शनिवार, 19 फ़रवरी 2022
आलेख सिध्दार्थ जन्मकुल के अनुसार -डॉ॰ जय शंकर शुक्ल
आलेख सिध्दार्थ जन्मकुल के अनुसार
-डॉ॰ जय शंकर शुक्ल
भवन संख्या-49
पथ संख्या-06
बैंक कॉलोनी, मंडोली
दिल्ली -110093
शोध सारांशिका - गौतम बुद्ध अपने समय के कालखंड में पूर्व प्रचलित धर्म और उसकी विशेषताओं को लेकर पूरी तरह जागरूक रहें। उन्होंने वर्ण व्यवस्था से छेड़छाड़ न करते हुए इसे कर्म से ही जोड़ कर सामने रखना चाहा। कुल परंपरा खानदान से अलग कर्म से जोड़ करके इसको उस समाज के समक्ष रखते हुए उन्होंने अपेक्षा की कि हर व्यक्ति अपने अच्छे कार्यों में लगे, सकारात्मक कार्यों में लगे। जिससे कि वह ब्राह्मण और अब्राह्मण के भेद को साफ देख सके और दुनिया को दिखा सके। यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है कि गौतम बुद्ध ने बुद्धत्व प्राप्ति के बाद क्षत्रिय कुल में जन्म लेने के बाद भी स्वयं को ब्राह्मण ही कहवाना पसंद करते थे। मानव मात्र का अधिकार कर्म करने में है। कोई भी व्यक्ति बिना कर्म किए एक भी क्षण नहीं रह सकता। कर्म करना उसके जीवन का ध्येय है । कर्म के द्वारा ही कर्म फल की प्राप्ति होती है। कर्म फल की प्राप्ति के द्वारा ही हम श्रेय और प्रेय को अपने जीवन में ला सकते हैं। गौतम बुद्ध ने इसका प्रबल समर्थन किया। वास्तव में गौतम बुद्ध का उद्देश्य कर्मों में शुचिता और पवित्रता का था न कि दिखावे का। कुल, परंपरा, खानदान यह चीजें उनके लिए महत्त्व नहीं रखती थी। वह व्यक्ति के आचरण को प्रमुख मानते थे। बुद्धचर्या और बुध के द्वारा प्रचलित धर्म का यह मूल रहा है।
मुख्य शब्द- ध्वनित, शाक्यवंशीय, जीवनचर्या, कर्मआधारित, बुद्धत्व, संवाद, परंपरा, अस्तित्वमान, दुखानुभूति, पारलौकिक, भौतिक, प्रादुर्भाव, मान्यताएं, अनुभूति।
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किसी भी व्यक्ति के जन्म लेने में उसके लिए कुल, गोत्र, खानदान एवं परिवार महत्त्वपूर्ण उपादान होते हैं जिनके माध्यम से पूरे जीवन उस व्यक्ति की पहचान समाज में कायम रहती है। जब हम शाक्य कुमार सिद्धार्थ गौतम बुध की बात करते हैं तो हमारे सामने यह ध्वनित होता है की उनका जन्म शाक्य वंशीय क्षत्रिय कुल में हुआ था, जिसके माध्यम से उन्होंने अपने जीवन चर्या को पूर्वार्ध भाग में व्यतीत किया। गौतम बुद्ध बुद्धत्व प्राप्ति के पूर्व उस समय के लोकतंत्र व्यवस्था के आधारभूमि शाक्य वंश में जन्म लिया और अपने कार्य का संपादन कुल परंपरा के अनुसार निर्धारित मानकों के आधार पर करने का प्रयत्न किया।
वास्तव में गौतम बुद्ध बुद्धत्व प्राप्ति के पूर्व और बुद्धत्व प्राप्ति के बाद दो अलग-अलग तरह के जीवन को प्रदर्शित करते हैं। “पूर्व का जीवन एक युवराज का जीवन रहा है जिसे सुख सुविधा की सारी वस्तुएं उपलब्ध है, जिसे जीवन में अभाव का कहीं सामना नहीं करना पड़ा और नित्य निरंतर वह सारी सुख सुविधाओं से युक्त रहे, जिनके लिए वह योग्य थे। उनकी शिक्षा-दीक्षा राजकुमारों की भाँति की गई। जिसके माध्यम से उन्होंने व्यवहारिक ज्ञान के साथ-साथ सैद्धांतिक और दार्शनिक ज्ञान को भी प्राप्त किया। जिसमें लौकिक और पारलौकिक जीवन के महत्त्वपूर्ण का उपागमों की विधिवत जानकारी साझा की जाती है ।”1
