनुसार सम्मिलित रूप से करता हूँ. उद्देश्य यही होता है की जो लिखा जाए, जो बोला जाए, वह पढ़ने और सुनने वालों को अलग सा न लगे. इस हिसाब से मैं अपने यात्रा संस्मरण की बात करूँ तो यहाँ खड़ी बोली ही केंद्र में है पर हाँ जहाँ तहां संवाद को सामान्य बनाए रखने के लिए सामान्य बोलचाल के शब्दों का भी सहारा लिया है.

डॉ.जयशंकर शुक्ल 19: आपकी मूल भाषा क्या है? और आप उसके कितने करीब हैं?

[अरविन्द] – मेरा जन्म गाँव में हुआ, हालांकि में पला-बढ़ा शहर में ही पर हाँ गाँव से हमारा आना जाना लगा रहता था. जाहिर सी बात है गाँव के परिवेश और भाषा का असर तो मेरे ऊपर पड़ना ही था. गाँव में और यहाँ तक मेरे घर लखनऊ में भी आपसी बोलचाल की भाषा अवधी ही रही. हम अब भी आपस का अधिकतर वार्तालाप अवधी में ही करते हैं पर शहर में ही पढाई-लिखाई होने के नाते खड़ी बोली में ही सम्प्रेषण करना होता था. धीरे-धीरे हमारी बोलचाल की भाषा में खड़ी बोली घुलती गयी और इस तरह से घुल गयी की खड़ी बोली या अवधी का बोलना मेरे लिए समान ही लगने लगे. 

डॉ.जयशंकर शुक्ल 20: आपकी पुस्तक का अध्याय विभाजन आपने कैसे किया?

[अरविन्द] – पुस्तक में अध्याय विभाजन के लिए मैंने कोई बहुत युक्ति लगाई हो मुझे नहीं जान पड़ता. अपने यात्रा संस्मरण को मैंने बहुत ही स्वाभाविक रूप में लिखा है. बहुत लाग-लपेट करने या स्थितियों को बहुत विशेष बनाकर या बताकर लिखा हो ऐसा भी नहीं है. जिस तरह से यात्रा प्रारंभ होकर अपने गंतव्य तक पहुँचने, भ्रमण करने और वापसी तक चलती रही उसी क्रम में अध्याय स्वतः ही बनते चले गए. इसमें मैंने ऐसा कुछ भी विशेष प्रयास नहीं किया है.

डॉ.जयशंकर शुक्ल 21: अरविन्द जी, आपने अपने विचारों को लेखन क्रम में कितनी ईमानदारी बरती है?

[अरविन्द] – सच कहूँ तो पूरे यात्रा संस्मरण में मेरे लिए यह बड़ा ही चुनौतीपूर्ण रहा कि अपने विचारों को लेखन में कैसे उतारूँ? कितनी बार मानसिक संघर्ष की स्थितियों से गुजरना पड़ा. एक तरफ विचारों का समंदर तटबंध तोड़ने पर आमादा था तो दूसरी ओर लेखन की अपनी सीमाएं भी थी . घटनाएँ कपोल-कल्पना न लगने लगे, नाटकीयता न आने पाए, स्थितियों कि वास्तविक दशा का भी वर्णन हो और विचारों-भावों के साथ एकरूपता भी बन सके, हर तरह का दबाव था. जैसा मैंने अभी कुछ देर पहले ही आप से कहा कि पूरे यात्रा संस्मरण को मैंने स्वाभाविक रूप में ही लिखा है, मुझे कहीं भी कुछ भी विशेष नहीं सोचना पड़ा है. जो जैसा होता गया, दिखता गया उसको उसी धारा में लिखता भी गया. हाँ, पर कहीं-कहीं विचारों को लेखकीय रूप देने में कठिनाई हुई पर एक बात तो स्पष्ट रूप से कहूँगा कि जो भी लिखा है उसमें लेश मात्र भी अतिशयोक्ति नहीं है, किसी भी घटना को खींचने का या रोचक बनाने में कोई भी अतिरिक्त जुगतबाजी नहीं की है जो भी है परस्थितिजन्य है स्वाभाविक है.

डॉ.जयशंकर शुक्ल 22: घटी हुई घटनाओं को आपने यथावत रखा है या काट-छांट कर?

[अरविन्द] – जहाँ तक भी संभव हुआ है घटनाओं को यथावत ही रखा है. संभव शब्द का प्रयोग इसलिए किया कि किसी घटना में हर बिंदु, हर क्षण का ब्यौरा लिखा जाए आवश्यक नहीं और यह भी आवश्यक नहीं हर कोई ऐसा क्षण कुछ विशेष जोड़ता हो उस पूरी घटना में. जहाँ-जहाँ भी ऐसे स्थितियाँ रहीं उन-उन स्थानों पर थोड़ी शिथिलता बरती है उनको लिखने में. बाकी घटनाओं के मूल प्रवाह और स्थितियों को जस का तस रखा है.

