शनिवार, 19 फ़रवरी 2022

आलेख बौद्ध धर्म और मानव मूल्य -डॉ॰ जय शंकर शुक्ल

आलेख बौद्ध धर्म और मानव मूल्य -डॉ॰ जय शंकर शुक्ल टी.जी.टी. (हिन्दी) सर्वोदय बाल विद्यालय नंबर- 1, भोला नाथ नगर, शाहदरा, दिल्ली- 110032 सारांशिका - बौद्ध धर्म मानव मूल्यों से सदैव जुड़ा रहा है। और यही इसकी ताकत रही है। अपने अनुयाइयों और अपनों के साथ ही साथ यह धर्म बहुत ही एकनिष्ठ और अनुकरणीय रहा है जो इसकी प्रमुख ताकत है। इसी के साथ साथ इस धर्म की विशेषताएं इसको स्वयं में विश्वसनीय बनाती है और दूसरों के द्वारा ग्रहण करने योग्य भी बनाती हैं, जो मानव मूल्यों को केंद्रीय जन स्वीकार्यता के साथ आबद्ध करता है। यही इस धर्म की ताकत है। बौद्ध धर्म और मानव मूल्य के अंतर्गत हम देखते हैं तो यहां यह साबित होता है। कि यह धर्म और उनके अनुयायियों के साथ स्वयं को स्थापित करने के साथ-साथ निरंतर आगे बढ़ाने की ओर अग्रसर होता रहा है। इसकी मूल भावना देश की जनता से जुड़ी है। जन स्वीकार्यता इसे निरंतर आगे की ओर स्थापित करती रहती है। हमारी चेतना के साथ किसी धर्म का चुनाव हमें उसके साथ निरंतर आगे बढ़ने को प्रेरित करता है। साथ ही साथ धर्म की विशेषताओं को जनसामान्य के लिए उपयोगी बनाता है। यह शोध पत्र मानव मूल्यों के आधार पर बौद्ध धर्म की सहजता को सामने लाने का एक माध्यम माना जा सकता है। प्रमुख शब्द- समाज, चेतना ,स्वीकार्यता, अपनत्व ,महत्त्व ,परंपरा, निर्देशन, सहयोग, सहिष्णुता, अंतर्दृष्टि, विकास, सहयोग, विवेचना, व्याख्या एवं जीवन के सत्य। ----------------------------------------------------------- छठी शताब्दी ईसा पूर्व से भारत भूमि के बदलते हुए परिवेश और घटनाक्रम के आधार पर समाज में नई चेतना की अंगड़ाई ने हमें यह आभास दे दिया था की मानवीय मूल्य नए सिरे से परिभाषित होने के लिए स्वयं को प्रस्तुत कर रहे हैं। "कोई भी धर्म अपने उद्भव से ही कुछ मूल्यों को लेकर ही आगे बढ़ता है। जो उस धर्म की रीढ़ कहा जा सकता है। मूल्य वह जीवन के सत्य है। जिन की प्राप्ति के लिए मनुष्य सतत प्रयत्नशील रहता है।"1 जब हम धर्म की विवेचना और व्याख्या करते हैं तो हमें पता चलता है। कि धर्म का मूल मानव के अपने लक्ष्य प्राप्ति में उसकी सहायता करना होता है। मानव का लक्ष्य सदैव उसके लिए नई नई प्रक्रियाओं हेतु नए नए मार्गों का निर्धारण करता है। जब हम देखते हैं कि एक मनुष्य अपने लक्ष्य की प्राप्ति में संलग्न है। तो ऐसी स्थिति में उसके द्वारा किए जा रहे कार्य और निभाए जा रहे हैं व्यवहार और एक दूसरे के साथ उसके बर्ताव उसे एक नई पहचान देते हैं। एक नया आयाम देते हैं, जिससे इसके माध्यम से वह अपने आप को अपने समाज में एक निर्धारित स्थान पर पाता है। यह इस मामले में व्यक्ति के द्वारा किए जा रहे कार्य और अपनाए जा रहे व्यवहारों में इसलिए विशिष्ट है कि वह अपने जीवन में निरंतर आगे बढ़ने की ओर अग्रसर होता हुआ धर्म विशेष के व्यवहारों को उनके मूल्यों को पाने को प्रयत्नशील रहता है। उसके इस प्रयत्न में उसके कार्य, उसकी विचारधारा, उसके दायित्व तीनों एक