संवाद की स्वस्थ परंपरा में सिद्धार्थ गौतम बुद्ध द्वारा स्वयं को प्रस्तुत कर उसके मर्म को जानने की प्रक्रिया उन्हें अपने समकालीन राजकुमारों से अलग सिद्ध करती है। “गौतम बुद्ध हमेशा इस दुनिया में अस्तित्व मान दुख, दुख के कारण, दुख के निवारण एवं दुखानुभूति के परिणाम स्वरूप प्राप्त कष्ट और पीड़ा को लेकर बेहद चिंतित रहा करते थे। बुढ़ापा, बीमारी, मृत्यु और सन्यासी का जीवन उनके जीवन के यह चार ऐसी घटनाएं थी जिन्होंने चार आर्य सत्य के रूप में अपनी परिकल्पना सिद्धार्थ के समक्ष प्रस्तुत किया।”2
यहीं से उनके जीवन के उद्देश्य, जीवन जीने के तौर तरीके, एवं जीवन जीने की प्रक्रिया में आमूलचूल परिवर्तन शुरू हो गया। अब उन्हें अपने इस भौतिक जीवन और भौतिक दुनिया की अपेक्षा पारलौकिक जीवन और पारलौकिक दुनिया के प्रति स्वयं में एक विशेष आग्रह को विकसित होते देखा। यह विकास उनकी जीवनधारा को पूरी तरह से मोड देने वाली रही।
एक राजकुमार के मन में विरक्ति का भाव जागृत करने में यह धारणा काफी हद तक जिम्मेदार रही। “गौतम बुद्ध इन्हीं भावनाओं और विचारों को लेकर अपने समय में व्यथित, कष्टित, दुखित समाज को इन पीड़ाओं से मुक्त करने के क्रम में एक नवीन जीवन पद्धति से उन्हें अवगत कराने का प्रयत्न किया। जिसके फलस्वरूप जिस पंथ का प्रादुर्भाव हुआ उसे हम बौद्ध धर्म के रूप में जानते हैं।”3 क्योंकि यह धर्म अपने प्रवर्तक, प्रादुर्भावक के बुद्धत्व प्राप्ति से संबंधित है इसलिए इसकी पूरी प्रक्रिया ही बौद्ध धर्म के रूप में मानी जाती है।
बुद्ध ने यह देखा की जाति व्यवस्था कर्म आधारित ना होकर के कुल और जन्म आधारित हो गई है जिससे उन्हें काफी पीड़ा हुई। उनका मानना था कि ज्ञान अर्जित करने का अधिकार हर किसी को होना चाहिए। और इसके लिए वह अंतिम सांस तक लड़ते रहे। वह हमेशा इस बात को मानते थे कि श्रेष्ठता किसी एक परिवार, किसी एक कुल , किसी एक संप्रदाय, किसी एक समाज की थाती नहीं है।
समाज में व्याप्त रूढ़ियों अंधविश्वासों को लेकर वह बेहद सजग थे उनकी सजगता समाज में प्रचलित मान्यताओं को लेकर भी थी जिसमें बहुत सारी कुरीतियां शामिल हो गई थी जो उस समय के समाज के विनाश का कारण बन रही थी। गौतम बुद्ध ने इसका विरोध किया और स्पष्ट शब्दों में कहा कि व्यक्ति के कुल और जाति का निर्धारण उसके कर्मों के अनुसार होना चाहिए और इसके लिए वह बराबर संघर्षरत रहे।
“बुद्ध का उद्देश्य समाज में सकारात्मक शक्तियों के स्थापना का रहा, जिसके लिए उन्होंने आजीवन संघर्ष किया। वह जोर देकर कहते थे कि श्रेष्ठता का पैमाना कुल और जाति ना होकर कर्म होना चाहिए। जिसके लिए वह हमेशा विशेष बिंदुओं को लेकर समय अनुकूल अवसरों पर अपनी टिप्पणियां व्यक्त किया करते थे।”4 उनका मानना था कि हम क्या हैं? कैसे हैं? इसका निर्धारण हमारे कर्मों के माध्यम से हो ना कि जन्म के माध्यम से।