डॉ.जयशंकर शुक्ल 23: आपके लेखन में आपके आलोचकों का क्या योगदान है?

[अरविन्द] – किसी भी कार्य में पूर्णता और सुधार की गूंजाईश हमेशा ही होती है और मैं भी इससे अछूता नहीं हूँ. पर प्रश्न यह है कि आलोचक हैं कौन? क्या वह स्वयं आलोचना के मानदंडों पर खरे उतरते हैं और आलोचना को न्याय सांगत रूप से परिभाषित करते है? ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ कि मेरे इस अल्प साहित्यिक अवधि के दौरान मैंने कई ऐसे आलोचकों को देखा है जो मात्र आलोचना करने के लिए ही आलोचना लिखते हैं, बिना विषयवस्तु और लेखक की पृष्ठभूमि को अच्छे से जाने. ऐसे लोगों की आलोचना में पूर्वाग्रह पूरी तरह हावी रहता है.अब आप ही बताइए की ऐसी आलोचनाओं को आप कितना प्रामाणिक मानेंगे. अभी मई कुछ समय पहले ही ऐसे महानुभाव से मिला जिन्होंने मेरी पुस्तकों लेखन को जाने समझे बिना ही आलोचना और साहित्य पर लम्बा चौड़ा, पूर्वाग्रह और आदर्शवाद से भरा आख्यान  दे डाला.प्रश्नों की ऐसी झड़ी लगी की मिलने का प्रयोजन ही भस्मीभूत हो गया. उनके प्रश्नों में सार्थक साहित्यिक चर्चा, सन्देश, सुझाव तो न के बराबर थी बस अंदर की कुंठा और क्षोभ प्रश्नों के रूप में निकल रही थी. लब्बो लुआब यह था कि एक विज्ञान का विद्यार्थी साहित्य से न्याय कैसे कर सकता है, कैसे कोइ दो वर्षों में दो पुस्तकें प्रकाशित कर सकता है. उन महाशय का पूरा समय इस बात को मनवाने में लग गया कि मैं यह सब मात्र दिखावे और यशप्राप्ति के लिए ही करता हूँ. साहित्य से मेरा कोई लेना-देना नहीं. खैर हर व्यक्ति की अपनी विचारधारा है होती है और वह स्वतंत्र हिया इसे व्यक्त करने के लिए. पर जब आप किसी अन्य के साथ यह करते हैं तो आपको अपने उत्तरदायित्व का भी निर्वहन करना होता है. बड़ी-बड़ी अतिआदर्शवाद की बातें करके आप साहित्य को परिभाषित नहीं कर सकते, उसकी नए सिरे से व्याख्या नहीं कर सकते अपितु यह सब आपको अपने आचार-विचार से भी दिखाना होगा. कितना अच्छा होता यदि वह महाशय वास्तविकता में आते और अपने पूर्वाग्रह, स्वरचित सिद्धांत को परे रखकर मेरा और मेरे लेखन का मूल्यांकन करते. पुस्तकों को देखते और पढ़ते और फिर सभी त्रुटियों की ओर इंगित करते हुए अपने विचार रखते. मुझे बहुत प्रसन्नता होती अगर कुछ ऐसा होता. इसी बहाने मैं उन जैसे मनीषियों से कुछ सीखता, आत्मावलोकन करता और कहीं न कहीं यह उनका अप्रत्यक्ष रूप से योगदान ही होता. पर ऐसे आलोचक भी आपको दिशा ही देते हैं. इस छोटी सी घटना नें यह तो दिखा दिया कि आने वाले समय में मुझे ऐसे प्रश्नों के लिए तैयार रहना होगा और इन सबका उत्तर मुझे उत्कृष्ट विचारों को आत्मसात करते हुए उत्क्रिश रचनाओं के माध्यम से ही देना होगा. कहीं न कहीं यह अनुभव मेरे लिए प्रेरणा श्रोत ही रहा.

तो कहने का तात्पर्य यह की हर कोई जो लेखकीय धरातल पर उतारे बिना, उसको समझे बिना कुछ भी कह दे वह आलोचना नहीं हो सकती. ऐसे लोगों से ही साहित्य में मलिनता आती है और नए साहित्यकार हतोत्साहित होते हैं. इसका मतलब यह नहीं कि हर किसी रचनाकार और उसकी रचनाओं की प्रशंसात्मक दृष्टिकोण से ही विवेचना की जानी चाहिए. कतई नहीं. गलत को गलत कहा ही जाना चाहिए पर यह सब करने से पहले आपको अपने पूर्वाग्रहों को छोड़कर आना होगा और ततष्ठ भाव से समग्र दृष्टि से  रचनाओं को कसौटी पर तौलना होगा तभी साहित्य को कुछ स्सर्थक देने कीसार्थक पहल हो सकती है.