रेखा में आगे बढ़ते हैं। यह उस व्यक्ति की अपनी जिजीविषा और अंतर्दृष्टि पर भी निर्भर करते हैं। मूलत: बौद्ध धर्म अपने समय में प्रचलित कुरीतियों अंधविश्वासों एवं रूढ़ियों को दरकिनार कर एक नया मार्ग दिखाने के रूप में हमारे सामने आया और इस समय विशेष में मानव द्वारा नित्य और नैमित्तिक कार्यों में किस तरह से आगे बढ़ते हुए अपने श्रेष्ठ को पाया जा सकता है, उसका निर्धारण किया। जब कोई धर्म आकार लेता है। उस धर्म के लिए उसका संस्कृति केंद्र होना जरूरी होता है। संस्कृति के क्रियाकलापों के लिए एक मानक स्थल होता है। यहां से ही उसके समस्त उपादान नियंत्रित, निर्धारित और निर्देशित होते हैं। यहीं पर मनुष्य देखता है कि उसके अपने मूल्य कहां तक उसकी लक्ष्य प्राप्ति में उसे हासिल करने में उसके धर्म द्वारा उसकी मदद की जा रही है। सकारात्मक रूप से आगे बढ़ने में सहायक होती है, तो वह कहता है कि उसके द्वारा अपनाए गए भाव के द्वारा माने गए धारणाओं में अग्रगामी बौद्ध धर्म क्रांतिकारी परिवर्तन में सकारात्मक सोच और इसमें केवल भारत में संपूर्ण विश्व में राज्य अपने विस्तार को आगे बढ़ाया है। वातावरण की सीमाओं को पार कर इस धर्म ने अपने विस्तार और प्रसार की एक नई पटकथा लिखी है, जिसमें इसकी अवधारणा अपनी मान्यताओं को स्थापित करता है। यह नए-नए आयामों को ढूंढता है तो उसके द्वारा अपने लिए बनाए गए उसके जीवन मूल्य, सामाजिक मूल्य, नैतिक मूल्य एवं आर्थिक मूल्य बहुत ही महत्वपूर्ण होते हैं, जो यह सुनिश्चित करते हैं कि आप कितना गंभीर है अपने आदर्शों को, सत्य को, पाने के लिए जो उसने स्वयं के लिए निर्धारित किया है। धर्म जो किसी को धारण करता है। अथवा धर्म जो धारण किया जाए इन दोनों के माध्यम से हमारे सामने आता है। हमारे अपने लक्ष्य जिन्हें हम साधना चाहते हैं उन की प्राप्ति बिना जीवन मूल्यों को निर्धारित किए हुए नहीं हो सकती। हमें यह ध्यान रखना होता है कि बिना मानव मूल्यों के हमारा जीवन दिशाहीन और उद्देश्य हीन हो जाता है। "उद्देश्य परक जीने के लिए हमें अपने मूल्य निर्धारित करने होते हैं और यह मूल्य हर समाज, समय और परंपराओं के सापेक्ष होता है।"2 जब हम यह देखते हैं हमारे द्वारा हासिल की जाने वाली स्थितियां हमारे लिए हमारे बीच में है अथवा नहीं। यहां तक पहुंचने के लिए हमारे सहयोग में कौन-कौन से मानक हमारा उत्साहवर्धन कर रहे हैं, प्रेरणा दे रहे हैं तथा हमारे साथ खड़े हैं। वास्तव में धर्म की बात जब हम करते हैं तो मानव के लिए का अाचार होता है, एक व्यवस्था होती है। जिस व्यवस्था से गुजर करके मनुष्य अपने श्रेय और प्रेय को पाने की ओर तत्पर होता है। हर व्यक्ति अपने जीवन में कुछ निर्धारित क्रियाकलापों द्वारा अपने आसपास के परिवेश से एकरूपता बनाने की ओर प्रेरित होता है। उसका यह प्रयास उसके द्वारा अपनाए जा रहे कार्यों और उनके परिणामों पर निर्भर करता है। जब यह कार्य और परिणाम उसके लिए सकारात्मक होते हैं तो वह व्यक्ति निरंतर आगे की ओर बढ़ता जाता है। यदि उसके द्वारा अपनाए गए कार्य और व्यवहार सकारात्मक नहीं है। तो उसकी