जन्म और कर्म के इस द्वंद्व को वह आजीवन झेलते रहे और इस तरह से उन्होंने वहां पर उहापोह और द्वंद्व दोनों के परिणाम स्वरूप एक नए मार्ग का प्रतिस्थापन किया। उनके द्वारा स्थापित किए गए धर्म में उन्होंने इस बात का पूरा ध्यान रखा कि समाज का कोई भी तबका उपेक्षित और तिरस्कृत ना हो। यह बात उस समय के समाज में बहुत महत्त्वपूर्ण थी।
गौतम बुद्ध के द्वारा अनुभव किए गए बातों को लेकर वह स्वयं बेहद संवेदनशील रहते थे, जिसके पालन के लिए गौतम बुद्ध ने अपने अनुयायियों को पूरी तरह से सजग कर रखा था। “बुद्ध खुद को ब्राह्मण कहवाना चाहते हैं-”
ब्राह्मणो चे त्वं ब्रूसि मं च ब्रूसि अब्राह्मणं।
तं सावित्तिं पुच्छामि तिपदं चतुवीसतक्खरं।।3।। - सुंदरिकभारद्वाज सुत्त 3,4
“तुम अपने को ब्राह्मण और मुझे अब्राह्मण कहते हो तो मैं तुमसे त्रिपद और चौबीस अक्षर वाले सावित्री मंत्र को पूछता हूं।” वास्तव में जीवन पर्यंत सिद्धार्थ जिन मूल्यों के लिए लड़ते रहे, जिन कुरीतियों के विरुद्ध आवाज उठाते रहे, जिन रूढ़ियों के खिलाफ हमेशा अडिग चट्टान की भांति खड़े रहे उनके लिए उन्होंने एक पृथक मार्ग और सत्ता का निर्धारण कर अपने अनुयायियों द्वारा उनके अनुपालन को सुनिश्चित करने का आग्रह भी किया।
यहाँ पर बुद्ध खुद को ब्राह्मण कहलवाना चाहते हैं। वरना ऐसा वचन नहीं कहते।वे खुद को अब्राह्मण नहीं समझते थे, अर्थात् ब्राह्मण समझते थे।
जीव और ब्रह्म की परिकल्पना हर दर्शन और हर धर्म का मूल होता है। “बिना जीव और ब्रह्म की चर्चा किए हम यह नहीं कह सकते कि मानव जीवन मूल रूप से क्या है। वह वास्तव में अपने पूर्व के कर्मों से आबद्ध संस्कारों का एक पिंड होता है। जो निरंतर अपने को परिमार्जित करते हुए श्रेष्ठ स्थान तक पहुंचने की कोशिश में लगा रहता है।”5 जब वह अपने आप का साक्षात्कार कर लेता है तो हम कहते हैं की जीव शिव के रूप में स्थापित हो गया।
गौतम बुद्ध ने इसे ब्रह्म का नाम दिया और कहा कि आत्म साक्षात्कार के बाद जीव ब्रह्म हो जाता है। “ब्रह्म के स्वरूप हो जाता है। ब्रह्म के सारे गुण उस जीव के अंतर्गत बुद्धत्व प्राप्ति के बाद समाहित हो जाते हैं यही बुद्धत्व की परिणति है जिसे गौतम बुद्ध ने अपने जीवन में प्राप्त किया। गौतम बुद्ध का जीवन मूलतः बुद्धत्व प्राप्ति के पहले और बुद्धत्व प्राप्त के बाद दो धाराओं में हमारे आता है।”6 हम देखते हैं कि सांसारिक जीवन में उनके द्वारा बिताए गए पल किस तरह से उनके जीवन को पारिभाषित करते हैं। वहां पर उनकी अपनी जद्दोजहद को बड़े आसानी से देखा जा सकता है। इसी के विपरीत जब वह बुद्धत्व को प्राप्त कर लेते हैं तो वहां भी हमें यह दिखने लगता है कि एक व्यक्ति अपने श्रेय को पाने के बाद किस तरह से अपने जीवन में परिवर्तन महसूस करता है।
