बुधवार, 2 मई 2018

लौट आए


लौट आए हैं कथा-अवशेष ,
शून्य की अँगड़ाइयाँ लेकर...
   यों घिरे हैं मेघ पावस के ,
   ज्यों चिकुर का जाल मतवाला.
   चूमतीं नभ को उठाकर शीश ,
   इन्द्रधनुषी रूप की बाला  .
अनबुझी-सी प्यास सावन की ,
कह रही कुछ सिसकियाँ लेकर ..
   भोर की पुरवाइयों के संग ,
   जागरण देता रहा दस्तक .
   मोह की परछाइयों मे बँध,
   आवरण बनता रहा मस्तक .
भाल पर अंकित इबारत भी ,
कह रही कुछ सलवटों में भर ...
   टोलियाँ बनती सितारों की ,
   भावना के नव धरातल पर. .
   फैलकर बढ़ते अँधेरे मे ,
   खो गए हैं रास्ते चलकर.
विकल मन मे प्रीति के साये ,
घूमते परछाइयाँ लैकर ....
   झील की गहराइयाँ चुप हैं ,
   आ रहा मौसम बहारों का .
   राह की पगडंडियाँ गुम हो ,
   सुन रही किस्सा नजारों का .
पायलों को चूम शहनाई ,
बज रही जैसे किसी के घर ....
     © डॉ जयशंकर शुक्ल 

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