प्रगति अवरुद्ध जाती है। यह हर व्यक्ति के जीवन में तमाम तरह की मुश्किलों से बचने के लिए चाहिए कि व्यक्ति अपने द्वारा निर्धारित मुल्यों के प्रति सतर्क और सजग रहें और अपने श्रेष्ठ स्थान तक पहुँचे जिसके लिए योग्य है। यह व्यवहार का परिवर्तन है जो यह व्यक्ति को श्रेष्ठ नागरिक बनने में सहायता करता है। हमारे यहां एक व्यक्ति के कायाकल्प से जोड़ता है। यह अपने आप में मानव मूल्यों की ओर बढ़ाने का और व्यक्ति के व्यवहार में आमूलचूल परिवर्तन का हिमायती होता है। चाहे या भ्रमण या ध्यान या विपश्यना हो यह सारे क्रियाकलाप व्यक्ति के द्वारा उसके अपने लक्ष्य को पाने की ओर बढ़ने में मदद करने वाले कारकों के द्वारा ही व्यक्ति अपने आप को स्थापित कर एक मिसाल कायम करता है। बौद्ध धर्म हमारे समाज में मानव मूल्यों को नए रूप से परिभाषित करते हुए उनकी प्राप्ति में सहयोग हेतु व्यक्ति को इकाई समझकर उसके सर्वांगीण विकास को केंद्रित रख कर हमारे सामने आता है। मानवीय चेतना में उसके प्रयासों की प्रगति किस रूप में हो रही है। इसको जानने के लिए हमें धर्म और धर्म के विविध आयामों को अंगीकार करना आवश्यक होता है। "मानवीय मूल्यों को सामने रखकर हम धर्म को उसके अलग-अलग अंगों और उपांगो के रूप में हम स्वीकार करते हैं। स्वीकृति हमें अपने जीवन में नए-नए संभावनाओं के द्वार खोलती हुई दिखाई पड़ती है।"3 जब हम देखते हैं कि हमारे द्वारा वांछित उद्देश्य की प्राप्ति में कठिनाइयां आ रही है और वह समाज सम्मत नहीं है, सकारात्मक नहीं है। तो ऐसी स्थिति में हमें अपने लिए नए आयाम सृजित करने होते हैं और नए सिरे से हम अपने लिए पारिभाषिक आचार और व्यवस्था की एक नींव रखते हैं जो आगे चलकर धर्म के रूप में हमारे सामने आता है। "बौद्ध धर्म एक कालखंड में अपनी उपादेयता को सिद्ध करता है। और यह बताता है। कि मनुष्य मात्र के मूल्य जो उसके गुण होते हैं, वो मानव को जीवन जीने की प्रेरणा देते हैं,सहयोग देते हैं।"4 उनको संबल प्रदान करने के लिए इसी धर्म की जरूरत है।बौद्ध धर्म समाज में व्याप्त कुरीतियों, पाखंड, हिंसा, मूर्ति पूजा आदि के विरोध में उठा एक जन आंदोलन था जिसने उस समय बहुत सारे परिवर्तनों को अपनाने के लिए हमें प्रेरित किया। मानवीय चेतना हमेशा उर्ध्वगामी होती है। अपने मार्ग में आने वाली बाधाओं से अलग होकर के प्रगति करने हेतु नए-नए उपागम का पालन करना मानव की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। और ऐसे में मनुष्य जीवन के उन शक्तियों से दो-चार होता है। जो उसे उसके श्रेष्ठ आयाम तक पहुंचाने में या तो रुकावट बनते हैं या सहयोग करते हैं। "आज भारत की पहचान जहां अनेक आधारों को लेकर है। वहीं पर बौद्ध धर्म भी भारत की पहचान का एक प्रमुख क्षेत्र माना जा सकता है। दुनिया के डेढ़ सौ से ज्यादा देशों में बौद्ध धर्म किसी न किसी रूप में वहां के निवासियों द्वारा अपनाया गया है। और यह अपनी उत्पत्ति के लिए भारत भूमि को उत्तरदाई मानता है।"