इस तरह के संवाद में स्पष्ट देखा जाता है गौतम बुद्ध जो संसार के भलाई को अपना उद्देश्य मानते हैं उनके द्वारा मानव से महामानव बनने की यात्रा को हमारे सामने व्यक्त हुए यह सहज कहा जा सकता है कि “बुद्ध ब्रह्म है!” -
“ब्रह्मा ह् सक्खि पटिगण्हातु मे भगवा , भुज्जतु मे भगवा पुरळासं।।”
-सुंदरिकभारद्वाज सुत्त 25
अर्थात्, “ हे भगवान! आप साक्षात् ब्रह्म हैं मेरा भोजन स्वीकार करें।”
गौतम बुद्ध के द्वारा उनकी तपस्या के परिणाम स्वरूप क्षीड़ होती हुई उनकी काया को देखकर एक मानवीय चेतना के अंतर्गत हुए प्रेरणादायक अंकुरण के फलस्वरूप गौतम बुद्ध को साक्षात ब्रह्म स्वीकार करते हुए उनके समक्ष यह प्रस्ताव रखा गया कि आप ब्रह्म है अथवा ब्राह्मण की सारी विशेषताओं से आप युक्त है इसलिए आप मेरा नैवेद्य स्वीकार कर मुझे कृतकृत्य करें।
मानव अपनी श्रद्धा वही समर्पित करता है। जहां उसके भाव उसके विचार उसको प्रेरित और निर्देशित करते हैं। यह एक आभामंडल है, जो व्यक्ति को अपनी ओर आकर्षित करता है। इस आभा मंडल के द्वारा ही व्यक्ति अपने अंदर परिवर्तनों को महसूस करता है। उसके अनुसार अपने जीवन को आगे बढ़ाने हेतु प्रस्तुत होता है।
“मानव मात्र के जीवन में पाप से बचना और पुण्य को अर्जित करना ही एक महत्त्वपूर्ण कार्य होता है। इसके लिए हर कोई निरंतर प्रयत्नशील होता है। मनुष्य के इस भाव को स्वीकार करते हुए गौतम बुद्ध ने पुण्य अर्जन की भाव भंगिमा को सामने रखते हुए उस निवेदनकर्ता से कहा कि मेरे लिए कुछ इस तरह की सामग्री लाओ जिससे इस समय आपको अत्यधिक पुण्य का अर्जन हो सके।”7, यह अपने आप में बहुत ही महत्त्वपूर्ण है कि हम दैवीय प्रवृत्तियों को आधार मानते हुए सकारात्मक वृत्तियों को अपने मूल में धारण कर शुभ कर्मों की ओर प्रेरित होते हैं, जिससे समाज का कल्याण होता है और हमारा विकास भी संभव होता है।
“अञ्ञेन च केवलिनं महेसिं खीणासवं कुक्कच्चवूपसंतं।
अन्ने पानेन उपट्ठस्सु खेत्तं हि तं पुञ्ञेक्खरस्स होत।।27।।”
‘ज्ञानी महर्षि क्षीणाश्रव और चंचलतारहित मेरे लिये दूसरे अन्न और पेय लाओ। पुण्य चाहने के लिये ये उत्तम क्षेत्र होगा।'
“सिद्धार्थ गौतम बुद्ध का यह कहना अपने आप में कई चीजों को एक साथ लेकर चलता है। यहां पुण्य अर्जित करना उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना कि गलत कार्यों से बचना , परेशानियों से अलग रहना और समाज में सद्वृर्तियों के विस्तार हेतु अपना योगदान देना प्रमुख होता है।”8 हमारे समाज में खाद्य पदार्थों से ज्यादा महत्त्वपूर्ण उनके प्रति हमारे भाव होते हैं हमारी श्रद्धा होती है ।
जब हम श्रद्धा और भाव के साथ कोई वस्तु किसी को समर्पित करते हैं। तो वह हमारे लिए अनंत गुना फल देने का कारक बनता है। यह अपने आप में बहुत महत्त्वपूर्ण है कि जब हम अपने कार्यों को लेकर के सजग होते हैं। उनकी प्रस्तुति को लेकर के सक्रिय होते हैं तो निश्चित तौर पर हमारा जीवन हमारे लिए नए-नए उपलब्धियों की ओर जाने का रास्ता बताता है। ऐसे ही रास्ते पर चलकर के व्यक्ति बुद्धत्व को प्राप्त करता है अर्थात ब्रह्म बनने की ओर अग्रसर होता है।
