सोमवार, 1 अक्टूबर 2018

सिंदूरी सपने

२-दोहे 
 अपने अपने घोसले , 
विहग गए नभ फाँद . 
सिंदूरी सपने लिए , 
मिला रात से चाँद .|१| 

चंदा की मनुहार पर , 
रजनी हुई निसार . 
उधर विरह मे लुट गया, 
चकवी का संसार .|२| 

 चंदा ऐसा लग रहा , 
ज्यों मुख ज्योति अपार . 
तारों के गहने पहन , 
रात करे अभिसार .|३| 

 खुले गगन की राह मे , 
बाज खड़ा मुस्तैद , 
त्रस्त पखेरू माँगता , 
फिर पिंजरे की कैद .|४| 

 © डॉ जयशंकर शुक्ल

धारावाहिक

५-दोहे
धारावाहिक ने लिखा ,
ऐसा एक पुरान .
जो नातों से खेलती ,
ऐसी नारि महान .|१|

दुख ने उम्र बढ़ा दिए ,
पिचके पिचके गाल .
धँसी हुईं आँखें कहें ,
माताफल के हाल .|२|

पल बीते अपनत्व के ,
बेगाने दिन- रात ,
टीवी के चैनल सगे ,
सगे नही अब तात .|३|

बातचीत के दिन गए ,
अब कटुता का राज .
लहूलुहान समाज को ,
ताके बरबस बाज़ .|४|
© डॉ जयशंकर शुक्ल

बुधवार, 2 मई 2018

लौट आए


लौट आए हैं कथा-अवशेष ,
शून्य की अँगड़ाइयाँ लेकर...
   यों घिरे हैं मेघ पावस के ,
   ज्यों चिकुर का जाल मतवाला.
   चूमतीं नभ को उठाकर शीश ,
   इन्द्रधनुषी रूप की बाला  .
अनबुझी-सी प्यास सावन की ,
कह रही कुछ सिसकियाँ लेकर ..
   भोर की पुरवाइयों के संग ,
   जागरण देता रहा दस्तक .
   मोह की परछाइयों मे बँध,
   आवरण बनता रहा मस्तक .
भाल पर अंकित इबारत भी ,
कह रही कुछ सलवटों में भर ...
   टोलियाँ बनती सितारों की ,
   भावना के नव धरातल पर. .
   फैलकर बढ़ते अँधेरे मे ,
   खो गए हैं रास्ते चलकर.
विकल मन मे प्रीति के साये ,
घूमते परछाइयाँ लैकर ....
   झील की गहराइयाँ चुप हैं ,
   आ रहा मौसम बहारों का .
   राह की पगडंडियाँ गुम हो ,
   सुन रही किस्सा नजारों का .
पायलों को चूम शहनाई ,
बज रही जैसे किसी के घर ....
     © डॉ जयशंकर शुक्ल 

दोहे


अपने अपने घोसले ,
विहग गए नभ फाँद .
सिंदूरी सपने लिए ,
मिला रात से चाँद .|१|

चंदा की मनुहार पर ,
रजनी हुई निसार .
उधर विरह मे लुट गया,
चकवी का संसार .|२|

चंदा ऐसा लग रहा ,
ज्यों मुख ज्योति अपार .
तारों के गहने पहन ,
रात करे अभिसार .|३|

खुले गगन की राह मे ,
बाज खड़ा मुस्तैद ,
त्रस्त पखेरू माँगता ,
फिर पिंजरे की कैद .|४|

   © डॉ जयशंकर शुक्ल

संवाद


   संवादों की भाषा बदली ,
   लोग नही बदले .
   जीवन की परिभाषा बदली,
   लोग नही बदले ...

संदेशों ने संकेतों की
भाषा नई गढ़ी
जैसे अनुबंधोंने स्वरमें
कविता नईपढ़ी

मौलिकता है मौन,
गीत के मिलते नहीं तले....

दूरभाषने बदलीहै अब
जीवनकी भाषा
इससे आभासित होतीहै
नितनूतन आशा

दरवाजों मेऐंठ आ रही
 बोल रहे जँगले...

संदर्भोंमे मौन होरही
अबतो पावनता
ज्यों हताश कातर होजाती
अनगढ मानवता

सीधे सच्चे लोग,कहे जाते
हैं अब पगले ....