5 धर्मसदैव सामान्य के सापेक्ष होता है। बिना सापेक्षता के कोई भी मानव मूल्य स्वीकृति नहीं प्राप्त कर सकता। यह बात अलग है कि बदलते परिवेश में धर्म अपनी प्रासंगिकता को कितना कायम रख पाया है, यह शोध का विषय है। परंतु मानव मात्र के उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक सिद्ध होना बहुत सारे नए नए विकास की राहों को उनके साथ जोड़ देना इस धर्म की विशेषता कहीं जा सकती है। सिद्धार्थ गौतम बुद्ध जिन्होंने इस धर्म की आधारशिला रखी उन्होंने चार आर्य सत्य को ले कर अपनी बात कही जिनमें दुख से लेकर के दुख के कारण उस कारण का निवारण और सुख की प्राप्ति प्रमुख माने जा सकते हैं मानव अपने पूरे जीवन में इन्हीं के आसपास घूमता रह जाता है। विद्वानों ने इस विषय में बहुत कुछ कहा है, रचा है। और उनके इस कथन और रचना में जो बात निकल कर सामने आती है। वह इस सत्य को ही स्थापित करती है। कि मानव के उदारता, क्षमा, दया, करुणा, ममता जैसे गुणों से उसकी अपनी पहचान है और उसकी पहचान को सदा सर्वदा बनाए रखना कायम रखना धर्म विशेष की जिम्मेदारी होती है। इस जिम्मेदारी को बौद्ध धर्म बखूबी निभाने के प्रयास में लगा रहा। बौद्ध धर्म मूलत: सुधार का धर्म है। जिसने जीवन में सुधार की ओर केंद्रित भाव भूमि को शब्द दिया है। न केवल शब्द दिया है बल्कि इस धर्म ने मनुष्य के अपने कार्य व्यवहार के साथ-साथ उसके द्वारा अपनाए जाने वाले रीत-रिवाज, रहन-सहन, खान-पान जैसी मूलभूत उसकी कार्यपद्धति में भी बहुत सारे नए भावों को जोड़ा है। इस जुड़ाव के द्वारा व्यक्ति ने अपने आप में परिवर्तन महसूस किया है। यह परिवर्तन व्यक्ति के द्वारा उसकी नई परिभाषा गढ़ने में मदद की है। बौद्ध धर्म एक धर्म नहीं है बल्कि एक आंदोलन है। जिस आंदोलन ने मनुष्य मात्र के विकास को केंद्रित कई पहलुओं को उजागर किया है। यह सत्य और ईश्वर से जोड़ते हुए अपने सिद्धांत और अपने दर्शन को एक नया रूप देकर जीवन शक्तियों का नए भावपूर्ण पलों में नई परिभाषाओं के साथ निरूपण किया है। इसका यह निरूपण व्यक्ति को उसके जीवन पर्यंत निभाए जाने वाले व्यवहारों को नियंत्रित निर्देशित और व्याख्यासित करने का एक मंच प्रस्तुत किया है। बौद्ध भिक्षुओं और भिक्षुणियों के लिए एक उच्चतम मानदंड वाले आचार व्यवहार की परिकल्पना बौद्ध धर्म का मूल है, जिसके द्वारा उन्होंने जनमानस में उनके लिए अपनाए जाने वाले आचार और व्यवहारों की परिष्कृत रूपरेखा प्रस्तुत की। जिसके माध्यम से मानव द्वारा अर्जित सत्य और ज्ञान उसके अपने जीवन में उसका संबल बने यह ध्यान रखा गया। सिद्धार्थ गौतम बुद्ध ने अपने समय की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए जनसामान्य से उसे जोड़ कर उनके लिए उस समय की प्रचलित भाषाओं में उपदेश करते हुए उन्हें अपने मार्ग पर सतत बढ़ते रहने का एक रास्ता दिया। जिस पर चलकर हर व्यक्ति अपने जीवन और अनुभव को समृद्ध करता हुआ नए नए प्रतिमानों की ओर अग्रसर होता है। हम जानते हैं कि भारत में सबसे प्राचीन गणतंत्र पाया जाता है। शाक्य वंश जहां गौतम बुद्ध का जन्म हुआ वह एक गणराज्य था उसके पड़ोस में लिच्छवी भी गणराज्य था। इन राज्यों में लोगों द्वारा एक दूसरे की