वस्तु का मूल्य आवश्यकता के अनुसार निश्चित होता है। जिस तरह की आवश्यकताएं होती है, उसी तरह की वस्तुओं का हमारे जीवन में उपयोगिता केंद्रित महत्व होता है। हम यह देखते हैं, कि जब जीवन में कभी भी शुभ प्रवृत्तियों का आगमन होता है। तो हमे सात्विक भोज्य पदार्थ ज्यादा उपयोगी और ज्यादा स्वीकार्य लगते हैं। भोज्य पदार्थ अपने साथ अपने भावों को लेकर आते हैं। जिनके माध्यम से व्यक्ति में स्थाई शक्ति का निर्माण होता है। जिसके द्वारा व्यक्ति आने वाले दिनों में अपने सतर्क एवं स्वीकृत शक्ति का प्रयोग करके जीवन को सुंदरतम बनाने की ओर आगे बढ़ता है-
“बुद्धो भवं अरहति, पूरळासं पुञ्ञक्खेत्तमनुत्तरं।
अयागो सब्बलोकस्स, भोतो दिन्नं महप्फलन्ति।।”
- सुंदरिकभारद्वाज सुत्त 32
अर्थात्, आप (बुद्ध) पूड़ी और चिउड़ा के योग्य हैं। आप उत्तम पुण्य क्षेत्र हैं। सारे संसार से पूज्य हैं। आपको देना महाफलदायी।
जिस कालखंड में जिस भूभाग पर गौतम बुद्ध का जन्म हुआ वहां के खाद्य पदार्थ उस काल से लेकर आज तक काफी हद तक मिलते जुलते हैं। आज भी वहां की सुबह दही चूड़ा से शुरुआत पाती है। आज भी वहां पर यह भोज्य पदार्थ प्रयोग किया जाता है। इस प्रयोग को गौतम बुध के साथ जुड़े हुए इस घटना में साफ देखा जा सकता है। यह खाद्य चूंकि आर्यों का है, जिसके कारण गौतम बुद्ध कहते हैं कि जब हमारे खान-पान एक जैसे हैं, रीति रिवाज एक जैसे हैं, रहन-सहन एक जैसे हैं, तो ऐसे में हमारे कार्यों के द्वारा ही हमारे श्रेष्ठता का निर्धारण किया जाना चाहिए ना की कुल और जन्म परंपरा के अनुसार।
ऋषिसत्तम ब्राह्मण वंगीश ने कहा-
“एस सुत्वा पसीदामि, वचो ते इसिसत्तम।
अमोघं किर मे पुट्ठं न मं वञ्चेसि ब्राह्मणो।।14।”
“हे सातवें ऋषि! आपकी बात को सुनकर मैं प्रसन्न हूं। मेरा प्रश्न निरर्थक नहीं हुआ। आप ब्राह्मण ने मुझे धोखा नहीं दिया। -वंगीसुत्त चूळवग्गो सुत्तनिपात” अकिंचनं ब्राह्मणं इरियमानं।।3।।
“मैं आप अंकिचन ब्राह्मण को विचरण करते हुये देखता हूं।”-धोतकमाणवपुच्छा 5,6
“यहां पर बुद्ध को ब्राह्मण कहा, पर वे इसका विरोध नहीं कर रहे। मतलब बुद्ध खुद को ब्राह्मणत्व प्राप्त मानते थे।”
इस घटनाक्रम में साफ देखा जा सकता है कि सिद्धार्थ गौतम बुद्ध पुकारे जाने वाले संबोधन में उन्हें ब्राह्मण कहा गया और उन्होंने इसका विरोध नहीं किया। समर्थन करते हुए पुकारने वाले के प्रश्न का उत्तर भी दिया। इसका मतलब है कि वह स्वयं को ब्राह्मण के रूप में ही मानना चाहते थे ,और मानते थे। उनकी यह मान्यता ऊपर के उदाहरण में स्पष्ट है। साफ अर्थ है कि ब्रह्म को जानने वाला ही ब्राह्मण है। चूंकि बुद्ध ब्रह्म को जान चुके थे। इसलिए वह स्वयं को ब्राह्मण ही माना करते थे। इस तरह से उन्होंने कर्म को प्राथमिकता देते हुए कर्म के अनुसार व्यक्ति के श्रेष्ठता का निर्धारण करने की तरफदारी की।
