संवादों की भाषा बदली ,
लोग नही बदले .
जीवन की परिभाषा बदली,
लोग नही बदले ...
संदेशों ने संकेतों की
भाषा नई गढ़ी
जैसे अनुबंधोंने स्वरमें
कविता नईपढ़ी
मौलिकता है मौन,
गीत के मिलते नहीं तले....
दूरभाषने बदलीहै अब
जीवनकी भाषा
इससे आभासित होतीहै
नितनूतन आशा
दरवाजों मेऐंठ आ रही
बोल रहे जँगले...
संदर्भोंमे मौन होरही
अबतो पावनता
ज्यों हताश कातर होजाती
अनगढ मानवता
सीधे सच्चे लोग,कहे जाते
हैं अब पगले ....
संबन्धों की भाषा प्रतिपल
रूप धरे नूतन
इससे भावोंमें आतेहैं
नित नव परिवर्तन
छिपे भीड़ मे हंस,शीर्ष पर
स्वांग करें बगुले.....
© डॉ जयशंकर शुक्ल
विसंगतियां उजागर
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