स्वतंत्रता अभिव्यक्ति और अस्तित्व के भावों को पूरा समर्थन और समर्पण देते हुए स्वीकार किया गया। बौद्ध धर्म भी कुछ इसी तरह की परिपाटी से अपने आप को आँक पाता है, जिसमें कि व्यक्ति विशेष को प्रमुख स्थान दिया जाता है। किसी भी तरह का किसी पर रुकावट ना हो किसी पर अपना विचार, मत न थोफा जाए, वैचारिक समृद्धि और समरसता की विरासत बौद्ध धर्म में देखी जा सकती है। मानव मूल्य के धरातल पर यह चीजें परम आवश्यक है; जो व्यक्ति के अपने व्यक्तित्व में निखार लाने हेतु और नए-नए आयामों को जोड़ने हेतु भी आवश्यक है। बौद्ध धर्म इनका समर्थन करता है, न केवल समर्थन करता है बल्कि अपने अनुयाइयों के लिए इसको लागू करने का भी हिमायती रहा है। उसी को लेख में इस बात को बड़ी संजीदगी से समझा गया है। कि समय सापेक्ष मानव मूल्यों की प्राप्ति व्यवहारों की आस्था आवश्यकताओं का चित्रण समय-समय पर किया गया है। उनकी प्राप्ति के लिए व्यक्ति को यह निश्चित करना होता है। कि वह किस तरह से अपने जीवन को संचालित करें और जीवन रूपी नौका में जरूरत पड़ने वाले उपादानों को किस तरह संचित संग्रहित करें, जिससे कि आगे चलकर के वह अपने श्रेय और प्रेय को प्राप्त कर जनमानस के बीच में सामाजिक परिवेश में स्वयं को एक उदाहरण के रूप में प्रस्तुत कर सके। इसके लिए एक सहज रूपरेखा देता है। गौतम बुद्ध की शिक्षाएं इसमें हमारी मदद करती हैं। उस समय के भौगोलिक परिवेश में पाली, प्राकृत और स्थानीय भाषाएं बोली जाती थी। बौद्ध धर्म ने इन्हीं भाषाओं को ही अपने उपदेश का माध्यम बनाया जिससे कि जनमानस तक यह चीजें बड़े आराम से पहुंचाई जा सके। और इसके द्वारा हर व्यक्ति अपने में परिष्करण कर सके यह परिष्करण उसे उसके श्रेष्ठ आचारों के साथ-साथ लोगों के मध्य लोकप्रियता और उसके अपने जीवन में पावनता और पारदर्शिता को बढ़ावा दें। यह संभवत बुद्ध का प्रमुख उद्देश्य रहा है। हम जानते हैं कि किसी भी क्षण हम बिना कर्म किए नहीं रह सकते। कुछ कर्म ऐच्छिक होते हैं और कुछ कर्म जो होते हैं वह प्रयास के साथ किए जाते हैं। हम यह जानते हैं की कोई भी धर्म जब शुरू होता है। तो उस समय के समाज की मांग उसके अपने स्थापनाओं में शामिल होती है। राज सत्ता किसी भी धर्म को आगे बढ़ाने के लिए सबसे बड़ी पोषक होती है। बौद्ध धर्म के लिए इसके उद्भव के साथ वहां की राजसत्ता ने पीढ़ी दर पीढ़ी इसको लगातार आगे बढ़ाने का काम किया। बाद के समय में यह कहा जाता है। इस धर्म की और शान में भी राजसत्ता का ही योगदान सबसे प्रमुख रूप से देखने में आता है। "यह धर्म अपने आप में मानव केंद्रित रहा है, मानव के आत्मिक विकास को समर्पित रहा है। मनुष्य के जीवन में उसकी प्राप्ति उसकी उपलब्धियां उसके आपसी सहयोग के भावना को निरंतर आवाज देते रहने का कार्य करने का जो उपक्रम रहा है। वह बौद्ध धर्म के द्वारा ही फलीभूत हुआ है।"