लौट आए हैं कथा-अवशेष ,
शून्य की अँगड़ाइयाँ लेकर...
यों घिरे हैं मेघ पावस के ,
ज्यों चिकुर का जाल मतवाला.
चूमतीं नभ को उठाकर शीश ,
इन्द्रधनुषी रूप की बाला .
अनबुझी-सी प्यास सावन की ,
कह रही कुछ सिसकियाँ लेकर ..
भोर की पुरवाइयों के संग ,
जागरण देता रहा दस्तक .
मोह की परछाइयों मे बँध,
आवरण बनता रहा मस्तक .
भाल पर अंकित इबारत भी ,
कह रही कुछ सलवटों में भर ...
टोलियाँ बनती सितारों की ,
भावना के नव धरातल पर. .
फैलकर बढ़ते अँधेरे मे ,
खो गए हैं रास्ते चलकर.
विकल मन मे प्रीति के साये ,
घूमते परछाइयाँ लैकर ....
झील की गहराइयाँ चुप हैं ,
आ रहा मौसम बहारों का .
राह की पगडंडियाँ गुम हो ,
सुन रही किस्सा नजारों का .
पायलों को चूम शहनाई ,
बज रही जैसे किसी के घर ....
© डॉ जयशंकर शुक्ल
सुंदर रचना
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