संबन्धों की भाषा प्रतिपल
रूप धरे नूतन
इससे भावोंमें आतेहैं
नित नव परिवर्तन

 छिपे भीड़ मे हंस,शीर्ष पर
 स्वांग करें बगुले.....

       © डॉ जयशंकर शुक्ल

शुक्रवार, 27 अप्रैल 2018

नेह का उजास


अपनों के संगम  में ,
नेह का उजास  है .
मन  में उद्गारों  का ,
दहका पलास  है .
   साँसों  के सरगम  पर ,
   भौरों  का ज्वार है .
   यौवन  के आँगन  में ,
   खिलती कचनार है .
तन  में उफनती सी ,
नदी का हुलास  है . 
   धरती के बिछौने पर ,
   सोया मृगछौना है .
   उमगे सुंदरवन  में ,
   सुरभित  हर कोना है .
सुध-बुध  के खोने में ,
मकरन्दी आस  है .
   धरती पर बिछी हुई ,
   बहकी चंदनिया है .
   तारों की छेड़छाड़ ,
   करती रंगरलियाँ हैं  .
चंपा के फूल  खिले ,
भौंरा उदास  है।
   आँखों की शोभा ज्यों ,
   कटी हुई अमिया है .
   नाक  नक्स सुतवा सी ,
   कहती पैजनिया है .
लाज  के  लिफ़ाफ़े में ,
तन-मन  की प्यास  है।

टूट गई

टूट गई जो एक बार तो ,
नींद नहीं आई दोबारा .
   जेहन में किस्तें बैठी हैं ,
   घर की, मन की औ' जीवन की .
   ब्याज बड़ा, पूँजी छोटी है ,
   जीवन रूपी मुक्त गगन की .
नया माह आते ही आती ,
कुदरत की काई दोबारा .
    झंझावाती शाम बताती ,
    दिन के अनुमानों की बातें .
    कामगार की प्रत्याशा को ,
    छेंड़ रही तानों की बातें .
नए सवेरे की आशा में ,
हसरत-सी छाई दोबारा .
     जिद कर करक बच्चा हारा,
     नई साइकिल नज़र न आई .
     आम आदमी के जीवन में ,
     मँहगाई ने सेंध लगाई .
कीमत चीजों की सुन सुनकर,
सुरसा याद आई दोबारा .

गुरुवार, 26 अप्रैल 2018

स्वार्थी युग हो गया है

स्वार्थी युग हो गया है
मर रही संवेदना
अब हलाकू घूमते हैं
मौत की टोली बना

हर तरफ संत्रास का
फैला हुआ है कोहरा
फूल लगते कागजी सब
सब्जियों पर रंग हरा
सच अनावृत्त हो रहा है
झूठ की गोली बना

झुग्गियों में फैलती
आँचल पसारे क्रंदना
मायवी दुनिया हुई
सब लुप्त होती भावना
सत्य भी मिलता बिचारा
फूस की खोली बना
 
अस्पतालों में चिकित्सक
कर रहे व्यापार हैं
कैश-लेश की ओट में
करते विविध व्यभिचार हैं
पीड़ितों से लूटते ये
द्रव्य को झोली बना

राजपथ अब हो गये हैं
मौत की सूनी डगर
जनपथों पर घूमती है
काल की पैनी नज़र
दौड़ चूहों की निकलती
खून की होली मना ।

मौन से संवाद

अब गुलाबों के गए दिन
नागफनियाँ राज करती.
कंटकों का आवरण ले,
मौन से संवाद करती .

आँधियाँ हैं नफरतों की
प्रेम का सद्भाव कम है,
खो गया सुख का सवेरा
हर तरफ दुर्भाव तम है.

भूलकर आलोक के दिन
कालिमा फरियाद करती .|१|

टूटते सम्बन्ध प्रतिपल
मिट रही है मधुरिमा भी,
स्वार्थ का ही है सवेरा
खो रही है अरुणिमा भी .

गाँव के जर्जर मकानों-
की दशा प्रतिवाद करती.|२|

बृद्ध बरगद ने सुनाई
पीर अपनी कोयलों को,
पूछता हमको न कोई,
मान देते कीकरों को .

घोसलों से पंछियों की,
याचना संवाद करती .|३|

काग चुनते मोतियों को
हंस बेचारे मलिन हैं,
स्वेत परिधानी बतख हैं
उल्लुओं के रात-दिन है.

प्रीति की सम्भावना में,
मीन जल से वाद करती.|४|

© डॉ जयशंकर शुक्ल