6 इस धर्म के आधार पर भिक्षुक और भिक्षुणियों ने अपनी साधना के बल पर नए-नए आधार देते हुए नवीन परिवेश में इस धर्म को कई तरह की नई ऊंचाइयां प्रदान की है। उसमें इसकी उदारता, सहिष्णुता तथा अपनत्व का प्रमुख योगदान रहा। मानव मात्र के कार्य व्यवहार एवं उपलब्धियां उसके जीवन शक्तियों से जुड़ी होती है और उसके जीवन सत्य उसके मूल्यों पर आधारित होते हैं। हम बिना मूल्य अपना जीवन नहीं जी सकते। मानवीय मूल्य हमें कदम कदम पर आगे बढ़ने को प्रेरित करते रहते हैं सामान्य रूप से उसके मान्यता को अपनाने का है, जो बौद्ध धर्म से जुड़े हुए हैं और उनको धर्म की ताकत के रूप में माना जा सकता है। बौद्ध धर्म समाज सम्मत, व्यक्ति केंद्रित मूल्यों को मजबूती के साथ स्थापित करने की प्रक्रिया में लगा हुआ एक ऐसा माध्यम है। जो अपने से जुड़े लोगों को निरंतर आगे बढ़ने में, व्यक्तित्व के विकास करने में, लक्ष्य हासिल करने में उनकी सहायता करता है। यह सहायता व्यक्ति में मानवोचित गुणों का विकास करने के साथ-साथ उनमें उनके अवगुणों से उन्हें बचाने की एक प्रक्रिया का भी समर्थन करता है। मानव मूल्य समय सापेक्ष होते हैं। समय-समय पर इनका पुनर्निर्माण किया जाता है। जिसके द्वारा यह अपनी प्रासंगिकता को सिद्ध करते हैं। इनकी प्रासंगिकता लगे हुए मानवीय स्वाभाविक अवधान के ऊपर केंद्रित होती है, जो निरंतर विकास और प्रगति की ओर संकेत करती है। बौद्ध धर्म का यह संकेत हमारे सत्य को पाने में पूरी तरह से सहयोग करती है। मनुष्य अपनी जानकारियों में निरंतर वृद्धि करते हुए उसी के अनुसार अपने व्यवहार को परिष्कृत करके नए प्रतिमान के सृजन हेतु अग्रगामी होता है। हम मानते हैं कि मनुष्य अपने व्यवहार को लेकर के पूरी तरह से आत्म केंद्रित होते हुए भी सामाजिक एकरूपता के लिए समर्पित है। यह मानव मात्र के विकास की दृष्टि से एक बहुत बड़ा कारण है। "बौद्ध धर्म वास्तव में एक धर्म नहीं है। वरन यह जीवन पद्धति मानी जा सकती है, जिसमें जीवन जीने के तरीकों का अलग-अलग तरह से विवेचन किया गया है। यह धर्म एकांतवास के साथ-साथ मानव सेवा को प्रमुख मानता है। और मानव सेवा में इस धर्म ने अपने आप को जोड़ करके नई नई उपलब्धियों, नए नए विचारों में आयामों को सृजित करने की ओर निरंतर प्रयत्नशील रहना प्रमुखता से अंगीकार किया है।"7 मानव मात्र की जिजीविषा को लेकर उसके सामने आने वाले चुनौतियों को यह धर्म न केवल ढूंढता है। बल्कि उनके उत्तर देने की ओर भी कटिबद्ध रहता है। मानवता के विकास के लिए मानवीय चेतना से जुड़े रहना इस धर्म की सबसे बड़ी विशेषता रही है। आज यह धर्म संपूर्ण विश्व में विद्यमान है। ,इसके आगे बढ़ते हुए, बढ़ाते हुए इसकी विशेषताओं स्थापित कर रहे हैं। धर्म की अंतर्निहित भावनाओं को बड़े ही सहजता से हम मानव मूल्य के रूप में देख सकते हैं मानव मूल्य हमेशा समय सापेक्ष होते हैं, और समय के अनुसार उसको नए नए रूपों में परिभाषित किया जाता रहा है। दुनिया में आकार लेने वाले प्रत्येक धर्म के लिए मानव केंद्रित भाव और विचार होना अत्यंत आवश्यक है। जब यह मानव केंद्रित भाव और विचार लेकर के अपने उद्देश्य की प्राप्ति हेतु प्रयत्न किया जाता है। तो ऐसे में वह धर्म दीर्घ काल तक अपने अस्तित्व को बचाए रखने में सफल होता है। वास्तव में बौद्ध धर्म के साथ यह बात भारत के परिदृश्य