अच्छे आलोचक और उनकी आलोचनाएँ निःसंदेह साहित्य को सही धारा और पक्ष में रखने की अनिवार्य परंपरा है. बिना आलोचकों के रचना स्वयं के साथ न्याय नहीं कर पाएगी. रचना को अपना अभीष्ट सिद्ध करने के लिए आलोचकों की कसौटी से गुज़रना ही होगा तभी रचनाकार उत्कृष्ट और स्सर्त्क रचने के लिए प्रेरित हो सकेगा. पर इन सबके साथ रचनाकारों का मनोबल भी बनाए रखना होगा. आलोचना का उद्देश्य रचना और रचनाकार को परिमार्जित करने के लिए दिशा देना है, संभावनाएं दिखाना है  ताकि अगली रचना  उन आकांक्षाओं को पूर्ण कर सके. हाँ गलत परिपाटी को हतोत्साहित किया जान अचहिये पर नया और स्सर्थ्क रचने की प्रेरणा भी आलोचना में निहित होनी चाहिए. मैं अपने बारे में बात करूँ तो  आलोचनाओं को मैं बहुत स्वाभाविक रूप में लेता हूँ. उन सभी आलोचनाओं को तौलता हूँ, मंथन करता हूँ और यथा संभव उन पर अमल भी करता हूँ. पर रचनाकार की भी अपनी सीमाएं हैं. आप हर किसी के भी विचारों और सुझावों को अपने पर नहीं थोप सकते अन्यथा फिर कोई अंतर कहाँ रहा आपकी और अन्य रचनाकारों की रचनाओं में.पर जहाँ तक कथ्य और शिल्प के तत्व की बात है मेरी अपनी रचनाओं में सुधार की गूंजाईश की बात है, रचनाओं के कहन को और स्पष्ट करने की बात है तो मैं इन सबको सहर्ष रूप से स्वीकारता भी हूँ और समाहित करने का प्रयास भी करता हूँ. यह तो निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है. आलोचनाएँ आपको सजग रखती हैं, सचेत रखती हैं, सधा हुआ रखती हैं. लेकिन इन सबके साथ-साथ रचनाकार को अपनी आलोचना को सुनने और स्वीकार करने का साहस होना चाहिए. आलोचना सुनना और करना दोनों पूर्वाग्रहों से परे होना चाहिए. दोनों का उद्देश्य साहित्य को दिशा देना होना चाहिए न कि हतोत्साहित करना.

डॉ.जयशंकर शुक्ल] 24: आप पहले ऐसे रचनाकार हैं जिनके साहित्य में पदार्पण के साथ ही दो पुस्तकें प्रकाशित हो गईं और अप्रकाशित पुस्तकों की संख्या ही आपके अनुसार तीन है.प्रकाशन क्रम की वरीयता आप कैसे निर्धारित करते हैं?

[अरविन्द] – जी! (एक उन्मुक्त हँसी के साथ) मुझे ऐसे लता है कि जैसे मेरे अंदर बहुत कुछ भरा हुआ है जो लिखते जाने के बाद भी कम नहीं हो रहा है. जितना लिखता जाता हूँ क्षुधा बढ़ती ही जाती है. वैसे भी हमारे आस पास बहुत कुछ बहुतायत में बिखरा पड़ा है कि मुझे बहुत परिश्रम की आवश्यकता नहीं पड़ती कंटेंट के लिए. और इसके साथ ही मन में सीखने की प्रबल इच्छा शक्ति भी है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मैं कुछ दिन में कुछ भी सीखकर कुछ भी लिख सकता हूँ. शायद लिख भी लूँ तो न्याय कर पाऊँगा यह नहीं कहा जा सकता. मैं अपनी सीमाएं जानता हूँ और उसमें ही अपने लेखन को समृद्ध करने का प्रयास करता रहूँगा. पुस्तकों का प्रकाशित होना एक संयोग है जिसमें मेरे कुछ शुभचिंतकों का बहुत बड़ा योगदान है. यह ईश्वरीय कृपा ही है कि मैं ऐसे लोगों के सानिध्य में हूँ और जिनकी कृपा मेरे ऊपर आशीर्वाद के रूप में बनी हुई है. मैंने पहले भी कहा कि मेरे शुभचिंतक मेरे लिए यह पहले ही तय कर देते हैं कि  अगला पड़ाव क्या होना चाहिए. प्रकाशन क्रम की वरीयता में इस बात का ध्यान रखता हूँ कि विषय की पुनरावृत्ति न होने पाए. विधा और विषय जहाँ तक हो सके अलग होने चाहिए अन्यथा लेखा में एकरूपता की सम्भावना बलवती हो जाती है. इसके अलग यह मेरे स्वयं के विचार बोध पर भी निर्भर करता है कि अंतर्मन क्या लिखने को उत्सुक है, विचार प्रवाह किस दिशा में इंगित कर रहे हैं. बस समय चक्र विचारों को जिस ओर मोड़ देता है तो उसके प्रकाशन की पृष्ठभूमि तैयार हो जाती है. यह सब बहुत पुनर्योजित होता है ऐसा मुझे नहीं लगता.

---डॉ जयशंकर शुक्ल

 

 

 

 


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