ऊपर स्पष्ट सिद्ध है कि उस समय लोग गौतम बुद्ध को ब्राह्मण, ऋषि,महर्षि,ब्रह्म स्वरूप बुलाते थे। यह संज्ञा है जो सामान्यतया वैदिक धर्म में प्रयोग की जाती रही है। और इन संज्ञाओं का बिल्कुल भी विरोध नहीं किया गौतम बुद्ध ने। इसका मतलब है कि वह इन विशेषताओं से स्वयं को अभिभूत किया जाना उचित मानते थे। वे कहीं इन संज्ञाओं का विरोध नहीं कर रहे हैं। हाँ, पर वे खुद को ब्राह्मण ही कहलवाना चाहते हैं। उनको अब्राह्मण कहने का वे विरोध करते हैं। वे हमेशा से ब्राह्मण अथवा ब्राह्मण के निर्धारण में कर्मों को प्रमुख मानते थे और बुद्धत्व की प्राप्ति के बाद स्वयं को ब्राह्मण ही कहलवाना ज्यादा पसंद करते थे। स्पष्ट है, बुद्ध वैदिक गुण-कर्म-स्वभाव से वर्णव्यवस्था मानते थे। उसी के आधार पर खुद को क्षत्रिय से ब्राह्मण होना मान रहे थे।
अतः आर्य कुल के राजकुमार सिद्धार्थ स्वयं को संन्यास आश्रम में प्रवृत्त करने के पश्चात् से ही ब्रह्म की प्राप्ति का पथिक मानते थे। ब्रह्म की खोज में लगा हुआ व्यक्ति अर्थात् आगे बढ़ने वाला व्यक्ति सदैव यह चाहता है कि जीवन में उसके द्वारा हासिल किया गया सत्य वह स्वयं अनुभूत करके दुनिया के सामने लेकर आए और गौतम बुद्ध ने यही किया। अर्थात बुद्ध देव स्वयं को वर्ण कर्म अनुसार ब्राह्मण मानते थे। उनके अपने धर्म और अपने विचार को आगे बढ़ाने में उन्होंने महत्त्वपूर्ण माना कि वैदिक धर्म की प्रचलित परंपराओं में से महत्त्वपूर्ण उपादानों को लेकर उन्होंने उसका उसी तरह से प्रयोग किया जैसे पूर्ववर्ती समाज में प्रयोग किया जा रहा होता था।
उन्हें सभी भारतीय जनसमूह साधु, संन्यासी, ऋषि, महर्षि या परिव्राजक के रूप में ही देखता था और वैसा ही संबोधन तथा व्यवहार भी करता था। इतः बौद्ध कोई नवीन धर्म नहीं बल्कि ध्यान योग और संन्यास के क्षेत्र में एक संन्यासी का जीवन मत है। जैसे एक गुरू शिष्य परंपरा और संप्रदाय होता है। वैसे ही यह सनातन का ही संप्रदाय है जो वैदिक सभ्यता के भग्न होने के बाद जैसे अन्य सम्प्रदाय बने उन्हीं की भांति बना था । यहां पर गौतम बुद्ध के द्वारा प्रचलित धर्म उसके प्रति उसकी प्रवृतियां सब मिलाकर एक नवीनतम उन्मेष के परिवेश का निर्धारण करते हैं जिसके लिए गौतम बुद्ध पूरी तरह से जिम्मेदार थे।
सन्दर्भ ग्रन्थ
1. बुद्धचर्या, राहुल सांकृत्यायन, पृष्ठ 3 /25।
2. सुत्तनिपात- हिंदी अनुवादक- भिक्षु धर्मरक्षित
3. बौद्ध संस्कृति का इतिहास, भाग चंद्र जैन, पृष्ठ 184।
4. बुद्ध कालीन समाज एवं धर्म, डॉक्टर मदन मोहन सिंह, पटना, 1974, पृष्ठ 2/ 57।
5. बुद्धचर्या, राहुल सांकृत्यायन, पृष्ठ 3 /11।
6. बौद्ध संस्कृति, राहुल सांकृत्यायन, कोलकाता, 1952, पृष्ठ- 7/ 10।
7. बुद्धचर्या, राहुल सांकृत्यायन, पृष्ठ 3 /26।
8. भारतीय संस्कृति व उसका इतिहास, सत्यकेतु विद्यालंकार, पृष्ठ 6/15।
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