के साथ-साथ वैश्विक परिदृश्य में बहुत अच्छी तरह से देखी जा सकती है। विश्व में बहुत सारे देशों ने बौद्ध धर्म को अपनाया। बौद्ध धर्म की शिक्षाओं को अपनाया और बौद्ध धर्म से अपने आप को अभिप्रेरित करने नए वितान रचे। यह मानव मूल्य हमारे यहां भाव और विचार को स्वीकृति देते हुए धर्म की शिक्षाओं को अंगीकार कर आगे बढ़ाते हैं। प्रत्येक धर्म की अपने कुछ चुनौतियां होती हैं जो समय समय पर उसके अनुयायियों के सामने आती रहती हैं। हर व्यक्ति अपने कुल परंपराओं के प्रति पूरी तरह से जिम्मेदार होता है। अपने परिवार के सदस्यों की इच्छाओं, उनकी जरूरतों को लेकर हर व्यक्ति संजीदा होता है। व्यक्ति का संजीदा होना कहीं ना कहीं उसके अपने मान्यताओं से, उसके अपने मूल्यों से जुड़ते हैं। जब व्यक्ति अपने मूल्यों में अपने संजीदापन को आधार देने की शक्ति नहीं पाता तो वह कहीं न कहीं विचलन को प्राप्त होता है। उसका यह विचलन उसके लिए पूरी तरह से उपयोगी और उस समय के सत्ता को सार्थकता प्रदान करने वाले आचार और निर्देशों की ओर उसे मोड़ता है। बौद्ध धर्म सामान्यत: उस समय उस समय के निवासियों के लिए एक बेहतरीन आधार प्रस्तुत करने के साथ-साथ उनके जीवन में एक नवीन सुबह की आधारशिला भी रखता है। हम देखते हैं कि व्यक्ति के जीवन में नवीन सुबह की आधारशिला रखने के लिए कुछ नए आचार, कुछ नई भावनाएं, कुछ नए विचार, कुछ नए प्रतिकार जो कि आवश्यक है, रचे जाते हैं। हमें एक नए पन का आभास हमारे जीवन में नवीनता की और हमें बढ़ने को प्रेरित करता है। यह प्रेरणा हमें हमारे समाज के साथ-साथ हमारे परिवारी जन और हमारे अपने स्वयं के व्यक्तित्व के विकास में परम सहयोगी सिद्ध होता है। जब हम इस ओर बढ़ते हैं तो हमें कई रुकावटें कई कठिनाइयां कई तकलीफें भी आती है। उन्हें दूर करते हुए सद्‌गुणों का आश्रय लेकर के क्रिया परक स्थितियों में जाते हुए अपने विशेष कार्य को लेकर समाज, समूह, विचारों, भावों और अनुभव के माध्यम से स्वयं में परिवर्तन और लक्ष्य प्राप्ति के प्रति समर्पण का भाव जागृत कर के हम अपने पंथ, अपने धर्म की श्रेष्ठता का बोध कराते हैं। समकालीन दुनिया में यह अपने आप में बहुत ही महत्वपूर्ण तथ्य है। कि एक व्यक्ति जो अपने जीवन में जीवन शक्तियों को लेकर के आगे बढ़ता है। उसके लिए लक्ष्य प्राप्ति और समाज सम्मत कार्य दोनों की मर्यादाओं का पालन करना अत्यंत आवश्यक होता है। जब व्यक्ति इस में समर्थ होता है और उसकी साम्थर्य उसे नए आयाम प्रदान करती हैं, तो ऐसे में अन्य लोगों के लिए भी यह एक मिसाल के रूप में आता है। जो कि अनुयायियों की संख्या को बढ़ाने के साथ-साथ उसकी स्वीकार्यता को भी बढ़ाता है। आज देखते हैं कि भारत में उत्पन्न हुआ लेकिन भारत में इसके मानने वालों की उतनी संख्या नहीं है। जितनी विश्व में है। सामान्यतया 150 देशों में बौद्ध धर्म या तो उनका प्रमुख धर्म है या वहां के किस समाज में प्रमुखता से व्याप्त है। हम पूर्व के देशों में देखें या पश्चिम के देशों में देखें पूरे विश्व को एक सूत्र में बांधने का अगर कोई एक माध्यम हमें दिख रहा है तो बौद्ध धर्म है। यदि भारत सरकार इस मुद्दे को लेकर के एकजुटता प्रदर्शित करते हुए स्वयं को नेतृत्व के रूप में आगे बढ़ाते हैं तो निश्चित तौर पर उसको हर तरह से समर्थन मिलेगा क्योंकि जापान से लेकर चाइना तक, कोरिया से लेकर इण्डोनेशिया तक जहां भी हम देखते हैं जावा, सुमात्रा, थाईलैंड, सिंगापुर यहां की बहुसंख्यक जनता बौद्ध धर्म को मानती है। यह इस धर्म की स्वीकार्यता को प्रदर्शित करता है। जो इसके आदि काल से ही इसके साथ क्रमिक रूप से जुड़ा हुआ है। यह जुड़ाव इस धर्म को न केवल विशिष्ट बनाता है। अपितु अपनी जन स्वीकार्यता को भी सबके समक्ष लाता है। इस आलेख में मानव मूल्य के समकक्ष बौद्ध धर्म के विभिन्न अंगों उपांगो की व्याख्या, विवेचन, विवरण यह सिद्ध करता है। कि बौद्ध धर्म अपने आचार में, अपने व्यवहार में, अपने बर्ताव में तथा अपनी शिक्षाओं के साथ-साथ अपने ग्रंथों में कहीं न कहीं सर्व प्रचलित माननीय मूल्यों को लेकर चलने का प्रयत्न करता है। वास्तव में मानव मूल्यों का पालन ही उस धर्म को, उसके आचार को, उसके व्यवहार को, उसकी प्रक्रिया को, सर्व सुलभ और सर्व स्वीकार्य बनाता है। बौद्ध धर्म में इसके प्रवर्तकों ने, इसके आचार्यों ने इस बात का पूरा ध्यान रखा जिसके माध्यम से उस समय प्रचलित धर्मों की शिक्षाओं और इस धर्म की शिक्षाओं में किसी तरह का कोई विवाद ना हो; किसी तरह का कोई टकराव न हो इसका पूरा ध्यान रखा गया। और इस प्रकार यह धर्म अपने समकालीन अन्य धर्मों के साथ-साथ यथा हिंदू धर्म, जैन धर्म, पुष्पित और पल्लवित होता रहा और इसके उत्पन्न और पल्लवन में इसके अनुयायियों के विकास की कहानी सर्वविदित है। मानव मात्र के जीवन को प्रकाश में बनाने के लिए बौद्ध धर्म एक बहुत बड़ी पूंजी है। जिस को आधार बनाकर के मनुष्य अपने जीवन को निरंतर आगे बढ़ा सकता है। अपनी बुराइयों को दूर कर सकता है। गुणों का प्रस्फुटन उसे अपने साथ के अन्य लोगों में श्रेष्ठ बनाता है। वह समाज के मुख्यधारा को अपनाकर के लोगों को अपने विकास और अपने परिवार के विकास के साथ-साथ राष्ट्र के विकास की ओर आगे बढ़ने को प्रेरित कर सकता है। उसके कार्य, उसके व्यवहार, उसके विचार एवं उनके विचारों की उपयोगिता और उन्हें लागू करने की सामर्थ्य पर निर्भर करता है। इस आलेख में पूरी तरह से सुनिश्चित है कि धर्म अपने समय के अनुसार स्वयं की परिभाषा को न केवल परिवर्तित करता रहा है। उसमें आचारों को समाहित कर स्वीकृतियों के लिए स्वयं को प्रस्तुत किया है। संदर्भ ग्रंथ 1-भारत में बौद्ध धर्म का इतिहास, लेखक तारा नाथ लामा,पटना, 1978 पृष्ठ 205। 2-बौद्ध संस्कृति, राहुल सांकृत्यायन, कोलकाता, 1952, पृष्ठ- 7/ 15। 3-बुद्ध कालीन समाज एवं धर्म, डॉक्टर मदन मोहन सिंह, पटना, 1974, पृष्ठ 2/ 107। 4-बुद्धचर्या, राहुल सांकृत्यायन, पृष्ठ 3 /28। 5-विनय पिटक, राहुल सांकृत्यायन, पृष्ठ 4/144। 6-भारतीय संस्कृति व उसका इतिहास, सत्यकेतु विद्यालंकार, पृष्ठ 6/31 7-बौद्ध संस्कृति का इतिहास, भाग चंद्र जैन, पृष्ठ 221।

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